लड़कियों की हिफाजत के कानून वाले पन्नों से बने रॉकेट का हाल

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-सुनील कुमार Sunil Kumar

ओडिशा के केन्द्रपाड़ा जिले में अपने प्रेमी की ब्लैकमेलिंग से परेशान होकर एक छात्रा ने घर पर आत्मदाह कर लिया है। महीने भर में प्रदेश में यह ऐसी तीसरी घटना है। पहले एक लडक़ी प्रोफेसर के यौन शोषण से परेशान होकर कॉलेज परिसर में ही आत्मदाह कर चुकी है, एक दूसरी लडक़ी को राह रोककर दो लडक़ों ने जिंदा जला दिया था, और अब यह तीसरी घटना है जिसमें खुदकुशी दिख रही है। एक ही पीढ़ी की लड़कियां, एक ही प्रदेश में, एक के बाद एक महीने भर में इस तरह खत्म हो जाएं, यह किसी भी समाज के लिए बहुत ही शर्मिंदगी की बात होनी चाहिए। यह एक अलग बात है कि भारत के अधिकतर राज्यों में ऐसी घटनाओं को पुलिस जांच, अदालती सुनवाई, और जेल के लायक मान लिया जाता है। इससे परे महज राजनीतिक बयानबाजी हो जाए, तो वह काफी रहता है।

देश के अधिकतर राज्यों में आज प्रेम या देह-संबंधों की वजह से, यौन-शोषण की वजह से, आते-जाते छेडख़ानी से थककर मरने वाली लड़कियां ही रहती हैं। चारों तरफ से खबरें आती हैं कि किस तरह कोई नाबालिग लडक़ी किसी बालिग के साथ प्रेम-संबंध के चलते, या शादी के फेर में घर छोडक़र चली गई, या उसके किसी वीडियो के आधार पर उसे ब्लैकमेल किया गया। स्कूल-कॉलेज की लड़कियां बड़ी संख्या में ऐसे धोखे, या ऐसे जुर्म की शिकार हो रही हैं। कई जगहों पर तो धमकाने वाले, ब्लैकमेल करने वाले, सार्वजनिक रूप से छेडऩे वाले लोगों का हौसला पुलिस की मेहरबानी से इतना बढ़ा हुआ रहता है कि उसे देखते हुए किसी लडक़ी को खुदकुशी ही एक सुरक्षित रास्ता दिखता है। अभी एक समाचार में ऐसा वीडियो आया है जिसमें एक लडक़ी से छेडख़ानी करने वाले गुंडे ने जमानत पर जेल से छूटकर आने पर जुलूस निकाला, और उस लडक़ी के घर के सामने पहुंचकर अंधाधुंध नाच-गाना किया। जाहिर है कि इससे कानून तक जाने का लडक़ी का हौसला पस्त होता है। ओडिशा में एक के बाद एक लड़कियों की इस तरह की मौत के पीछे यह भी एक वजह रही है।

हिन्दुस्तान के अधिकतर प्रदेशों में कानून पर अमल इतना कमजोर है कि पुलिस से वास्ता पडऩे पर मुजरिम ही आत्मविश्वास से भरे रहते हैं, और उनके जुर्म के खिलाफ शिकायत करने वाले लोग डर से कांपते रहते हैं। शिकायतकर्ता लडक़ी-महिला हो, या कि आदमी, वे थाने और अदालत जाते ही कांपने लगते हैं, क्योंकि उन्हें कानून का एक खौफनाक पहलू दिखाया जाता है, दिखाई पड़ता है। दूसरी तरफ आए दिन इन जगहों पर आने-जाने वाले गुंडे-मवालियों से, मुजरिमों से पुलिसवालों और अदालतकर्मियों के अच्छे रिश्ते रहते हैं, और उनका आत्मविश्वास भी शिकायतकर्ता का हौसला तोड़ता है।

