कानून के राज में दंगाई भीड़ के फैसले

-संजीव शुक्ल Sanjeev Shukla
जब सत्ताएं ही दंगों की पृष्ठभूमि रचें और अधिसंख्य उसी जकड़न के शिकार हों तब निश्चिंतता हर पल खतरे में रहती है। दंगाई चाहे जिस समुदाय का हो उसके साथ बर्ताव एक जैसा होना चाहिए। बंगाल में दंगाईयों के साथ सख़्ती के साथ पेश आना चाहिए। ममता की महत्वाकांक्षा और अवसरवादिता ने सांप्रदायिकता के खिलाफ साझे मुकाबले की जमीन को कमजोर किया है। सत्तावादी नजरिए ने उन्हें सीमित किया है। अन्यथा ऐसी स्थितियां न आती।

सांप्रदायिक घटनाएं उन परिस्थितियों की उपज हैं, जिनमें हिंदुओं को मुस्लिम विरोधी और मुस्लिमों को हिंदू विरोधी मान लिया गया है। यह जहर फैलता ही जा रहा है।

अब तो राजनीति का हर पैंतरा बिना हिंदू-मुस्लिम किए पूरा ही नहीं होता। हर बयान समाज में जहर घोलने वाला और मजहबी कट्टरता को बढ़ाने वाला होता।

अभी सरकार की तरफ से ताजा बयान कि कांग्रेस अगर मुस्लिमों की हितैषी है तो उसका अध्यक्ष मुस्लिम क्यों नहीं? कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप भी और उसको मुस्लिम अध्यक्ष बनाने की समझाइश भी। अरे वहां तो वैसे भी बहुत मुस्लिम अध्यक्ष रह चुके हैं, आप खुद क्यों नहीं बनाते किसी मुस्लिम को अपनी पार्टी का अध्यक्ष? वक्फ़ के नाम पर मुस्लिमों का भला करने की दिली इच्छा उनको पार्टी में उचित जगह देने से परहेज क्यों करती है? इस तरह के बेमानी बयानों ने समाज में तंगदिली भर दी है।

मुर्शिदाबाद की घटनाएं शर्मनाक हैं। इन दंगाइयों पर सख़्ती क्यों नहीं बरती गई। आख़िर इनको इतनी छूट कैसे मिल जाती है कि लोग मरे और पलायन को बाध्य हों। जिनको जेल के अंदर होना चाहिए वो सड़कों पर क्यों हैं?

ममता जिस तरह राजनीतिक विरोधियों पर दहाड़ती हैं, वैसे ही इन दंगाइयों से पेश क्यों नहीं आती? यह राज्य का फेल्योर है। सरकारें तमाशाबीन क्यों बनती हैं! ये सरकारें क्या इतनी पंगु हैं कि अपने नागरिकों को उचित सरंक्षण तक नहीं दे सकतीं? केंद्र सरकार क्यों नहीं राज्य सरकार को बर्खास्त करने की दिशा में आगे बढ़ती है?

मुर्शिदाबाद में वक्फ़ के मामले को लेकर हिंदुओं पर हमले को होते देना, उसे मजबूती से रोकना नहीं, कहीं बाकी के राज्यों में इसे ध्रुवीकरण के लिए अवसर के रूप में देखना तो नहीं है। कहीं ये आपदा में अवसर तलाशने की दृष्टि तो नहीं? और वैसे भी हत्याओं से कहां किसको फर्क पड़ता है, मणिपुर तो लगभग दो साल से जल रहा है।

मुस्लिम बहुल इलाकों और हिंदू बहुल इलाकों में बहुसंख्यकों को ये सब करने की छूट क्यों मिल जाती है? लोकतंत्र में अल्पसंख्या वाले समुदायों को बहुसंख्यकों की कृपा पर नहीं छोड़ा जा सकता। लोकतंत्र बहुमत की तानाशाही का नाम नहीं है।

अभी उत्तर प्रदेश में भी नंगी तलवारें लेकर ललकारने का जुटान हुआ था और नेतृत्व के स्तर पर चिंता की लकीरें फिर भी नहीं। आखिर इस अराजकता को रोका क्यों नहीं जाता? क्या हम वोट बैंक के लिए समाज को उत्पातियों के हवाले कर देंगे?

कानून के राज में भीड़ द्वारा फैसले करवाए जाने की नीति के गंभीर परिणाम होंगे।

(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)

 

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