
-भावेश खासपुरिया-

तुम ग़लत को
ग़लत कहने पर डटे रहो,
लेकिन, ठहरो!
साथ ही इसके
सही को सही
बने रहने दो।
ग़लत को तुम
किसी भी मूल्य पर
मत बन जाने दो सही,
लेकिन, आवेग में
(ग़लत को ग़लत साबित करने के )
किसी सही पर
ग़लत की तख़्ती
टाँग देने से बचो।
तुम करो
सही को स्वीकार
और ग़लत पर शोर,
लेकिन, देखो!
इस दौर में बहुत सरल है
सही और ग़लत की
उठती आवाज़ों में
कभी छिप कर,
कभी सरेआम
किसी सही को
उस ग़लत का
हिस्सा बना देना।
इसलिए सुनो!
तुम चाहे किसी भी
भीड़ की आवाज़ रहो;
लेकिन किसी
प्रबल झंझा में
विवेक को अपने
न ढह जाने दो,
सही की आवाज़ को
अपने ही हाथों से
ग़लत की तुला में,
मत तुल जाने दो।
वरन् एक दिन
ग़लत के पलड़े में
कराहती असंख्य सही आवाज़ें
इस देश, समाज और तुम्हारी भी
कोढ़ी और घुन लगी आत्मा को
और भी थोथी कर देगी।
©भावेश खासपुरिया

















