
-द ओपिनियन-
चुप्पियों के पथ पर (कविता संग्रह) विवेक कुमार मिश्र का हाल ही में वेरा प्रकाशन जयपुर से आया है। कवि यहां मौन के पथ पर कहें कि चुप्पियों के पथ पर चलते हुए शब्द और जीवन राग की जीवन प्रियता की कविताएं हैं। यहां शब्द जीवन यात्रा की सघन अनुभूतियों का साक्ष्य है जब कहने के लिए बहुत कुछ नहीं होता तब हमारी चुप्पियां इतना कुछ कह देती हैं कि बिना कुछ कहे भी कह दिया जाता है जो कहा जा सकता है, जो कहा जाना चाहिए । वैसे भी कविता कहे जाने की नहीं विचार में डूबने और लय में चल देने की विधा होती है । जो कविता कहे जाने का दावा सबसे कम करती है वह कहती ज्यादा है । कवि के कथन युगों के ताप को लेकर चलते हैं वहां कुछ भी कहे जाने की जल्दबाजी नहीं होती न ही यह हड़बड़ी होती कि कविता लिखना है तो वह सब कुछ कह दिया जाए जो कहे बिना नहीं रहा जा सकता है । एक कवि को इससे बड़ा नहीं माना जा सकता कि वह सब कुछ कह रहा है… कवि और कविता की सबसे बड़ी चुनौती जीवन है । जीवन पथ पर चुप्पियों के साथ चलना महत्वपूर्ण हो जाता है जब चलने के लिए कोई पथ न हो तो बिना कुछ कहे चल लेना कितनी बड़ी बात हो सकती है । इसे वहीं कह सकता है जो चुप्पियों के साथ जीना सीख लिया है… जिसे जीने के लिए कुछ अलग से करना नहीं होता वह सांस लेता है तो भी कविता ही कर रहा होता है । यहां यह भी कह सकते हैं कि चुप्पियों का चुनाव किसी और का नहीं है । यह उस लेखक का है जिसे अपने आप से और पूरे संसार से एक साथ बात करनी होती है । उसके लिए सत्य एक कील पर टंगा होता है , वहां से वह जीवन उठाता है और चलते चलते जो कुछ पथ पर मिलता है और जिससे जीवन में चलने की राह मिलती है जिससे जीवन की हर चुनौती आसान होती दिखती है उस स्थिति में हम संसार को कैसे पूरा का पूरा समझा सकते हैं । संसार को, समय को सभ्यता को और संस्कृति को एक साथ समझने के लिए कविता के पथ पर शोरगुल न होकर चुप्पियों का राज चलता है । इन्हीं चुप्पियों से समय को और समय के उन सारे सवालों से टकराते हुए ही कवि जीवन पथ पर चलता है । जहां से वह मौन हो जाता है , वहां से चुप्पियों के पथ पर… चलते-चलते जो ध्वनियां गूंजती है वहीं तो अंततः कविता और संस्कृति का सत्य हैं जिसे हम सब हर हाल में जी लेना चाहते हैं । यहां कविता का पथ चुप्पियों का पथ है जो बिना किसी शोरगुल के वह सब कर जाती है जो किया जाना चाहिए। कविता में जो कुछ भी कहा जाता है उससे कहीं ज्यादा बिना कहे इतना कुछ कह दिया जाता है कि यह घोषित सत्य की तरह है कि कवि अपने समय का साक्षात्कार ही नहीं करता बल्कि समय के भीतर जीने की शक्ति भी देता है । कवि का अनुभूत जगत सत्य के पास होता है और सत्य को सुनने , जानने और जीने के लिए कहीं दूर नहीं कवि की कुटिया के आसपास जाना ही होता है । यदि यह भी संभव नहीं हो पा रहा हो तो शब्द और संकेत के सहारे कवि की यात्रा इतनी लम्बी होती है कि एक न एक दिन आपके घर वह आ ही जायेगा । कवि युगों युगों तक कविता के सहारे ही तो हमारे संस्कार में हमारे जीवन में यहां तक कि हमारे रग रग में