अंधेरे पहलुओं को उजागर करती ‘मार्चिंग इन द डार्क’

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#सर्वमित्रा_सुरजन

अंधरातल्या मशाली या ‘मार्चिंग इन द डार्क’ युवा फिल्मकार और निर्देशक किंशुक सुरजन Kinshuk Surjan की डाक्यूमेंट्री फिल्म है, जो क्लिन डी’ओइल फ़िल्म्स के बैनर तले बनी है। वृत्तचित्र का मुख्य विषय महाराष्ट्र में किसान आत्महत्या और उन विधवाओं का त्रासद जीवन है, जिन्हें घर और बाहर हर जगह कई कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। लेकिन पांच सालों की मेहनत को 105 मिनटों में समेटे इस वृत्तचित्र को देखने के बाद महसूस होता है कि आपने किसी बेहतरीन उपन्यास को पढ़ा है, जिसका हर पन्ना एक नए अनुभव, एक नए अहसास को जगाता है, हर अध्याय में एक नयी कहानी खुलती है, लेकिन इसके बावजूद केन्द्रीय विषय से भटकाव नहीं होता। जैसे किसी रसभरी और सुरीली कविता या ग़ज़ल को सुनते हुए श्रोता उसे संग-संग गुनगुनाने लगता है और हर नयी पंक्ति के बाद उसे पता होता है कि मुखड़ा कब दोहराना है, ठीक ऐसा ही अनुभव मार्चिंग इन द डार्क को देखते हुए होता है। इसमें अनेक कहानियां संग-संग चलती हैं, लेकिन सबमें कहीं न कहीं मुख्य किरदार संजीवनी भूरे या उस जैसी तमाम महिलाओं को जुड़ा पाते हैं। असल में इसे वृत्तचित्र या डाक्यूमेंट्री न कहकर फीचर फिल्म की तरह देखा जाए, तो भी उतना ही आनंद आएगा। खास बात यह है कि संजीवनी समेत फिल्म के तमाम किरदारों के असल जीवन को ही दर्शक पर्दे पर देखते हैं और उनकी बातचीत में भी कहीं कोई नाटकीयता नहीं है, किसी ने उन्हें संवाद लिखकर नहीं दिए कि आपको इस मौके पर ये कहना है या ऐसे भाव देने हैं। जो कुछ है असली है और इस असलियत को दर्शकों तक पहुंचाने का कमाल किंशुक सुरजन और उनके साथी सिनेमैटोग्राफर लीना पटोली, कार्ल रोटियर्स और विशाल विट्टल ने कर दिखाया है।
फिल्म की शुरुआत फसलों की नीलामी के दृश्य से शुरु होती है, जिसमें जाहिर तौर पर एमएसपी जैसी कोई बात नहीं है, बल्कि सीधे-सीधे दबाव डालने की बात है कि अभी जो दाम मिल रहे हैं, वही ले लो, वर्ना बाद में इतना भी नहीं मिलेगा। बाजार के खेल के दबाव के आगे किसान मजबूर है। एक बुजुर्ग किसान कहते हैं कि किसानों को कभी भी वह नहीं मिलता जिसके वे हकदार हैं। आगे पूरी फिल्म इसी हक मारने के अलग-अलग नतीजों को दिखाती है, लेकिन इन सबमें महिलाएं किस तरह त्रासदी का शिकार होती है, उसका बेहद मार्मिक चित्रण किया गया है। संजीवनी भूरे के पति भी किसान थे और उनके आत्महत्या करने के बाद संजीवनी पर अपने दोनों छोटे बच्चों को पालने, खेती संभालने और साथ ही संयुक्त परिवार की जिम्मेदारियां हैं। इन जिम्मेदारियों को निभाते हुए संजीवनी जीवन में आगे बढ़ना और पढ़ना चाहती है। वह अपने परिजनों से छिपकर फर्स्ट ईयर में दाखिला लेती है, पढ़ती है, परीक्षा भी देती है और अपनी सहेली के साथ परीक्षा के अनुभव को साझा करते हुए बताती है कि उसने कैसे नकल करने की तैयारी भी की थी। फिल्म में इस दृश्य को बेहद सहज और रोचक तरीके से दिखाया गया है। जिसमें दर्शक भी संजीवनी के साथ मुस्कुराए बगैर नहीं रह सकता।