देश के ऐसे माहौल में दो और चीजों को जोडक़र देखने की जरूरत है। एक तो यह कि अधिकतर राजनीतिक दलों को गुंडे-मवालियों की मौजूदगी सुहाती है कि चुनाव लडऩे के लिए, दारू बांटने के लिए, हिंसा करने के लिए, वोटरों को रोकने के लिए ऐसा बाहुबल बड़े काम का रहता है। दूसरी बात यह कि राज्यों की पुलिस राज्यों की निर्वाचित सत्ता के राजनीतिक प्रभाव में लुंज-पुंज हो चुकी हैं, और अपने राजनीतिक मुखियाओं के कहे हुए वे किसी भी गुंडे को अनदेखा करने, या किसी भी बेकसूर-गरीब को किसी फर्जी मामले में उलझाने देने के लिए एक पैर पर खड़ी रहती हैं। इन दोनों बातों को जब जोडक़र देखें, तो समझ पड़ता है कि आज के समाज में कोई बेकसूर तभी तक सुरक्षित रह सकते हैं, जब तक किसी गुंडे की उन पर नजर नहीं पड़ी है, जब तक ऐसे किसी गुंडे की किसी सत्तारूढ़ नेता से दुश्मनी नहीं हो गई है। बेकसूर इंसान के बचने का अकेला जरिया यही हो सकता है कि कोई गुंडा उसके खिलाफ जुर्म करे, और दूसरी तरफ कहीं सत्ता से दुश्मनी भी पाल बैठे। लेकिन ऐसा आमतौर पर होता नहीं है क्योंकि मुजरिमों को अपनी सीमाएं अच्छी तरह मालूम रहती हैं, उन्हें पता रहता है कि वे किन लोगों को लात से मार सकते हैं, और कौन से तलुए उन्हें चांटने हैं।

समाज में जब लड़कियों और महिलाओं को झांसे से या डरा-धमकाकर, चाकू की नोंक पर भगाकर, या उनकी किसी कमजोर नब्ज को पकडक़र उन्हें ब्लैकमेल करके जुर्म का शिकार बनाया जाता है, तो कागजी कानूनों में उनकी हिफाजत के बड़े-बड़े दावे होने के बावजूद उनका बच पाना नामुमकिन सा रहता है। बल्कि बहुत से मामलों में, जिनमें से अधिकतर पुलिस तक पहुंचते भी नहीं हैं, एक-एक लडक़ी को ब्लैकमेल करके कब देह के धंधे में धकेल दिया जाता है, यह पता भी नहीं लगता। लोगों को याद होगा कि दशकों पहले अजमेर सेक्सकांड हुआ था जिसमें सैकड़ों लड़कियों और महिलाओं का ऐसा ही शोषण हुआ था, बाद में कई दूसरे शहरों में भी ऐसा हुआ, हाल के महीनों में भोपाल और इंदौर से ऐसी घटनाएं आईं, और कई जगहों पर कोई नाबालिग लडक़ी अपने प्रेमी के झांसे में फंसकर उसके कई साथियों के बलात्कार की शिकार हुई।

अब ऐसी नौबत का क्या इलाज हो सकता है? कानून तो कड़ा करते-करते इतना कड़ा कर दिया है कि अब नट को और टाईट करने से बोल्ट की चूड़ी ही खत्म हो जाएगी, और नट फिसलने लगेगा। इसलिए अब कानून पर अमल को अधिक कड़ा करने की जरूरत है जिसमें पुलिस जैसी जांच एजेंसी से लेकर विशेष महिला-फास्ट ट्रैक अदालतों तक के बारे में सोचना चाहिए। महिलाओं के खिलाफ होने वाले जुर्म की जांच के लिए पुलिस में अलग से एक जांच शाखा बननी चाहिए, और अलग से फास्ट टै्रक कोर्ट होना चाहिए ताकि कुछ महीनों में ही अधिकतर मामलों में सजा हो सके, और इस किस्म के मवाली-बलात्कारी जल्द जेल जा सकें। जमानत पर बाहर निकलकर फिर से धमकाने या बाहुबल दिखाने वाले लोगों की जमानत रद्द करने, और दुबारा जमानत न देने का भी इंतजाम होना चाहिए। इसके लिए अलग से किसी कानून की जरूरत नहीं है, क्योंकि जमानत का अधिकार मजिस्ट्रेट या जज के विवेकाधिकार पर छोड़ दिया जाता है।

ओडिशा में महीने भर में तीन लड़कियों के ऐसे दुखद अंत से इस मुद्दे पर लिखने की जरूरत आज लगी है, और इस बारे में हर राज्य सरकार को अपने-अपने स्तर पर सोचना चाहिए। पुलिस में ऐसे विंग अलग तैयार करना, सरकारी-वकीलों में ऐसे वकील अलग से छांटना, और ऐसी फास्ट ट्रैक कोर्ट अलग से बनाना महिलाओं को बचाने में कारगर हो सकता है। जिन कागजों पर कड़े कानून लिखकर उन्हें काफी मान लिया जाता है, वे कानून उन पन्नों को मोडक़र बनाए गए रॉकेट से अधिक ताकतवर नहीं रहते, उन पर सवार होकर कोई लडक़ी या महिला लंबा सफर नहीं कर सकतीं।

(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)

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