संसार व संस्कृति बँधने में नहीं मुक्त होकर जीने में है

एक किनारे पर ही जीवन की डोर नांव बांधकर रुको मत ...जीवन को एक जगह पर ही मत बांधों यह जीवन तो बंधन से मुक्त होने के लिए आगे बढ़ता है। एक जगह पर ही रुक जाना बंध जाना मोह है इस मोह से मुक्ति ही ज्ञान है ...चेतना हमें बांधती नहीं मुक्त करती है ...मुक्त होकर जीना ही एक तरह से देखा जाय तो सार्थक जीवन को जीना है...अपने अस्तित्व को पाना है

vivek mishra
डाॅ विवेक कुमार मिश्र

बसंत पंचमी पर विशेष…

– विवेक कुमार मिश्र-

‘बाँँधों न नांंव इस ठाँँव , बंधु !
पूछेगा सारा गाँँव , बंधु !

यह घाट वहीं जिस पर हँसकर
वह कभी नहाती थी धँसकर ,
आंखे रह जाती थी फँसकर
कँपते थे दोनों पाँँव बंधु

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी
फिर भी अपने में रहती थी
सबकी सुनती थी , सहती थी
देती थी सबके दांव , बंधु !’
( 23 जनवरी 1950 , ‘अर्चना’ में संकलित )