समाया होता है । कविता के संसार को छोड़कर कहीं भी हम जा नहीं पाते । चुप्पियों के पथ पर… चलते हैं तो संसार के पथ पर चलते हैं, संसार में कितना कुछ है जो शोर मचाता हुआ आता है पर कविता में आकर यह सारा शोर चुप्पियों में इस तरह शामिल हो जाता है कि इसमें आप केवल अपना ही चेहरा न देखें अपने साथ अपने पूरे समय का पूरे समाज का और युग संदर्भ का चेहरा इस तरह सामने आ जाता है कि कुछ भी देखने को बाकी नहीं रह जाता है । यहीं पर यह कहा जा सकता है कवि ही है जो हम सबके लिए नये सिरे से संसार को गढ़ता है । संसार की कोई कड़ी ऐसी नहीं है जो कविता में मुखर होकर न आ रही हों… कविता का इतिहास ही मानवीय सभ्यता और संस्कृति का खुला पाठ करना रहा है । कविताएं एक साथ इस संसार से लेकर उस संसार के बीच मानवीय संबंधों की गाथा को गाती रही हैं… कविता में उठी ध्वनियां केवल मानुष मन की नहीं होती यहां तो जगत के असंख्य जीव जगत को भाव व सम्मोहन का वह संसार मिलता है जिसके कारण ही संसार को नये सिरे से समझने में हम सब समर्थ होते हैं । मनुष्य को, संसार को और मानवीय संबंधों को खोजने के लिए बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है यहीं इसी मिट्टी में इतना कुछ मिला हुआ है , इतना कुछ घुला है कि… यहां से जीवन प्रत्यक्ष दिखाई देने लगता है । कवि इस जीवन का द्रष्टा होता है और इस अर्थ में भोक्ता होता है कवि के साथ कवि की आंखों से हम उस संसार को उस समय को देखते हैं जो हमारा भी होता है और अंततः हम सबका होता है । संसार से मिलने के लिए आसपास की प्रकृति, सड़कें, घर , आंगन, गांव, कस्बे, नगर और शहर तक मानवीय जीवन की बसावट का जो कुछ ढ़ांचा होता है उसे उकेर उकेर कर देखते हैं कि कहां हमारा समय समाज है जिसमें हम सभी घूम-घाम कर आते हैं , जीवन की चहल-पहल के साथ जीवन को संभलते , चलते देखते हैं । या यों कहें कि पूरा संसार आंखों में चमक कर कविता के राग में जीवन का साक्षात्कार लिए आ जाता है ।
कहीं से भी देख लें
संसार घटित अघटित के बीच
उमड़ता रहता है
कहीं से भी देख लें
संसार इसी तरह और ऐसे ही दिखेगा
आप देखें न देखें
संसार पर कोई फर्क नहीं पड़ता
वह इसी तरह
अपनी जगह पर बना रहता है
स्थिर संसार के बीच गतिशील दुनिया
और नित्य रंग का अपना ही बसेरा
अनगिनत कोलाहल के बीच
संसार मौन का…
साक्षात्कार भी कराता है
और आप कहां किस तरह
अपनी चुप्पियों में भी
इतना कुछ
कहे जा रहे हैं कि
उसे संसार अनदेखा भी नहीं करता
वह इसी तरह संसार को देखता है
और संसार यहां से
जीवन की नदी के रूप में
बहा ही जा रहा है
कहते हैं कि संसार
संभावना की एक नदी है
एक ऐसा पिटारा
जहां कुछ भी असंभव नहीं
जो आप सोच सकते
और जो सोच भी नहीं सकते
वह सब संसार के हिस्से आम बात है
एक आदमी अनंत रंगों को लेकर
आ जाता है संसार में
संसार की सांसारिकता को लेकर
न जाने कहां से
कहां तक चलें जाते हैं
और आदमी है कि
इस संसार को अपने ढ़ंग से
अनंत दृश्यों में खोजता रहता है
और संसार है कि
हर दृश्यता में एक नया संसार
(इसी संग्रह से कविता)

















