महाराष्ट्र में लोकतंत्र का मजाक

-देशबन्धु में संपादकीय 

 

महाराष्ट्र चुनावों के नतीजों में बड़ी गड़बड़ी की आशंकाओं और सवालों के बीच 3 दिसम्बर को चुनाव आयोग के सामने एक सुनहरा मौका आया था कि वह अपनी साख को सुधार ले। यह मौका दिया था कि मालशिरस विधानसभा क्षेत्र के मरकरवाड़ी गांव के लोगों ने। लेकिन चुनाव आयोग ने यह अवसर अपने हाथ से गंवा दिया। दरअसल मालशिरस विधानसभा क्षेत्र से शरद पवार की एनसीपी के उम्मीदवार उत्तम जानकर को जीत हासिल हुई है, उन्होंने भाजपा के राम सातपुते को 13,147 वोटों से हराया है, लेकिन मरकरवाड़ी गांव में राम सातपुते को उत्तम जानकर से अधिक वोट मिले। श्री जानकर को 843 और श्री सातपुते को 1003 वोट मिले, जबकि यहां के लोगों को दावा था कि राम सातपुते को सौ, दो सौ वोटों से अधिक नहीं मिल सकते, इसमें ईवीएम की गड़बड़ है। अपने संदेह को दूर करने के लिए ग्रामीणों ने ऐलान किया कि हम अपने खर्च और व्यवस्था से मतपत्रों से फिर से चुनाव कराएंगे, इसके लिए उन्होंने मालशिरस के तहसीलदार को अनुमति के लिए आवेदन दिया था। लेकिन अनुमति देने की जगह प्रशासन ने यहां न केवल वोट डालने वालों पर कार्रवाई करने की चेतावनी दी, बल्कि धारा 163 के तहत निषेधाज्ञा लागू कर दी ताकि एक साथ पांच लोग इकट्ठा न हो पाएं। कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए पांच दिसंबर तक निषेधाज्ञा लागू करने का ऐलान किया गया है। पुलिस की सख्ती और नागरिकों के मतदान की मांग के कारण अराजकता उत्पन्न न हो इस वजह से फिलहाल ग्रामीण अपनी मांग से पीछे हट गए हैं, हालांकि इस मुद्दे को आगे चुनाव आयोग और न्यायपालिका तक ले जाने का उनका फ़ैसला अटल है, क्योंकि सवाल लोकतंत्र की रक्षा का है।

मालशिरस के एक गांव में अगर फिर से मतदान होता, तो जाहिर है उसका कोई कानूनी आधार नहीं होता, न ही उन नतीजों से महाराष्ट्र के नतीजे प्रभावित होते, लेकिन जिस तरह पूरे राज्य में ईवीएम को लेकर सवाल उठे हैं और पूरे महाविकास अघाड़ी के बीच यह आशंका बलवती है कि उन्हें छल कपट से हराया गया, इस मतदान से कम से कम उन सवालों के जवाब मिल जाते। मरकरवाड़ी गांव के लोगों का कहना है कि यहां 2009, 2014, 2019 और पांच महीने पहले लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को इतने वोट नहीं मिले थे, तो इस बार उत्तम जानकर को कम और राम सातपुते को ज्यादा वोट कैसे मिल सकते हैं। ग्रामीणों की यह आशंका मतपत्रों से चुनाव से दूर हो सकती थी और तब भी नतीजे अगर 23 तारीख को आए नतीजों की तरह रहते, तो ऐसे में चुनाव आयोग का दावा पुख़्ता हो जाता कि ईवीएम में कोई गड़बड़ी नहीं की गई। छोटी सी आबादी वाले एक गांव में मतपत्रों से चुनाव की एक छोटी सी कवायद पर अनावश्यक सख़्ती दिखाकर चुनाव आयोग और भाजपा दोनों ने अपने चारों तरफ बन चुके संदेह के घेरे को और गाढ़ा कर लिया है। इधर महाराष्ट्र में जिस तरह सरकार बनाने में देरी हो रही है, उससे भी कई सवाल उपज रहे हैं।

