
– विवेक कुमार मिश्र

तुम , तुम ही क्यों बने रहते हों
तुम कब तक इसी तरह
ऐसे ही बने रहोगे
भला ऐसे भी कोई रहता है
तुम तुम ही क्यों बने रहते हों
तुम बरगद की तरह विशाल
क्यों नहीं हो जाते
क्यों पंख समेट कर पड़े रहते हों
थोड़ा चलों थोड़ा पंख पसारो
घेर लो अपनी बाहों में पृथ्वी को
बरगद की तरह विशाल हो जाओ
अपने आसपास एक पूरी
दुनिया ही बसा लो
बरगद किसी से कुछ नहीं कहता
न ही किसी के फेर में पड़ा रहता
वह तो अपने ही रास्ते नाप लेता है
पृथ्वी की नस नस में समा जाता है
और खींच लाता है पाताल से भी जल बूंदें
फिर चमकता ही रहता है
देखो इस वरगद की जड़ें
आसमान तक चमकती हुई चली जाती हैं
पृथ्वी जब आसमान पर दिखने लगे
तो समझ लेना कि बरगद ही उठा हुआ है
बरगद जितना ही ऊंचा दिखता
उतना ही उसकी जड़ें
पाताल की यात्रा करती जाती हैं
पाताल से लेकर आसमान तक
कोई और नहीं तुम हो , तुम यानी बरगद
और जहां बरगद है वहीं पूरी दुनिया है
दुनिया भर के लोग दुनियादारी के लिए
आ जाते हैं बरगद के पास
और बरगद है कि संभाल कर रखता है
मनुष्य को , जीवन जगत को और पृथ्वी को
पृथ्वी के कोने-कोने की कथा में
अपनी जड़ों के साथ
पृथ्वी को पकड़े हुए बरगद ही कहता चलता है
जीवन की , जंगल की कथा !