पति की आत्महत्या के बाद जीवन की कठिनाइयों का सामना करने वाली अकेली संजीवनी नहीं है, उससे पहले भी कई महिलाएं इसी तरह विधवा हुईं और संजीवनी के सामने भी कई और महिलाएं अकेली पड़ती जा रही हैं। इन महिलाओं के सामने समाज अनेक अनसुलझे सवाल अपनी रुढियों के जरिए खड़े करता है, जिनके जवाब ढूंढने में इन्हें मानसिक संताप से गुजरना पड़ता है। एक गैर सरकारी संगठन इन महिलाओं के लिए एक परामर्श सत्र चलाता है, जिसमें संजीवनी भी जाती है। पहले-पहल वह अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करने में असमर्थ दिखती है। कैमरा संजीवनी के चेहरे के भावों को कैद करता है और दर्शक उसके गले में फंसे शब्दों को महसूस करता है। बार-बार पूछने पर भी संजीवनी कुछ नहीं कहती, लेकिन समय बीतने के साथ उसके मन में उमड़ते भाव शब्दों के जरिए अभिव्यक्त भी होते हैं और संजीवनी अपनी साथी महिलाओं से बात करती है, हाल ही में विधवा हुई एक अन्य महिला को सांत्वना के साथ-साथ हिम्मत बंधाती है, अपने बच्चों के साथ बच्ची बनकर हंसी-ठिठोली भी करती है। उनके कहने पर कुछ देर के लिए माथे पर बिंदी लगाती है और परामर्श केंद्र में दूसरा विवाह करने पर अपनी राय भी रखती है।
दरअसल यह फिल्म का एक दूसरा पहलू है, जो बिना किसी उद्घोषणा के सीधे दर्शकों के मन में दखल देता है। परामर्श केंद्र में किसान विधवाओं को मनोवैज्ञानिक मदद तो दी ही जाती है, उनसे बातचीत में कई ऐसे मुद्दे निकल कर आते हैं, जो सीधे नारीवाद या फेमिनिज्म से जुड़ते हैं और साथ ही सामाजिक रूढ़ियों और अंधविश्वास को भी उजागर करते हैं। जैसे पति के देहांत के बाद महिलाएं माथे पर कुमकुम क्यों नहीं लगा सकतीं या होली के रंगों से क्यों दूर हो जाती हैं। उनके सामने जब गुलाल से सजी थाल रखी जाती है, तो थोड़ी सी झिझक के बाद सभी महिलाएं एक-दूसरे के गालों पर गुलाल मलते, मस्ती करते बेहद खुश दिखती हैं। हालांकि थोड़ी ही देर में गुलाल को पूरी तरह पोंछने और साफ करने का पल भी आता है, मानो इस परामर्श केंद्र के बाहर जो दुनिया है, वहां के नियम महिलाओं की इस खुशी को मान्यता नहीं देंगे। यहां आपसी चर्चा में कई महिलाएं पूरी बेबाकी से एकदम खरी बातें कहती हैं। जैसे एक महिला कहती है आदमी को तनाव होता है, तो वो शराब पिए, हमें मारे या खुद मर जाए, लेकिन हम महिलाएं ऐसा नहीं कर सकती। हमें तो घर भी देखना है, बच्चे भी पालना है और जो कर्ज उसने लिया, उसे चुकाने के लिए खेती भी करनी है। इसी तरह पुनर्विवाह का सवाल आता है, तो संजीवनी कहती है उसने किया अच्छा किया, उसने हिम्मत दिखाई, लेकिन मैं अभी इस बारे में नहीं सोच सकती। वो सवाल करती है कि क्या दूसरा पति हमारे बच्चों को भी अपनाएगा। एक अन्य महिला कहती है सगे बाप की जगह कोई नहीं ले सकता। इन महिलाओं में शायद ही किसी ने उच्च शिक्षा हासिल की हो, या आधुनिक जीवन शैली को देखा हो, लेकिन इनकी सोच