गौरतलब है कि महाराष्ट्र में 20 नवंबर को मतदान हो गया था, 23 तारीख को नतीजे आ गए और नतीजों में भाजपानीत महागठबंधन को पूर्ण बहुमत हासिल हो गया है, इसके बावजूद अब तक सरकार गठन का काम लटका हुआ है। निवर्तमान मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की कभी हां, कभी ना और भाजपा की दबाव बनाकर सत्ता को मुट्ठी में रखने की राजनीति ने महाराष्ट्र की जनता के भविष्य को अधर में लटका दिया है। 70 सालों में शायद ही ऐसा मौका किसी राज्य में आया होगा कि किसी दल या गठबंधन को प्रचंड बहुमत मिलने के बावजूद सरकार गठित करने और मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा करने में 10 दिन से ऊपर लग जाएं। महाराष्ट्र विधानसभा का कार्यकाल 26 नवंबर को ख़त्म हो चुका है और अगर किसी की भी तरफ से सरकार बनाने का प्रस्ताव न जाए तो कायदे से राज्यपाल को स्वतः कार्रवाई कर लेनी चाहिए। लेकिन महाराष्ट्र में कायदा भी शायद दिल्ली से और दिल्ली का ही चल रहा है, इसलिए महायुति की बैठक के लिए तारीख़ पर तारीख़ घोषित हो रही है और इन पंक्तियों के लिखे जाने तक न कोई बैठक हुई, न कोई फ़ैसला हुआ।

23 नवंबर को नतीजे आने के बाद 25 तारीख़ से दिल्ली और मुंबई के बीच महायुति के नेताओं के आने-जाने का सिलसिला शुरु हो गया। यह तय हो गया कि एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे, अजित पवार उपमुख्यमंत्री पद के लिए फिर से मान गए हैं, लेकिन भाजपा ने यह स्पष्ट ही नहीं किया कि उसकी तरफ से देवेंद्र फड़नवीस का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए सामने आएगा या किसी और को इस बार महाराष्ट्र की गद्दी सौंपी जाएगी। एकनाथ शिंदे अपनी कुर्सी छोड़ने के लिए तो राजी हो गए, लेकिन इसके बदले उन्हें क्या चाहिए, इस पर भी मामला अटका रहा। श्री शिंदे का सरकार गठन की चर्चा से दूर दो दिन तक अपने गांव जाकर बैठना और बार-बार बीमार पड़ना भी इस बात की तरफ इशारा करता है कि महायुति के बीच कोई बड़ी सौदेबाजी के अटके होने के कारण सरकार का गठन भी अधर में है।हालांकि भाजपा ने 5 दिसंबर को आज़ाद मैदान में शपथ ग्रहण की तैयारी जोर शोर से शुरु कर दी है।

जब भाजपा के पास संख्याबल कम था, तब उसने शिवसेना और राकांपा को तोड़कर सत्ता हासिल कर ली और अवैध तरीके से बनी सरकार को ढाई साल तक चला भी लिया, तो अब पूर्ण बहुमत पाने के बाद सरकार बनाना और चलाना उसके लिए कठिन नहीं होगा। लेकिन जिस तरह की परिपाटी महाराष्ट्र में भाजपा ने डाली है, उसमें लोकतंत्र के लिए हालात कितने कमज़ोर हो गए हैं, यह देखकर चिंता होती है। मुख्यमंत्री का नाम तय न करना, सरकार गठन के लिए राज्यपाल को पत्र सौंपे बिना शपथ ग्रहण का इंतजाम करना और ग्रामीणों की लोकतंत्र बचाने की शांतिपूर्ण मुहिम को कुचलना यह सब चुनाव प्रक्रिया का मज़ाक़ उड़ाने जैसा लग रहा है।

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