
ग़ज़ल
शकूर अनवर
मेरी ग़ज़लों में असर भी था तो क्या।
मेरे अंदर ये हुनर भी था तो क्या।।
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वो कोई किरदार* का अच्छा न था।।
शहर में वो मोतबर* भी था तो क्या।।
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ज़लज़ला तो सारी बस्ती ले गया।
उसमें अपना कोई घर भी था तो क्या।।
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थी मेरे हर हाल पर उसकी नज़र।
वो बज़ाहिर* बे ख़बर भी था तो क्या।।
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वो तो मेरे क़त्ल पर रोये न थे।
शहर सारा नोहागर* भी था तो क्या।।
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हमने जब जो कुछ भी चाहा वो किया।
फिर ये जीवन मुख़्तसर* भी था तो क्या।।
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हम दिलों के दर्द को पहचानते।
बस्तियों में शोरो- शर* भी था तो क्या।।
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दर्स* देते हम मुहब्बत का उसे।
उसके अंदर जानवर भी था तो क्या।।
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कुछ तो रखते आप “अनवर” हौसला।
कोहसारों* का सफ़र भी था तो क्या।।
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किरदार* चरित्र
मोतबर* सम्माननीय
बज़ाहिर*प्रत्यक्ष रूप से
नोहागर*विलाप करने वाला
मुख़्तसर*संक्षिप्त
शोरो-शर* झगड़ा फसाद
दर्स देना* पाठ पढ़ाना
कोहसारो* पहाड़ की तलहटी