
-अरुण कुमार त्रिपाठी Arun Tripathi
पिछले दिनों जब अमेरिका के नेशनल कैथेडरल में नए (और पुराने भी) राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप प्रार्थना करने गए तो वहां की बिशप मैरियन एडगर बडी ने उन्हें नसीहत दे डाली। एडगर बडी ने कहा कि प्रवासी और समलैंगिक डरे हुए हैं। उन्हें सुरक्षा दीजिए। उनकी इस बात को भारत के तमाम बौद्धिकों ने घने बादलों के बीच बिजली की कौंध की तरह देखा। उनका कहना था कि यह हुई न अमेरिका की ताकत। ऐसा अमेरिका में ही हो सकता है। आखिरकार देश को तानाशाही की ओर ले जाए रहे राष्ट्रपति को एक बिशप ने सुना दिया। हमारे यहां है किसी की हिम्मत जो वैसा कर सके। हालांकि डोनाल्ड ट्रंप ने शाम को जो कार्यक्रम हुआ उसी में पलट कर उस बिशप को नीच, बोरिंग और प्रेरणारहित बताया। यानी जिस बात से ट्रंप जैसे चिकने घड़े पर कोई फर्क नहीं पड़ा उससे हमारे देश के बौद्धिक उत्साहित थे। वे यह भूल रहे थे कि अमेरिकी जनता ने नस्लवादी और पुरुषवादी भावनाओं का प्रदर्शन करते हुए जिस तरह से डोनाल्ड ट्रंप को एक बार हराकर दोबारा राष्ट्रपति बनाया है उस वातारवरण में ऐसी घटना तपते रेगिस्तान में ओस की एक बूंद को झील की मरीचिका देखने जैसा ही है।
शायद हमारे देश के बौद्धिकों का इशारा अमेरिका से कहीं अधिक अपने देश के धर्मगुरुओं की ओर था। वे कहना चाह रहे थे कि जहां तकरीबन सवा सौ साल बाद होने वाले महाकुंभ में बहुत सारे धर्मगुरु पधारे हैं लेकिन वे वैसा बोलने का साहस नहीं कर पा रहे हैं। हालांकि ऐसा मानने में भी त्रुटि है। क्योंकि महाकुंभ में भी अविमुक्तेश्वरानंद और दूसरे तमाम लोग अपने शिविरों में सत्ता पर सवाल उठाने वाली और एकतरफा धार्मिक आख्यान से अलग गंभीर और समझदारी वाले धार्मिक विमर्श कर रहे हैं। लेकिन मीडिया के पास न तो उन्हें देखने की आंखें हैं और न ही दिखाने का साहस है।
वास्तव में हमारी लोकतांत्रिक निराशा इतनी गहरी हो गई है कि हम दूर राजमहल के कंगूरे पर जलते हुए दीए के ताप से ही जाड़े की सारी रात तालाब में खड़े होकर बिता सकते हैं। वास्तव में अमेरिका से लेकर भारत तक लोकतंत्र के समक्ष इतनी बड़ी चुनौती खड़ी हो चुकी है कि अब यह सोच कर बैठे रहने से काम नहीं चलेगा कि अमेरिका को उसका संविधान बचा लेगा और भारत को उसकी आजादी के आंदोलन की लंबी विरासत और बार बार संविधान की प्रति लहराने की अदा। भारत के बौद्धिक अक्सर कहते सुने जाते हैं कि अमेरिका का संविधान इतना प्रबल है कि वह किसी को तानाशाह बनने नहीं देगा। उसी तरह से भारत में भी लोग निश्चिंत थे कि हमारे पुरखों ने एक बेहतरीन संविधान बनाया है और वह लोकतांत्रिक मूल्यों की एक सीमा से ज्यादा अवहेलना होने नहीं देगा।
