अंबेडकर के प्रति नफ़रत का शाही इज़हार

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-देशबन्धु में संपादकीय 

‘आजकल अंबेडकर का नाम लेना एक फ़ैशन हो गया है। अंबेडकर… अंबेडकर… अंबेडकर… अंबेडकर! इतना नाम अगर भगवान का लेते तो सात जन्मों तक स्वर्ग मिल जाता।’

कौन कह सकता है कि ये शब्द अमित शाह के हैं जो देश के गृह मंत्री हैं। यह भी कोई नहीं सोच सकता कि वे उसी संविधान की बदौलत यह पद पाकर देश की सर्वोच्च संस्था में सरकार का दाहिना हाथ बनकर उन्हीं अंबेडकर को कोस रहे हैं जिन्हें संविधान की रचना का मुख्य श्रेय जाता है। फिर, यह भी कल्पना के परे है कि गृह मंत्री उसी संसद में खड़े होकर ऐसा कह रहे हैं जो संविधान के दिशानिर्देशों के अनुसार चलती है; और फ़िर जिस सत्र के दौरान शाह ने यह अप्रिय व अशालीन टिप्पणी की वह उसी ‘संविधान की 75 वर्ष की गौरवशाली यात्रा’ का स्मरण करने के उद्देश्य से आयोजित किया गया था। यह टिप्पणी शाह ने मंगलवार को राज्यसभा में सरकार का पक्ष रखते हुए अपने भाषण के दौरान की। विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खरगे ने हाथ उठाकर उसी वक़्त अपनी आपत्ति प्रकट करने की इजाज़त तो मांगी थी लेकिन सरकार का बचाव करने के लिये कटिबद्ध सभापति व उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने उसे नज़रंदाज़ कर दिया।

amit shah

 

इसे लेकर संसद परिसर में बुधवार को सांसदों का रोष दिखलाई दिया जो कि स्वाभाविक है। श्री खरगे ने कहा कि ‘बेशक उनके लिये और उनके जैसे करोड़ों लोगों के लिये अंबेडकर भगवान की ही तरह हैं।’ उल्लेखनीय है कि श्री खरगे दलित समुदाय से आते हैं। सांसदों ने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए संसद परिसर में एक प्रदर्शन किया जिसमें वे अपने हाथों में अंबेडकर के चित्र लिये हुए थे। उन्होंने शाह से माफ़ी मांगने और इस्तीफ़े की मांग की। दुखद तो यह है कि अपने गृह मंत्री के बयान पर शर्मिंदा होने अथवा उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने की बजाय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उनके बचाव पर उतर आये। उन्होंने कांग्रेस पर शाह का अधूरे बयान उद्धृत कर भ्रम फैलाने का आरोप लगाते हुए कहा कि शाह ने कांग्रेस को देश के पहले कानून मंत्री अंबेडकर के साथ जो किया था, उसके बारे में जानकारी दी है। शाह के पक्ष में भाजपा का आईटी सेल भी उतर आया और उसने सफ़ाई में गृह मंत्री का पूरा वीडियो डाला है। उधर राहुल गांधी ने इस पर यह बयान देकर शाह की घेराबन्दी की है कि ‘जो लोग मनुस्मृति में भरोसा करते हैं उन्हें अंबेडकर से तकलीफ़ तो होगी ही।’ लोकसभा में इस विषय पर चर्चा करते हुए राहुल ने संविधान और मनुस्मृति की प्रतियां दिखलाते हुए कहा था कि ‘असली लड़ाई इन दोनों किताबों के बीच की है।’

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यदि कोई सोचता है कि श्री शाह का यह बयान कोई सामान्य सा उद्धरण है तो उसे अपनी गलतफ़हमी को दूर कर लेना चाहिये। संविधान का गौरव गान करने वाला यह विशेष सत्र सत्तारुढ़ दल भारतीय जनता पार्टी ने कोई स्वरुचि या अंतःप्रेरणा से अथवा वास्तविक श्रद्धा भाव के साथ आयोजित किया हो, तो ऐसा बिलकुल नहीं है। जिस दल के वैचारिक पुरखों ने पहले दिन से ही संविधान को नकार दिया हो उसके मन में यकायक प्रेम उमड़ पड़ना भाजपा की सियासी मजबूरी है। जड़ में तो घृणा ही है। इस साल के लोकसभा चुनाव को लेकर भाजपा और उसका नेशनल डेमोक्रेटिक एलांयस (एनडीए) दोनों इस बात को लेकर निश्चिंत थे कि उन्हें 370 व 400 का आंकड़ा प्राप्त होगा। यानी भाजपा अपने अकेले दम 370 सीटें लायेगी तथा मिल-जुलकर 400 की संख्या पार हो जायेगी। अति उत्साहित कई भाजपा उम्मीदवारों और नेताओं ने पहले ही बता दिया कि ‘मोदी को इस बम्पर जीत की ज़रूरत इसलिये है क्योंकि उन्हें संविधान बदलना है।’ भाजपा-एनडीए को उम्मीद थी कि सामाजिक ध्रुवीकरण के चलते बड़ी जीत हासिल होगी; लेकिन इसे विपक्षी गठबन्धन, खासकर कांग्रेस ने अपना प्रमुख विमर्श बना लिया।

स्थिति पलट गयी। सीटों के एक बड़े नुकसान के साथ भाजपा तेलुगू देसम पार्टी एवं जनता दल यूनाइटेड की बैसाखियों का सहारा लेकर ही सरकार बना सकी। जब माना गया कि यह नारा खिलाफ़ जा रहा है, तो मोदी एवं भाजपा ने सुर बदले और चुनाव के पहले ही कहना शुरू कर दिया कि संविधान बदलने की विपक्ष अफ़वाह फैला रहा है। संविधान बदलने से मुख्य तात्पर्य; और जो भाजपा व उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चाहता रहा है, कि आरक्षण खत्म हो। इस संविधान से उनकी सबसे बड़ी आपत्ति इसी प्रावधान को लेकर रही है। जिस संविधान को संघ के तत्कालीन नेताओं ने यह कहकर अस्वीकार कर दिया था कि ‘इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है’, आज उनके वारिसान खुद को उसके सबसे बड़े संरक्षक दिखलाने की कोशिश कर रहे हैं। भाजपा-संघ की मजबूरी यह है और त्रासदी भी, कि जिन डॉ. अंबेडकर के प्रति नफ़रत का भाव रखते हुए भाजपा-संघ की कई पीढ़ियां बड़ी हुईं, जिनमें वर्तमान शासकों की भी है, उन्हें ही संविधान की स्तुति करनी पड़ रही है और आरक्षण कभी खत्म न होने देने की बात बार-बार दोहराना पड़ रही है।

वास्तविकता तो यही है कि मोदी-शाह जानते हैं कि संविधान, आरक्षण एवं अंबेडकर को नकारते ही भाजपा सत्ता से बाहर हो जायेगी। यह भी सच है कि संघ के 2025 में 100 साल पूरे होने का जश्न मनाने के दौरान वे रंग में भंग नहीं होने देना चाहते। भाजपा इंतज़ार करना पसंद करेगी। वरना हर किसी को याद है कि अंबेडकर की मूर्ति को नये संसद भवन में हटाकर इतने पीछे कर दिया गया है कि कोई देख न सके।

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