महाप्राण निराला ने जीवन के शाश्वत प्रश्नों से टकराते हुए जीवन के विराट रंगमंच पर जीवन को समझने के क्रम में ‘बाँधों न नांव इस ठाँँव बंधु !’ लिखा है । यह कविता अपने आकार -प्रकार में जितनी छोटी है , वहीं अपने पाठ व अर्थ में विराटता का बोध कराती है (23 जनवरी 1950, अर्चना में संकलित) जीवन, दर्शन, मनोविज्ञान, समाज और मानवीय वृत्तियों की गूढ़ समझ को खोलने व जानने के क्रम में यह कविता सामने आती है । प्रेम जितना जीवन में होता है, संसार में होता है उससे कहीं ज्यादा मन के भीतर चलता रहता है, मन को जानना और मन को समझाना बहुत कठिन होता …मन चंचल है इसे एक ठौर पर बांधना मुश्किल होता है। मन की गूढ़ वृत्तियों पर जीवन की खुशी को …चमक को पाना भी कहां आसान ? कविता जीवन के चर्चित प्रसंग से शुरु होती है और बहुत तेजी से इस प्रसंग को जीते हुए इस ठौर पर बंधे न रह जाने का संदेश और चेतावनी देते हुए आगे बढ़ जाती है …साफ है कि हे बंधु यहां आये हो ! ठीक है …यह जीवन तो एक रंगशाला है यहां तरह – तरह से अभिनय करने के लिए हम आते हैं पर यहींं पर बंध न जाये ….जीवन की खुशी बंधन में नहीं है …वह जो कुछ है …वह तो मुक्त होने में ही है। यदि यहीं पर …इसी घाट पर बंध गये तो सामने जो पूरा जीवन संसार है उसका क्या करेंगे ? उसे कैसे जवाब देंगे ? क्या कहेंगे ? कि हम बंधने के लिए ही आये हैं ? बंधन ही हमारे जीवन का चरम उद्देश्य है फिर तो संसार की सारी शक्तियों का क्या करेंगे ? संसार और संस्कृति तो बंधने में नहीं इससे मुक्त होकर जीने में है …यदि हम जीवन को जीते हैं तो स्वाभाविक है कि वह हमें मुक्त करता है …हमसे कहता है कि एक और हो जीवन का फेरा …एक और हो सवेरा …इस तरह तो जीवन की अनंत श्रृंखला आँखों के आगे ही चल पड़ती है …इस क्रम में जीना महत्वपूर्ण होता है न कि बंध जाना …इसलिए हे बंधु इस घाट पर नांव मत बांधों ….इसे मुक्त करों …नहीं तो कल सारा गांव पूछेगा ….हम किसको सफाई देते फिरेंगे कि यह जीवन है …यह यह है तो यह नहीं । तुम यदि यहीं पर जीवन के एक प्रसंग में ही बंध गये तो आगे जो विराट जीवन संसार है …जो सभ्यताएं हैं उनके काल खंड में हमारा अस्तित्व क्या होगा ? इस तरह हम कहां टिकेंगे ? कविता चर्चित व गूढ़ जीवन प्रसंगों के साथ मानवीय भाववोध की अर्थ पूर्ण व्यंजना है। एक पूरा संसार है और इस संसार में सभ्यता के अपने तकाजे हैं तो मानवीय भावों व संबंधों के अपने अर्थ व जीवन संदर्भ। जीवन में बहुत कुछ घटित होता रहता है और घटनाओं की भीड़ में जीवन के अर्थ को जी लेना और जान लेना कम नहीं है …न ही कम महत्वपूर्ण है। स्त्री और पुरुष की दुनिया एक सी नहीं है दोनों के लिए जीवन के प्रसंग और जीवन से भरी दुनिया को जीने का अर्थ अलग – अलग ढ़ंग से मूल्यवान व मूल्यांकन की मांग रखती है। पुरुष की दुनिया और स्त्री की दुनिया दोनों ही दो संसार है दोनों को एक ढ़ंग से ही नहीं हांका जा सकता। स्त्री अपने प्रिय से, अपने बंधु से कहती है कि इस संसार से बंधो मत ….यह जीवन यह प्रेम हमें बांधने के लिए नहीं मुक्त करने के लिए है। बंधु एक किनारे पर ही जीवन की डोर नांव बांधकर रुको मत …जीवन को एक जगह पर ही मत बांधों यह जीवन तो बंधन से मुक्त होने के लिए आगे बढ़ता है। एक जगह पर ही रुक जाना बंध जाना मोह है इस मोह से मुक्ति ही ज्ञान है …चेतना हमें बांधती नहीं मुक्त करती है …मुक्त होकर जीना ही एक तरह से देखा जाय तो सार्थक जीवन को जीना है…अपने अस्तित्व को पाना है । बंधन से निकलों…छोड़ो इस घाट का मोह …एक जगह पर ही क्यों रुक जाना …जीवन तो गति में है…अर्थात नांव मत बाधों …क्योंकि तुम एक जगह पर नांव बांध दोंगो तो पूरा समाज पूरा गांव पूछेगा । जीवन के विराट संसार में एक पक्ष या एक ही प्रश्न के लिए हम थोड़े बने हैं ….जीवन का रूपक तो नदी की बहती धारा की तरह है यह नदी भी तो चलती बहती रहती है …एक जगह रुक जायेंगे तो प्रश्नों से बस घिरे होंगे ….कुछ भी सार्थक नहीं कर पायेंगे। हम किसको जवाब देते रहेंगे । अर्थात सारा जीवन एक जगह से बंध जाने पर जवाब देने में ही निकल जायेगा । यह जीवन और जीवन का मूल्य केवल जवाब देने के लिए ही नहीं होता वल्कि जीवन का मूल्य इस बात में है कि हम जीवन को अर्थ पूर्ण ढ़ंग से जीना सीखे न कि उस मूल्यवान जीवन की बातों को लोगों के बीच चर्चा करने में ही खत्म कर दें । अनावश्यक बातों का कोई मतलब नहीं ।
यह तो जीवन का घाट है जहां कभी दोनों अर्थात स्त्री – पुरुष जीवन के रस में …जीवन के प्रेम में डूबे थे । प्रेम के अर्थ में भीगे थे और जीवन के अर्थ का अर्थापन किये थे पर इस जीवन की गाथा का जो आनंद है उसे केवल अनुभव किया जा सकता है इसकी गाथा गाना ही तो जीवन का अवमूल्यन है जिससे मुक्त होने की मांग कविता प्रारंभ में ही करती है और जीवन के इस प्रसंग को , प्रेम को समूची व्यंजना में स्त्री ही समझती है और वहीं अपने पुरुष को मुक्त करती है और कहती है कि इस संसार को जीना मूल्य है न कि उस जीये गये जीवन का प्रचार – प्रसार करना । आज जब जीवन के हर क्षेत्र में दिखावा , प्रदर्शन का बोलबाला हो तब सादगी की बात एक मूल्य की तरह आती है । जब सब कुछ प्रचार – प्रसार के लिए छोड़ दिया गया हो तब स्थायित्व के लिए कुछ करना ही जीवन बन जाता है । यह कविता हमें इस तरह सोचने के लिए कहती है कि अभी भी जीवन में बहुत कुछ है जो प्रचार व प्रसार के लिए नहीं होता और जीवन के लिए महत्वपूर्ण होता है । आज जो सामाजिक हादसे हो रहे हैं उसके मूल में दिखावा ही है , जीवन के प्रति अधूरी समझ है । इस कविता में प्रेम की जो पवित्रता है जो सादगी है वहीं भविष्य को रचती है …वहीं हमारे जीवन में स्थायीभाव भी रचती है । जीवन में स्थायित्व के भाव को अपनाने की जरुरत है । यह भाव ही जीवन को रचता है । जाहिर है कि दिखावे से दूर रहकर ही जीवन को हम नये सिरे से रच सकते हैं । जीवन का सुख …जीवन की खुशी उसके जीने में हैं …अर्थ को पाने में है । एक जगह ठहर जाना कभी भी जीवन नहीं होता न ही प्रेम होता …न ही संसारियत होता न ही संसार न संसार की यह संस्कृति है ।