आधुनिक तानाशाह तख्तापलट के साथ सत्ता में नहीं आते यह बात विगत दस सालों से कई राजनीतिशास्त्री कह रहे हैं। वे नागरिकता के कानूनों में बदलाव करते हैं। वे तमाम ऐसे लोगों को मताधिकार से वंचित कर देते हैं जो उनके अनुकूल नहीं होते। वे नागरिक अधिकारों का हनन करते हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाते हैं। डोनाल्ड ट्रंप वैसा ही कर रहे हैं। उन्होंने शपथ लेने और पदग्रहण करने के बाद जो शुरुआती आदेश जारी किए वे संविधान के ही विरुद्ध हैं। उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है उस देश में हुए जन्म के आधार पर मिलने वाली नागरिकता। अमेरिकी संविधान का 14 वां संशोधन यह प्रावधान करता है कि जो कोई भी व्यक्ति अमेरिकी धरती पर पैदा हुआ है वह वहां का स्वाभाविक नागरिक होगा। इसे बर्थराइट सिटीजनशिप (जन्मना नागरिकता) कहते हैं और इस कानून का जन्म अमेरिकी गृहयुद्ध की राख से हुआ था। इस कानून के प्रभाव से अफ्रीकी मूल के उन लाखों लोगों को नागरिकता मिल गई थी जिन्हें कभी दास बनाकर लाया गया था और जिन्हें गोरे लोग मनुष्य समझते ही नहीं थे। वास्तव में यह अमेरिकी गृहयुद्ध का प्रमुख मुद्दा था कि दासता से मुक्ति दी जाए या नहीं। उत्तर के राज्य चाहते थे कि दासता खत्म हो जबकि दक्षिण के राज्य इसके सख्त विरोध में थे। बल्कि दक्षिण के राज्य इतने विरोध में थे कि उन्होंने अमेरिकी संघ से अलग होकर एक महासंघ गठित कर लिया था। रिपब्लिकन पार्टी के नेता और अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन इसीलिए महान कहे जाते हैं क्योंकि उन्होंने न सिर्फ दासता खत्म की बल्कि अमेरिका को एकजुट भी किया। भले ही इसके लिए उनकी हत्या कर दी गई।
लोकतांत्रिक मूल्यों का समर्थक और गृहयुद्ध और दासता से मुक्ति की विरासत से अपने को जोड़ने वाला अमेरिका का हर व्यक्ति कह रहा है कि ट्रंप का यह आदेश टिक नहीं पाएगा। उसे अदालतें खारिज कर देंगी। क्योंकि यह संविधान विरुद्ध है। लेकिन ट्रंप और उनके समर्थकों ने संविधान की नई व्याख्या गढ़ ली है। वे कह रहे हैं कि जो लोग अमेरिका के नागरिक नहीं हैं और अवैध हैं वे अमेरिकी क्षेत्राधिकार में नहीं आते इसलिए उन्हें इस 14 वें संशोधन का लाभ नहीं मिलेगा। जबकि पिछले सौ सालों से इस कानून की यही व्याख्या हो रही थी कि अगर अस्थायी रूप से अमेरिका आया हुआ कोई भी दंपत्ति यहां बच्चे को जन्म देता है तो वह बच्चा अमेरिकन नागरिक होगा। ट्रंप के उस आदेश के विरुद्ध तकरीबन 22 राज्य अदालत गए हैं और सिएटल की अदालत ने तो स्टे दे भी दिया है।एक तरह से इस मुद्दे पर अमेरिका विभाजित लग रहा है। लेकिन क्या इतने से संतुष्ट हुआ जा सकता है?
