
-सुनील कुमार Sunil Kumar
अमरीकी राष्ट्रपति का चुनाव ऐसा अजीब सा होता है कि उम्मीदवार अपने समर्थकों और प्रशंसकों से अंधाधुंध रकम इकट्ठा करते हैं। पारदर्शिता इतनी है कि उसके आंकड़े रोज जनता के सामने आते रहते हैं। दान देने की किसी कंपनी या व्यक्ति के लिए एक सीमा रहती है, लेकिन इस बार के रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनल्ड ट्रंप के लिए दुनिया के सबसे संपन्न कारोबारी एलन मस्क ने जिस तरह अपना खजाना ही खोल दिया था, और सोशल मीडिया पर हर दिन एक-एक मिलियन डॉलर का ईनाम तक रख दिया था, वह खुद अमरीका के पैमानों पर भी एक अभूतपूर्व इतिहास बन गया है। इसके बाद जब ट्रंप राष्ट्रपति बने तो एलन मस्क को उन्होंने सबसे चर्चित जिम्मा दिया, सरकारी कामकाज में किफायत लाने का, और फिजूलखर्ची घटाने का। इस काम के लिए एक समय सीमा तय की गई थी, और मस्क से उम्मीद की जाती थी कि जिस तरह वे अपनी कंपनियों में फिजूलखर्ची घटाते हैं, उसी तरह वे अमरीकी सरकार में भी कटौती करवाएंगे, और बर्बादी रूकवाएंगे। यह मस्क और ट्रंप दोनों का एक पसंदीदा शगल था, और दोनों इसे पूरा करने में जुट गए थे। मस्क सरकार का हिस्सा न होते हुए भी सरकार के लिए एक बड़ी जिम्मेदारी निभा रहे थे, और इतिहास में पहली बार ऐसा कोई व्यक्ति वहां के राष्ट्रपति के मंत्रिमंडल में बैठ रहा था, राष्ट्रपति के दफ्तर में अपने बच्चों सहित मीडिया के सामने मौजूद रहता था।
ऐसे मस्क ने निर्धारित कार्यकाल पूरा होते ही काम छोड़ दिया है, और ट्रंप ने भारी तारीफ के साथ यह कहकर बिदाई दी है कि वे हमेशा ही उनकी सरकार को राय देते रहेंगे। लेकिन न्यूयार्क टाईम्स की एक रिपोर्ट ने विश्लेषण किया है कि इन कुछ महीनों में ही एलन मस्क ने सरकारी खर्च और फिजूलखर्ची घटाने के बड़े-बड़े दावों के बावजूद बहुत मामूली सी बचत के आंकड़े सामने रखे हैं। उन्होंने सौ अरब डॉलर की कटौती की बात कही थी, और अभी आखिर में जाकर इस मिशन ने कुल 15 लाख करोड़ से कम ही बचाने का दावा किया है। इन आंकड़ों पर भी जानकारों का कहना है कि यह बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बताया जा रहा है। कुछ संस्थाओं का यह कहना है कि मस्क के फैसलों से कोई बचत नहीं हो पाई है, सिवाय इसके कि गरीब देशों की मदद करने वाली एजेंसी, यूएस-एड को ट्रम्पस्क ने जिस तरह तबाह किया है, उसमें इसके 80 फीसदी अमरीकी कर्मचारियों को निकाल दिया गया है, और अमरीका के एक प्रोफेसर का अनुमान है कि इन कटौतियों की वजह से दुनिया में 3 लाख लोग मर चुके हैं जिनमें अधिकतर बच्चे हैं। अफ्रीका के बहुत से देश जांच और इलाज के लिए यूएस-एड की मदद निर्भर रहते थे, और उसके रातों-रात बंद कर दिए जाने से उनके पास और कोई भी सहारा नहीं रहा। इस संस्था में काम कर रहे एक अधिकारी ने बताया कि एचआईवी की दवाईयां बंद हो जाने से केन्या में इसके मरीज बढ़ते जा रहे हैं, और भयानक भुखमरी से गुजर रहे सूडान के शरणार्थी शिविरों में लोगों को खाना मिलना न्यूनतम हो गया है। अमरीकी अखबारों का कहना है कि मस्क ने ट्रंप को सहमत कराकर, या उन पर जोर डालकर दुनिया भर की अमरीकी मदद को जिस तरह खत्म करवाया है, उससे अमरीका की अंतरराष्ट्रीय मददगार की साख भी खत्म हुई है, और यह किसी तरह की बचत नहीं है, साख की बर्बादी अधिक है।