आँखें रह जाती थी फंसकर ….यह आँखों का फंस जाना ही तो संसार में उलझ जाना है …उलझना और जीना ही जीवन है पर इस जीवन संसार की बंधताओं से निकलकर सही मायने में हम संसार में आते हैं । संसार और संसार की संस्कृति को जीने के क्रम में पैर कपते थे । पैर की गति जीवन की और सभ्यता की गति से जुड़ी हुई है । इस क्रम में जो खुशी थी वहीं तो हम दोनों को रचती थी ….इस रचे जाने को केवल अनुभव किया जा सकता है । इस संसार को जीते हुए मन जिस तरह से हंसता था वह स्वयं में बहुत कुछ कह जाता था । कुछ कहने के लिए हमें कहीं जाने की जरूरत नहीं …बस अपने भीतर ही जाने की जरूरत है …इस भीतर की खुशी को क्यों संसार का विषय बनाये …यह सच तो केवल हमारा और तुम्हारा है इसे जानने का विषय संसार भर का क्यों बनाये ….इसीलिए बंधु यहाँ पर अपनी नाँव अपनी जीवन गाड़ी मत बांधों । यहां से चलों …जीवन को जीकर मुक्त हो …बंधन से मुक्त होना ही तो जीवन की सिद्धि है जिसे कविता / प्रेम / और जीवन के अर्थ व दर्शन से जाना जा सकता है । इस प्रेम में रहकर ही हम अपने आप में , अपनी दुनिया में रह पाते हैं । जीवन संसार के प्रसंग में संसार को सुनना पड़ता है । संसार और संस्कृति को जानना ही पर्याप्त नहीं है …संसार को सफलता पूर्वक जीने के लिए अपना पक्ष भी रखना पड़ता है । अपने होने का अर्थ व जीवन की सार्थकता भी बतानी पड़ती है । सुनना , समझना और अपनी बारी आने पर अपने जवाब को देना भी जीवन को जीना ही कहते हैं । वह स्त्री जो सबकी सुनती थी वहीं सबको अपने होने की अपनी सत्ता का जवाब भी देती थी । देती थी सबके दांव बंधु ….सबको जानना और इस हिसाब से सबका पक्ष सुनना और सबकों जवाब देते हुए जिन्दगी के अर्थ को पाना ही तो सही मायने में जिन्दगी है ।
यह कविता मूलतः प्रेम के अर्थ प्रसार की बहुत गम्भीर प्रस्तुति है । यहां एक संसार हमारी वास्तविक दुनिया है …जिसमें जीवन का घाट है और इस घाट में जीवन को जीते हुए तरह तरह के संसारी हैं और यहीं प्रेम के मूल्य संसार की भी दुनिया है जहाँ पर कहे से ज्यादा अनकहा संसार और संसार की संसारियत से मुक्ति की कामना है जिससे मुक्ति का जरिया केवल प्रेम की दुनिया में मिलता है ….जो बांधता नहीं वल्कि मुक्त करता है । यह कविता प्रेम की कविता है …मुक्ति की कविता है और समाज में रहते हुए संसार की संसारियत से मुक्ति की इस बड़ी कविता में जीवन की अनंत व्याख्या छिपी है जिसे सही संदर्भ में पढ़े जाने की जरूरत है ।

– विवेक कुमार मिश्र

(सह आचार्य हिंदी राजकीय कला महाविद्यालय कोटा)
F-9, समृद्धि नगर स्पेशल , बारां रोड , कोटा -324002(राज.)

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