
-साहित्य डेस्क-
राजस्थानी में नीति संबंधी अनेक दोहे और सोरठे हैं। इनमें सबसे ज्यादा प्रसिद्ध हैं राजिया रा सोरठा। ये सोरठे राजस्थानी के प्रख्यात कवि कृपाराम जी द्वारा लिखित हैं। उन्होंने इन सोरठों की अपने एक सेवक राजिया को संबोधित करते हुए रचना की। इसलिए ये राजिया रा सोरठा नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके दोहे जीवन के एक मोड़ पर एक सच्ची सीख की तरह हैं। ये राजस्थान के लोकजीवन में रचे बसे हैं और बड़े बुजुर्ग उनको आपसी बोलचाल में सीख के रूप में इनका उपयोग करते रहते हैं। हां उच्चारण का लहजा बदल जाता है। लेकिन उससे क्या जीवन की सच्चाइयों से तो रूबरू कराते हैं ये दोहे और सोरठे।
बात सामान्य जीवन की हो या शिखर पर बैठे किसी राजनेता की आसपास अच्छे लोग हों और अच्छी संगत होतो बिगड़ी बात भी बन जाती हैै। यह जीवन का एक कटु सत्य है। खासकर राजनेताओं के लिए और भी ज्यादा जरूरी है। आज के राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो यह बात और भी सार्थक नजर आती है। राजस्थानी के प्रख्यात कवि कृपाराम जी के ये सोरठे इसी बात की ताकीद करते हैं कि हमारे संगति और सलाहकार हमेशा अच्छे होने चाहिए। कृपाराम जी कहते हैं-
नैन्हा मिनख नजदीक उमरावां आदर नहीं
ठकर जिणने ठीक रण में पडसी राजिया।
भाव यह है कि जो व्यक्ति सदैव छोटे आदमियों या क्षुद्र विचारे वाले लोगों को सदैव अपने पास रखते हैं और उमरावों यानी सुयोग्य व सक्षम व्यक्तियों का सम्मान नहीं करता है तो उस ठाकुर यानी शासकीय प्रमुख के रूप में किसी पद पर बैठे व्यक्ति को रणभूमि में यानी मुश्किल समय में पराजय का सामना करना पड़ता है।
इसी तरह की जीवन के यर्थाथ से जुड़ा उनका यह एक और सौरठा देखिए–
कुटल निपट नाकार, नीच कपट छोड़े नहीं
उत्तम करे उपकार, रुठा तुठा राजिया
भाव यह है कि कुटिल और नीच व्यक्ति अपनी कुटिलता और नीचता कभी नहीं छोड़ता । लेकिन उत्तम कोटि के व्यक्ति चाहे वे नाराज हों या खुश हों, संतुष्ट हों दूसरों का सदैव भला ही करेंगे। वे किसी को हानि नहीं पहुंचाएंगे। इसलिए सद्भावी लोग ही रखिए। क्योंकि कुटिल व्यक्ति अपनी कुटिलता से बाज नहीं आता।
ते देखिए जीवन के कितनी नजदीक हैं ये सोरठे और कैसे नीति वान हैं।

















