व्यंग… शर्म से डूब मरे बुराई

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 -पीयूष कुलश्रेष्ठ-

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पीयूष कुलश्रेष्ठ

(वरिष्ठ पत्रकार)

लाला ओ — पप्पू लाला–। मैं कुछ समझ पाता इससे पहले ही रामवती मौसी रेल की तरह  धड़धड़ाती  मेरे कमरे में आ धमकीं । मैं दोपहर की नींद निकालने के बाद चाय के जुगाड़ में लगा था कि मौसी ने आते ही सारा वातावरण बदल दिया। मैं कुछ बोलता, समझ पाता इससे पहले ही मौसी सुपरफास्ट ट्रेन की तरह शुरू हो गई। बेटा देख कनागत खत्म होने को हैं और निगोड़ी बरसात जाने का नाम ही नहीं ले रही। मुझे तो लगता है कि इस बार रावण जलेगा नहीं बल्कि डूब कर मरेगा। मैं भौंचक्का सा मौसी को ताकता रहा। मौसी तो कहां रुकने वाली थीं , उसने फिर शब्दों की बरसात चालू कर दी। माथे पर हाथ रखकर मुझे समझाने के अंदाज में बोली बेटा– देख हर बार अपन लोग रावण के रुप में बुराई को जला कर स्वाह कर देते हैं, लेकिन बुराई समाज से जाने का नाम ही नहीं लेती। अच्छा होगा कि इस बार खुद ही शर्म से डूब मरे। कम से कम लोगों को लगेगा कि दुनिया में हया-शर्म अभी जिन्दा हैं। अनपढ़ मौसी की बात मेरे दिल में नश्तर की तरह चुभी। मौसी ने लम्बी सांस ली तो मैंने टोका कि मौसी बुराई तो दुनिया से जाने से रही, बेकार मैं क्यूं अपना माथा खराब कर रही हैं। रावण जले या डूब मरे क्या फर्क पडता है। बात सुनते -सुनत मेरी पत्नी को चाय का आदेश देने के बाद मौसी थोड़ी देर के लिए चिंता में डूब गई।
कुछ पलों की खामोशी के बाद मौसी ने फिर सन्नाटा तोड़ा , बेटा बात तो तेरी सोलह आने सही है, फर्क तो नहीं पड़ता   और पड़ता भी है। भुगतना तो लोगों को ही पड़ता है। अगर कुछ कर नहीं सकते तो कम से कम शोर तो मचा सकते हो। चुप बैठने से भी क्या होगा।
कभी तो किसी के कान पर जू रेंगेगी। बता बेटा, गौ माता को जाने कौन सी बीमारी हो गई—। मैंने कहा लंपी –। हां- जो भी हो रोज जाने कितनी गाये मर रही हैं, लेकिन हमें तो चीतों की चिंता लगी है। मुझे टीवी पर बार -बार चीते देखकर बड़ी जलन होती है। काश गौ – माता के बारे में भी कोई सोचता–। मैंने कहा कि मौसी सरकार कर तो रही है कोशिश –।  मेरे मुंह खोलते ही मौसी एकदम उबल पड़ी –। तेरी सरकारों की बात न करें तो ही अच्छा है। मंहगाई इतनी है कि मेरी बीस हजार रुपए की पेंशन में भी गुजारा नहीं होता। मुझे तो तूने ही कहा था कि अच्छे दिन आएंगे। अभी तक तो आए नहीं। इन नेताओं में थोड़ी लोक-लाज बची है या नहीं। मेरी बोलती बंद थी। चाय का घूंट लेते ही मौसी से बहू चीनी थोड़ी कम है, फिर बिस्कुट को चाय में डूबो कर खाते हुए मौसी देख, लाला लोग बरसों से मूर्ख बनते रहे और आगे भी बनते रहेंगे। चाय खत्म होते ही मौसी ने राधे-राधे कह कर अपने घर की राह पकड़ी । मेरी माता की सहेली मौसी अक्सर हमारे यहां आ कुछ- न कुछ ज्ञान बांट कर चली जाती थी। मौसी तो चली गई थी, लेकिन उसकी सटीक बाते मेरे कानों में देर तक गूंजती रही।

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Arpit
Arpit
2 years ago

Content is good. Written in a very apt way. Waiting for next article.