
-दिनेश नागर-

हिन्दी किसी उत्सव-दिवस की औपचारिकता, केवल साहित्यिक रचनाओं या संवाद का माध्यम अथवा पाठ्य पुस्तकों तक सीमित विषय भर नहीं है। यह जीवन-दर्शन की वह दिव्य धारा है, जो माँ की भाँति हमारी आत्मा को संस्कारित करती है, विचारों को दिशा देती है और चरित्र तथा व्यक्तित्व की आधार-शिला रखती है।
हिन्दी मात्र संप्रेषण का साधन नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक चेतना और सामाजिक संवेदनशीलता की अखंड प्रवाहिनी है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे अस्तित्व का पोषण करती आ रही है।
इसका गहरा संबंध जनमानस से है। यह जनता की वेदना, उल्लास, आकांक्षा और संघर्ष की सजीव अभिव्यक्ति है। किंतु विडम्बना यह है कि अनेक लेखक इसकी स्वाभाविक सरलता और सहजता से विमुख होकर इसे कृत्रिम जटिलताओं में बाँध देते हैं। परिणामस्वरूप उनकी रचनाएँ आमजन से कटकर पुस्तकालयों या अलमारियों में धूल फाँकती रह जाती हैं। तब यह प्रश्न उठता है—क्या साहित्य केवल आत्मसंतोष का साधन है या समाज को जाग्रत कर दिशा देने का उपकरण भी?
सच्ची साधना तो इसी में है कि हिन्दी की सहजता और सरलता में लिखकर जनमानस के हृदय को स्पर्श किया जाए, जीवन में सार्थक परिवर्तन लाया जाए और संस्कृति को नई ऊर्जा से पोषित किया जाए।
हिन्दी आत्मा की भाषा है। यह हमें सत्य, करुणा और मानवता के आलोक से परम तत्व—परमात्मा से जोड़ती है। किन्तु इसका दायरा केवल आध्यात्मिक चेतना तक सीमित नहीं है। यह हमारी संवेदनाओं को मानवीय धरातल पर प्रतिष्ठित करती है और मनुष्य-मनुष्य के बीच के भेदों को मिटाकर समरसता तथा सह-अस्तित्व की भावना को सुदृढ़ बनाती है।
आज के युग में हिन्दी की महत्ता केवल संस्कृति और मानवीय मूल्यों तक सीमित नहीं रह गई है। विज्ञान, तकनीक, मीडिया और डिजिटल दुनिया में इसकी उपयोगिता निरंतर बढ़ रही है। हिन्दी की दक्षता रखने वालों के लिए आज असीम संभावनाएँ और अवसर उपलब्ध हैं।
निस्संदेह, हिन्दी जीवन-दर्शन भी है और संस्कृति की संवाहिनी भी। इसका सम्मान केवल एक भाषा का सम्मान नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता का सम्मान है। हिन्दी को आत्मसात करना वस्तुतः स्वयं को पहचानना और अपने जीवन को उच्च आदर्शों की ओर ले जाना है।
अतिथि सहायक आचार्य हिन्दी, राजकीय महाविद्यालय, सरवाड़ (अजमेर)
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