नया साल, कई सवाल

whatsapp image 2025 01 01 at 09.49.24
नए वर्ष की भोर। फोटो अखिलेश कुमार

-देशबन्धु में संपादकीय 

 

पुराने साल की ठिठुरी हुई परछाइयां सिमटीं
नये दिन का नया सूरज उफ़ुक पर उठता आता है।
•अली सरदार ज़ाफ़री

तेजी से बदलती दुनिया में बहुत सी परंपराएं, मान्यताएं, रिवाज़, उत्सव मनाने के तरीके भी बदलते जा रहे हैं। हालांकि नये साल के आगमन और स्वागत का जोश वैसा ही बरकरार है, बल्कि अब उसमें कुछ और इज़ाफ़ा हो गया है। पहले दीवारों पर लगे कैलेंडरों के बदलने और नये साल के आने पर काफ़ी दार्शनिक किस्म की बातें होती थीं, अब भी होती हैं, लेकिन अब दीवारों से कैलेंडर गायब होते जा रहे हैं। मोबाइल और स्मार्ट वॉच ने कैलेंडरों की उपयोगिता सीमित कर दी है। वैसे कैलेंडर तो साल में एक बार बदला जाता है, मोबाइल और स्मार्ट वॉच बदलने के लिए साल का इंतज़ार नहीं करना पड़ता। उनका नया संस्करण जब आ जाए और जेब जब इजाज़त दे दे, शौकीन लोग इन्हें भी कपड़ों की तरह बदल लेते हैं। उपभोक्तावाद बिन बुलाए मेहमान की तरह जिंदगी के हर पहलू में अपनी दखलंदाजी कर चुका है। नये साल के जश्न में भी इसी उपभोक्तावाद के दर्शन होते हैं। जिसकी जेब जितनी भारी होती है, उतनी ख़ातिरदारी वह नए साल की करता है।

अब विचारणीय पहलू यह है कि आख़िर हर साल के आखिरी दिन रात 12 बजने के 10 सेंकड पहले दीवानों की तरह दस, नौ, आठ, सात की उल्टी गिनती पढ़कर घड़ी की दोनों सुइयों को एक जगह टिका देखते हुए या मोबाइल पर शून्य, शून्य, शून्य, शून्य देखकर जो हैप्पी न्यू ईयर का नाद किया जाता है, उसके ठीक अगले ही पल से हमारी ज़िंदगी में क्या बदलाव आ जाता है। समय अपनी चाल से चलता है, 12 बजकर एक मिनट होते हैं, लोग एक-दूसरे को बधाइयां देते हैं कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी का एक साल और देख लिया। इसके बाद कुछ लोग रात भर जश्न मनाते हैं और नये साल की दोपहर को उनकी सुबह होती है। कुछ लोग अपने-अपने ईश्वर को याद करके आभार व्यक्त करते हैं। व्हॉट्सएप के इस दौर में नये साल पर शुभकामना संदेशों का आदान-प्रदान थोक में होता है। नये साल के लिए नयी प्रतिज्ञाएं, नए सिरे से बहुत से लोग लेते हैं, ताकि उनकी ज़िंदगी में बेहतर बदलाव आ सके।

दरअसल नए साल की सार्थकता इसी में है कि हम जहां थे, वहां से कुछ आगे बढ़ सकें। जैसा कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने लिखा था –

कुछ लिख कर सो, कुछ पढ़ कर सो,
तू जिस जगह जागा, उस जगह से बढ़कर सो।

लेकिन अभी हम दुनिया पर निगाह दौड़ाएं या देश को ही देख लें, तो लगता है कि आगे बढ़ने की तमन्ना होने के बावजूद पैर पीछे की तरफ ही सरक रहे हैं। रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध थमा नहीं है, इजरायल फिलीस्तीन में जो नरसंहार कर रहा है, उसे रोकने की कोई कोशिश नहीं हो रही। अमेरिका की सत्ता में चेहरे बदल गए, लेकिन नीतियां वही हैं। पूरी दुनिया में कट्टरपंथ, नफ़रत, लालच के लिए अधिक जगह बनती जा रही है। नैतिक मूल्यों और विचारों के लिए जगह कम हो गई है। भारत भी इनमें अछूता नहीं है।

गुजरे साल कई नामी-गिरामी हस्तियों ने दुनिया से विदा ली। उद्योगपति रतन टाटा, तबला वादक उस्ताद ज़ाकिर हुसैन, निर्देशक श्याम बेनेगल, मलयाली लेखक एमटी वासुदेवन और हाल ही में पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह का निधन 2024 में हुआ। संस्कार कहते हैं कि मौत पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। लेकिन बीते साल के आखिरी दिनों में भारत ने यह भी मुमकिन होते हुए देख लिया। डाॅ. सिंह की अंत्येष्टि से लेकर उनके अस्थि विसर्जन तक आरोप-प्रत्यारोप का खेल चला। भाजपा सरकार ने ससम्मान डाॅ. सिंह का अंतिम संस्कार नहीं होने दिया, ऐसे आरोप लगे तो बदले में भाजपा ने कांग्रेस पर सवाल उठाये कि उसका कोई बड़ा नेता अस्थि विसर्जन में शामिल क्यों नहीं हुआ।

नये साल पर क्या राजनीति के इस ओछेपन से देश को मुक्ति मिल पायेगी। सवाल यह भी है कि क्या नये साल में युवाओं के लिए नयी उम्मीदें बाकी रहेंगी या अब उम्मीद पालने, सपने देखने को भी जीएसटी के दायरे में लाया जायेगा। क्या महंगाई से लोगों को राहत मिलेगी, क्या किसानों को सरकार इस नये साल में एमएसपी देगी। महिलाएं, दलित, आदिवासी, मजदूर, गरीब क्या इन वर्गों के लिए घोषणापत्रों के अलावा भी सम्मान की जगह बन पाएगी। देश को कितने ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाना है, क्या इसका आकलन वास्तविक स्थिति और रुपये की कीमत के आधार पर किया जाएगा या मनमाने दावे किए जाते रहेंगे। देश की संवैधानिक संस्थाओं, न्यायपालिका की साख और उसके लिए निर्णयों की कद्र क्या नए साल में होगी या पहले की तरह बुलडोज़र, कुदालों और फावड़ों का इंसाफ़ चलेगा। ढहाने और खोदने की राजनीति में हम गड्ढों में धर्म को तलाश रहे हैं या धर्म को गड्ढे में धकेल रहे हैं, क्या इस पर कोई विमर्श नये साल में होगा।

एक आखिरी सवाल 2014 से 2024 तक दस साल में जो अच्छे दिन नहीं आ पाये, क्या 2025 के 365 दिनों में कभी कोई दिन अच्छे दिनों वाला दिखेगा। बहरहाल, उम्मीद पर दुनिया कायम है और इसी उम्मीद पर नया साल भी टिका है।

देखिए पाते हैं उश्शाक बुतों से क्या फ़ैज़।
इक बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है।।
•मिर्ज़ा ग़ालिब

Advertisement
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments