धर्म और गर्व से भरा होना न बेहतर बनाता, न खुश..

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प्रतीकात्मक फोटो

-सुनील कुमार Sunil Kumar

दो अलग-अलग खबरें दुनिया के देशों, और उनके शहरों को लेकर आई हैं। एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय अमरीकी विश्वविद्यालय द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट में दुनिया के सबसे अच्छे देशों पर सालाना रिपोर्ट आई है, जिसमें स्विटजरलैंड लगातार 7वें साल सबसे ऊपर रहा है। अमरीका पिछले बरस से दो सीढ़ी ऊपर चढ़ा है, और जापान चार सीढ़ी। भारत पिछले बरस 30वें नंबर पर था, और इस बार तीन सीढ़ी फिसलकर वह 33वें नंबर पर आ गया है। इस रिपोर्ट में जीवन की गुणवत्ता, देश की आर्थिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक सफलता जैसे कई पैमाने शामिल किए जाते हैं। भारत के आसपास के लगे हुए देश भारत के मुकाबले बहुत नीचे हैं, लेकिन साल भर में भारत तीन सीढ़ी नीचे खिसक गया है। आज की ही एक दूसरी खबर इस बात को लेकर है कि किस तरह दुनिया के कई देश खराब ट्रैफिक से जूझ रहे हैं, और इनमें योरप के बहुत से शहर हैं। ट्रैफिक की खराब हालत में ब्रिटेन की राजधानी लंदन सबसे खराब जगह मानी गई है। दूसरे नंबर पर आयरलैंड का डबलिन है, और वहां पर यह अंदाज है कि ट्रैफिक जाम की वजह से इतना बड़ा नुकसान हो रहा है कि वह 2040 तक बढक़र 14 हजार करोड़ रूपए सालाना से अधिक हो जाएगा।

हम केवल देशों और शहरों की इन दो रिपोर्ट को देखकर सोच रहे हैं कि क्या हिन्दुस्तान में ऐसी बातों पर कोई फिक्र करते हैं? इस देश में कोई भी त्यौहार सडक़ों पर ऐसी भयानक अराजकता लेकर आता है कि ऊपर लिखी गई दूसरी खबर जैसा ट्रैफिक जाम जानलेवा होने लगता है, और चारों तरफ डीजल और पेट्रोल के धुएं के बीच लोग घंटों फंसे रहते हैं। हर त्यौहार लोगों के लिए तकलीफ लेकर आता है, और और तो और, विघ्नहर्ता के त्यौहार में भी सडक़ों पर चारों तरफ विघ्न ही विघ्न दिखने लगते हैं। हिन्दुस्तान में लोगों को बेकार मान लिया जाता है, इसलिए हर तरह के सामान, और काम के लिए उन्हें कतारों में झोंक दिया जाता है। गैस एजेंसी का ताला नहीं खुलता, उसके पहले दर्जनों लोग एक-एक शटर के सामने सिलेंडर लिए खड़े रहते हैं, मानो उन्हें और कोई काम ही न हो। एक-एक सरकारी दफ्तर में लोगों के दर्जनों चक्कर लगते हैं, और उसके बाद वे थक-हारकर मुंह मांगी रिश्वत देने तैयार होते हैं, तब जाकर उनकी जरूरत का जायज कागज उनके हाथ लगता है। इस तरह की सैकड़ों दिक्कतें हिन्दुस्तान में है जिनकी वजह से दुनिया की पांच सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने के बावजूद हिन्दुस्तान अच्छे देशों की लिस्ट में 30 से 33वें नंबर पर आ गया, साल भर में ही। इन बरसों में जिस तरह रेलगाडिय़ां रद्द हुई हैं, आम लोगों के डिब्बे एकदम से घटा दिए गए हैं, और महंगे एसी डिब्बे बढ़ा दिए गए हैं, और कस्बों में ट्रेनों का रूकना बंद करवा दिया गया है, उसका भी असर होगा कि एक तरफ देश अच्छे देशों की लिस्ट में नीचे गिर रहा है, और शहरी सडक़ों पर ट्रैफिक जाम हो रहा है। एक तरफ तो दुनिया के देश सार्वजनिक परिवहन बढ़ाकर, रियायती बनाकर, और कई जगहों पर तो उसे मुफ्त बनाकर भी शहरी प्रदूषण और ट्रैफिक जाम को घटा रहे हैं, वैसे में हिन्दुस्तानी शहर एक किस्म से अपना काबू खो बैठे हैं।