वास्तव में ट्रंप और उनके जैसे तानाशाह नेताओं का खतरा बड़ा है जो लोकतांत्रिक संविधान को उलट देने, परंपराओं को कमजोर बताने और संस्थाओं के मूल्यों और विरासत को छिन्न भिन्न करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। अब यह कह कर संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि देखो अमेरिका में तो राष्ट्रपति अधिकतम दो ही बार के लिए चुने जाते हैं। चलो चार साल और काट लेंगे लोग। अमेरिका में राष्ट्रपति का दो ही कार्यकाल निर्धारित रखने का कानून तो तब बना जब फ्रैंकलिन रूजवेल्ट चार बार राष्ट्रपति बने। उसके पहले बिना कानून के ही अमेरिकी राजनेता जार्ज वाशिंगटन की परंपरा का पालन करते हुए महज दो ही कार्यकाल स्वीकार करते थे। अगर अमेरिकी स्वर्ण युग का निर्माण करने के लिए डोनाल्ड ट्रंप उस कानून को भी बदलने की कोशिश करें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वैसे जैसे भारत में अमृतकाल में कुछ भी किया जा सकता है।
सवाल यह भी है कि क्या हम तानाशाही को चुनौती देने के लिए धर्मगुरुओं और धार्मिक संस्थाओं से आशा कर सकते हैं? वे धर्मगुरु जिनकी सत्ता को अपदस्थ करके ही युरोप में सेक्यूलरिज्म और डेमोक्रेसी का जन्म हुआ है। लातिन अमेरिका में लिबरेशन थियोलाजी नाम से एक शास्त्र विकसित हुआ है जिसके तहत दक्षिण अमेरिका की तानाशाहियों के विरुद्ध ईसाई मिशनरियों ने संघर्ष चलाया है। कई देशों में सफलता भी मिली है। लेकिन संसार के सारे धर्मों का उद्गम क्षेत्र कहे जाने वाले एशिया और विशेषकर दक्षिण एशिया में धर्म की ऐसी भूमिका निकट अतीत में देखने को नहीं मिलती और न ही निकट भविष्य में ऐसा लग रहा है। फिलस्तीन से लेकर म्यांमार तक यह तो दिखाई पड़ता है कि धर्म बाहरी अधिपत्य के विरुद्ध जेहाद और छापामार युद्ध में मददगार साबित हुआ है। पर धार्मिक केंद्रों से संचालित होने वाले या धर्मगुरुओं के नेतृत्व में होने वाले संघर्षों ने लोकतंत्र कायम किया है वैसा तो नहीं दिखता। ईरान, अफगानिस्तान से लेकर म्यांमार तक इसके उदाहरण हम देख सकते हैं। अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले बौद्ध धर्म ने म्यांमार और श्रीलंका में क्या किया इसके नतीजे हम सभी के सामने हैं।
संभव है कभी धर्म मानव समाज के बड़े समुदाय को एक दूसरे से जोड़ने में काम आता रहा हो लेकिन आज वह विभाजनकारी भूमिका ग्रहण कर चुका है। युरोप जहां उसकी सत्ता सीमित हो चुकी है वहां उसकी करुणा और बंधुता का प्रयोग साम्यवादी सत्ताओं को अपदस्थ करने के लिए किया गया। अब जब पूंजीवादी सत्ताएं दमन की ओर बढ़ रही हैं तब महज एक बिशप के विरोध से क्या फर्क पड़ने वाला है। हमारे समय में लोकतंत्र का संकट इतना गहरा इसलिए हुआ है कि हमने संगठित राजनीति पर अधिक ही भरोसा कर लिया। जब संगठित राजनीति खोखली हो चली तो उसने संगठित धर्म का सहारा लिया। इन दोनों संगठनों की विकृतियों ने मिलकर राज्य पर सत्ता लोलुप और चरित्रहीन लोगों का अधिपत्य कायम कर दिया। लोकतंत्र में नवीनता अगर कायम रखनी है और उसकी विकृतियों को दूर करना है तो हमें प्रौद्योगिकी और पूंजी के बजाय पार्टी और धर्म के संगठित ढांचे के बजाय विज्ञान और अध्यात्म का सहारा लेना होगा। उसी से अच्छे मनुष्यों का निर्माण होगा और वे ही एक कुशल भिषक की तरह लोकतंत्र को मरने से बचाएंगे।
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)