आधुनिक है और महिला अधिकारों को मजबूत करने वाली है। तभी तो एक महिला जिसके पति ने कई साल पहले आत्महत्या कर ली थी, वो दूसरों को सलाह देती है कि रोने से कुछ नहीं होता, केवल आंखों की रौशनी पर असर पड़ता है। जाने वाला चला गया, हम उसके पीछे नहीं मर सकते, हमें तो हिम्मत से दुनिया में रहना है। परामर्श केंद्र में एक महिला अपना अनुभव बताते हुए कहती है कि मैं एक दफ्तर में पानी भरने और सफाई का काम करती थी, लेकिन मैं सैंडल ऐसे खटखट करते चलती थी मानो कोई अफसर हूं। पूरी फिल्म में इस तरह के कई दृश्य हैं, जिन्हें देखकर कहा जा सकता है कि फिल्म घोषित तौर पर किसान आत्महत्या के बाद उनकी विधवाओं के जीवन पर आधारित है, लेकिन असल में यह नारीवाद को भी उतनी ही प्रमुखता से दिखाती है।
फिल्म में कई दृश्य बेहद सुंदर तरीके से कैद किए गए हैं और इनसे कई सवाल भी निकलते हैं। जैसे संजीवनी अपने घरवालों के लिए रोटी बना रही है, उससे बार-बार पूछा जा रहा है कि सिलाई केंद्र क्यों जाना है, वो जवाब नहीं दे रही और चूल्हे से उठता धुआं ऊपर पूरे वातावरण में छा रहा है। जिन किसानों ने आत्महत्या की है, उनकी तस्वीरों को दूर से कैप्चर करना या पार्श्व में दिखाना भी एक सुंदर प्रयोग है। एक दृश्य में प्याज को लॉरी से उतारा जा रहा है और सारी प्याज़ सड़क पर गिराने के बाद खाली हुई जगह में प्याज के छिलकों का हवा में तिरना किसानों के संघर्ष को एक नए किस्म से अभिव्यक्त करता है। एक दृश्य में संजीवनी अपने दोनों बच्चों के साथ बया के घोंसलों को देखती है, चिड़िया अपने घोंसलों में लौट रही हैं और संजीवनी के बच्चे पूछते हैं कि उन्हें कैसे पता कि उनका घर कौन सा है। एक दृश्य में संजीवनी के जेठ नए स्कूल बैग लाते हैं और घर के सभी बच्चे खुश होते हैं कि उनके लिए बैग आए हैं, मगर संजीवनी की बेटी को बैग नहीं मिलता, वो उदास होती है और बहुत पूछने पर संजीवनी के कान में अपनी उदासी का कारण बताती है। ऐसे दृश्य दर्शकों को भी दुखी कर देते हैं। लेकिन फिल्म का अंतिम दृश्य शायद सबसे मार्मिक है। जिसमें मकर संक्रांति पर घर के सभी लोग तैयार होकर मंदिर जाते हैं, लेकिन संजीवनी घर से बाहर नहीं निकल सकती, क्योंकि विधवाओं का इस दिन बाहर निकलना अपशकुन माना जाता है। एक दिन पहले जिस क्लीनिक में संजीवनी सहायिका के तौर पर काम करती है, वहां से भी वह इसी बात पर छुट्टी लेती है। कैमरा पीछे से दिखाता है कि संजीवनी घर का मुख्य द्वार बंद करती है, अपनी सिलाई मशीन पर बैठती है, कई पल तक गहरी सोच में डूबी रहती है फिर उसांस भरकर तेजी से मशीन पर पैर चलाना शुरु करती है। मशीन की खट-खट, खट-खट के साथ फिल्म खत्म हो जाती है।
बेहद नज़ाकत, संवेदनशीलता और समझदारी के साथ गूढ़ और उलझे हुए विषयों को इस फिल्म में चित्रांकित किया गया है, इसके लिए किंशुक सुरजन और उनकी पूरी टीम को साधुवाद।

(कंटेंट एवं फोटो देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार।)

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