ट्रंप और मस्क दोनों ही परले दर्जे के बेरहम कारोबारी हैं, और वे इंसानों को नहीं देखते, महज आंकड़ों को देखते हैं, धंधे में मुनाफे के आंकड़े। और धंधे में जिस तरह नुकसान के आंकड़ों पर तुरंत ही कार्रवाई होती है, इन दोनों ने अमरीकी सरकार की अंतरराष्ट्रीय भूमिका को फिजूलखर्ची बताते हुए उसे पल भर में खत्म कर दिया है, उससे पूरी दुनिया में अमरीका की जो कूटनीतिक पकड़ बनी रहती थी, वह भी कमजोर हुई है, और अमरीका अब जरूरतमंद दुनिया के लिए एक भरोसेमंद साथी नहीं रह गया है। आज हालत यह है कि दक्षिण कोरिया से जो अमरीकी रेडियो उत्तर कोरिया के लोगों के लिए समाचार और कार्यक्रम प्रसारित करता था, ट्रंप उसे भी बंद कर रहा है कि यह फिजूलखर्ची क्यों करना। जबकि उत्तर कोरिया दुनिया में सबसे अलग-थलग और अछूत देश बना हुआ है, और फौजी मामलों में वह अमरीकी हितों का दुश्मन भी है। ऐसे में वहां की जनता को वहां की सरकार के खिलाफ जागरूक बनाए रखने की मामूली खर्च की एक योजना को किफायत के नाम पर बंद करना एक किस्म से फौजी-रणनीतिक बेवकूफी के अलावा कुछ नहीं है।
इन दोनों लोगों ने खुद अमरीकी विश्वविद्यालयों को तबाह करने का जो अभियान छेड़ा है उससे भी आज अमरीका को लंबे समय के लिए नुकसान होने जा रहा है। अमरीका के विश्वविद्यालयों पर ट्रंप जो तानाशाही-शिकंजा कस रहा है, उसके चलते वहां से बहुत से वैज्ञानिक और विद्वान, शोधकर्ता, और प्राध्यापक दुनिया के दूसरे देशों का रूख कर रहे हैं, क्योंकि चार साल में विश्वविद्यालयों की जो तबाही होगी, उसमें लोग काम करना नहीं चाहेंगे। ट्रंप-मस्क की मनमानी से दुनिया के बाकी देशों को प्रतिभाओं को अपनी तरफ खींचने का एक मौका मिला है, और कई देश इस मुहिम में लग गए हैं। जो अमरीका पूरी दुनिया से आने वाले छात्र-छात्राओं का स्वागत करता था, उनमें से सबसे अच्छी प्रतिभाओं को बढ़ावा देता था, और उनके मौलिक काम से अमरीका को अंधाधुंध कमाई भी होती थी, उस सिलसिले को ट्रंप ने तबाह कर दिया है। ट्रंप और मस्क ने दुनिया के अपने सभी दूतावासों से कह दिया है कि वे छात्र-वीजा के काम को रोक ही दें, क्योंकि अमरीकी सरकार यह चाहती है कि किस तरह के लोग वहां पढऩे आएं, इसकी बारीकी से जांच-पड़ताल कर ली जाए, ताकि मौजूदा सरकार की राजनीतिक विचारधारा से परे के लोग वहां न आ जाएं। एक तरफ विश्वविद्यालयों की बजट की कटौती, उनकी नीतियों को कुचलना, दूसरी तरफ दुनिया भर के छात्रों को आने में अड़ंगे लगाना, इन दोनों-तीनों बातों को मिलाने से जो नौबत वहां बन रही है, वह अमरीकी भविष्य में प्रतिभाओं के अकाल की नौबत बताती है, और दुनिया के दूसरे विकसित देश इस नौबत से फायदा उठाने वाले हैं, उठाना शुरू कर दिया है, यह फासला अमरीका को गहरे गड्ढे की तरफ ले जा सकता है।
इस मुद्दे पर लिखने की जरूरत आज हमको इसलिए लगी कि ट्रंप और मस्क, ये दो सनकी जिस तरह से वहां की सरकार को चला रहे हैं, वह कुछ उसी किस्म का है कि एक किसी बैलगाड़ी में दो सांडों को जोत दिया जाए। बैलगाड़ी में आमतौर पर बैलों को जोता जाता है, जो कि आक्रामकता नहीं रखते हैं। दूसरी तरफ बेकाबू सांड किसी तरह के नियम-कायदे में नहीं रहते, और उन्हें बैलगाड़ी में जोतने का मतलब गाड़ी को पलटना रहता है। ट्रंप और मस्क की जोड़ी ने अमरीका की सरकार, उसकी लोकतांत्रिक संस्थाओं, उसके कारोबार, दूसरे देशों के साथ उसके रिश्ते, उसके अंतरराष्ट्रीय सामाजिक सरोकार, इन सबको इस हद तक तबाह कर दिया है कि ट्रंप के बचे हुए पौने चार साल के कार्यकाल में भी हालात नहीं सुधर सकेंगे। एक तानाशाह को जब दूसरे तानाशाह की जोड़ी मिल जाती है, तो तबाही की यह नौबत आती है। दुनिया के बाकी देशों को, बाकी कारोबार, या संस्थाओं को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसके दो सबसे बड़े मुखिया एक ही किस्म की तबाही लाने वाले न निकल जाएं, वरना उन्हें दुनिया भर के तमाम ईश्वर मिलकर भी नहीं बचा सकते।
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)