शहर के इंतजाम में सडक़ की पूरी चौड़ाई मौजूद न रहने पर ट्रैफिक जाम होना ही होना है, और हम देखते हैं कि अधिकतर शहरों में वोटरों से डरे-सहमे नेताओं के मातहत काम करते अफसर सडक़ किनारे बड़े कारोबारियों के बिखरे हुए सामान हटाने का हौसला भी नहीं जुटा पाते, नतीजा यह होता है कि वहां ट्रैफिक जाम स्थाई संपत्ति की तरह जमे रहता है। आज देश के अधिकतर शहरों को सार्वजनिक परिवहन की परवाह नहीं दिखती है क्योंकि उसे कुछ या अधिक हद तक रियायती बनाना पड़ता है, और अगर सार्वजनिक परिवहन कामयाब हो जाए तो ऑटोमोबाइल कारोबार मार खाएगा, और सरकार को टैक्स कम मिलेगा। लेकिन सरकारों को इतना सोचने की फिक्र नहीं है कि ट्रैफिक जाम में घंटों फंसने वाले लोगों की कितनी उत्पादकता मार खाती है, उनकी सेहत कितनी बर्बाद होती है। कुछ लोगों का सोशल मीडिया पर यह भी कहना है कि भारतीय शहरों में अगर आप दस-बीस मिनट कोई गाड़ी या दुपहिया चलाएं, और आपके मुंह या मन में गंदी गाली न आए, तो आप अपने आपको छोटा-मोटा संत तो मान ही सकते हैं। किसी शहर के सभ्य होने की पहली निशानी हम यह मानते हैं कि वहां का ट्रैफिक कितने नियम-कायदे का है। ट्रैफिक के नियम सबसे सरल रहते हैं, और उन्हें मानना लोगों के लिए कोई चुनौती नहीं रहती है। इसके बावजूद अगर कोई शहर ट्रैफिक ठीक नहीं रख पाता, तो यह उसकी बहुत बड़ी नाकामयाबी रहती है, और वहां के लोगों के असभ्य रहने का एक मजबूत सुबूत भी रहता है।

दुनिया के देश कुदरत की दी हुई खूबसूरती से परे वहां के लोगों की कारोबारी कामयाबी से भी दुनिया के सबसे अच्छे देशों की फेहरिस्त में आते हैं। और यह कारोबारी कामयाबी बहुत भ्रष्ट, असभ्य, अलोकतांत्रिक, अराजक सरकार और समाज के चलते हुए नहीं मिल सकती। गिने-चुने कुछ हजार उद्योगों की कमाई को देश की राष्ट्रीय कमाई दिखाकर एक गलत तस्वीर जरूर बनाई जा सकती है, लेकिन उससे समाज खुशहाल भी नहीं रहता। इन्हीं दो रिपोर्ट की चर्चा करते हुए हमें याद पड़ता है कि कुछ महीने पहले वल्र्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट आई थी जिसमें भारत को 143 देशों में से 126वां देश पाया गया था। अब जिस हिन्दुस्तान में धर्म का इतना बोलबाला है, जहां पर ऋषि मुनियों के वक्त से अब तक आध्यात्म का माहौल बताया जाता है, जिस देश को अपने इतिहास और उससे भी पहले के वक्त पर इतना गर्व है, जो अपने धर्म को दुनिया का सबसे अच्छा धर्म बताता है, वहां के लोग खुश क्यों नहीं हैं?

कहने के लिए तो यह कहना बड़ा आसान हो सकता है कि पश्चिमी पैमानों पर इन रिपोर्ट को बनाकर भारत को नीचा दिखाने की एक साजिश है, लेकिन भारत की अपनी हकीकत यही है कि शहरी अराजकता से लेकर पिछड़े हुए गांवों तक, और दहशत में जीते हुए बहुत से तबकों तक से पूछा जाए, तो इतना सारा धर्म, इतना सारा राष्ट्रवाद मिलकर भी लोगों को खुश नहीं रख पा रहे हैं। पश्चिमी सर्वे और अध्ययन से परे भी सच यही है कि जिम्मेदार और समझदार भारतीय यह देखकर हैरान हैं कि लगातार चलता इतना सारा तनाव आखिर कहां जाकर थमेगा? आखिर में तनाव थमेगा, या देश की तरक्की थम जाएगी? लोगों को अपने भीतर ऐसे सवालों के जवाब ढूंढने चाहिए कि सतह पर तैरते उन्मादतले कितनी संभावनाएं खत्म हो रही हैं। वैसे इतना आत्ममंथन करने के बजाय पश्चिमी देशों की ऐसी रिपोर्ट खारिज करना अधिक सहूलियत की बात होगी।

(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)

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