
-सुनील कुमार Sunil Kumar
ब्रिटेन का शाही परिवार एक बार फिर एक विवाद में फंस गया है। वहां के किंग चार्ल्स के छोटे भाई प्रिंस एंड्रयू के एक करीबी चीनी कारोबारी को लेकर अब यह दावा किया जा रहा है कि वह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का करीबी था, और वह ब्रिटिश राजमहल में आना-जाना करता था। अब ब्रिटिश सरकार ने इस पर रोक लगाई है, और इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए ब्रिटेन आने से रोक दिया गया है। ऐसा कहा जा रहा है कि चीन से अंग्रेजी पढऩे के नाम पर ब्रिटेन आए हुए इस कारोबारी ने चीन के संभावित पूंजीनिवेशकों की ओर से ब्रिटेन के शाही परिवार को प्रभावित करने की कोशिश की होगी। अब अधिक बारीकियों तक जाना जरूरी नहीं है, सिवाय इसके कि अलग-अलग जिस देश में जैसी सत्ता रहती है, उसमें सत्तारूढ़ परिवार के आसपास दुनिया भर के दलाल मंडराते ही हैं, और उनसे बचना कैसे चाहिए?
इसमें अनोखा कुछ भी नहीं है। सत्ता के इर्द-गिर्द दलालों और कारोबारियों के मंडराने का बड़ा पुराना इतिहास है। भारत के भी कई प्रधानमंत्रियों के आसपास इस किस्म के लोगों की चर्चा हमेशा से रहती आई है। आज देश के जो सबसे बड़े कारोबारी घराने हैं, उनमें से कुछ प्रधानमंत्री के स्तर पर देश की आयात-निर्यात नीतियों को प्रभावित करने, और फिर उनसे अंधाधुंध मुनाफा कमाने की तोहमत आधी सदी पहले भी झेल चुके हैं। एक वक्त सरकार और कारोबार में कम से कम जनता को दिखाने के लिए कुछ फासला रहता था। अब तो दुनिया के अधिकतर देशों में कारोबार ही सरकार पर हावी दिखते हैं, और शायद यह भी एक वजह है कि एक वक्त जो हिन्दुस्तान फिलीस्तीन का दोस्त और मददगार था, उस हिन्दुस्तान में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए ही अपना रूख पूरी तरह इजराइल की तरफ मोड़ दिया था। शायद इसलिए कि इजराइल से भारत की खरबों डॉलर की खरीदी होती थी, और उस वक्त ही इजराइल के निर्यात का आधे से अधिक आयात अकेले भारत में होता था। आज भी अगले अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने जिस तरह भारत से लेकर ब्राजील तक, और कनाडा के भी सामानों पर अमरीका में एक अतिरिक्त टैरिफ लगाने की बात कही है, तो उससे भी हो सकता है कि इन देशों के कारोबारियों के कुछ एजेंट ट्रम्प परिवार को प्रभावित करने में लग चुके हों। वहां पर दलाली की जगह लॉबिंग शब्द का इस्तेमाल होता है, और उसे अधिक औपचारिक रूप से, थोड़ी सी अधिक इज्जत के साथ किया जाता है। ट्रम्प परिवार के कई लोग दुनिया के कारोबारियों से संबंध रखने के लिए जाने जाते हैं, और अब तो ट्रम्प के पास एलन मस्क सरीखे कारोबारी सहायक भी हैं, और दुनिया के अलग-अलग देशों के लिए, कारोबारियों के लिए अमरीकी सरकार की नीतियों को तय करने में मस्क सरीखे लोगों की भी भूमिका रहेगी।
आज अमरीका और चीन इन दो ध्रुवों के बीच कुछ या अधिक हद तक खेमों में बंटे हुए देशों को दुनिया भर के देशों में सत्ता के दलालों का भी ख्याल रखना पड़ता है। भारत में एक वक्त प्रधानमंत्री निवास में सत्ता के दलाल प्रधानमंत्री परिवार के एक सदस्य को मोटी रकम देकर पीएम से मुलाकात का इंतजाम करते थे, ऐसी चर्चा रहती थी। राज्यों में भी कई जगहों पर ब्रिटिश राजघराने की तरह के राज्यों के राजभवनों से दलाली और भ्रष्टाचार का सिलसिला चलता रहा है। कई जगहों पर सत्तारूढ़ नेता के परिवार खुलकर राजपाट में दखल और अपनी पहुंच बेचते दिखते हैं। ऐसे सिलसिले रोकने के लिए देश में संवैधानिक संस्थाओं का मजबूत होना जरूरी रहता है। जब सत्ता पर निगरानी रखने के लिए बनी संवैधानिक संस्थाएं स्वतंत्र और स्वायत्त रहती हैं, जिन पर मनोनीत लोग महज सत्ता के पसंदीदा नहीं रहते, वहीं पर शासन या संविधान प्रमुख लोगों के कुकर्मों पर निगरानी रखी जा सकती है। और जहां पर ऐसी निगरानी की कुर्सियां चहेतों को दी जाती हैं, वहां पर जांच एजेंसियों से लेकर संवैधानिक संस्थाओं तक का काम संदेह के घेरे में रहता है। आज अमरीका में ट्रम्प अपने एकदम चहेते लोगों को ऐसी तमाम नाजुक कुर्सियों पर बिठाने पर आमादा हैं, और उसका नतीजा एकदम साफ रहेगा। जब रोकने-टोकने वाले तमाम लोगों की जगह पर सिर्फ अपने चापलूस और दरबारी बिठा दिए जाते हैं, तो फिर मुखिया की गलतियों और गलत कामों की कोई सीमा नहीं रह जाती। जब आसपास के तमाम लोग ट्रम्प के यस मैन (वीमेन भी) रहेंगे, तो फिर कार्यकाल के अंत में वे बहुत से कलंक छोडक़र जाएंगे।
हमने ब्रिटिश राजघराने के एक प्रमुख सदस्य तक चीनी घुसपैठिए की शिनाख्त से यह बात शुरू की थी, और उसी पर अगर लौटें तो यह साफ दिखता है कि सरकार या संविधान प्रमुख परिवारों को अपने आपको सत्ता के दलालों से दूर रखना चाहिए। सत्ता तक पहुंच चुके नेताओं के सफल और महान होने के बीच में बहुत बड़ा फर्क रहता है। सत्ता पर काबिज होना एक सफलता रहती है, लेकिन महानता की राह वहां से शुरू भर होती है। हिन्दुस्तान में ही कई ऐसे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री रहे, राष्ट्रपति और राज्यपाल रहे, जो कि किसी भी किस्म के विवाद से पूरी तरह दूर रहे, और उनमें से कोई एक पुरानी कार का कर्ज छोडक़र मरा, तो किसी ने विरासत में एक झोपड़ा की अपने कुनबे को दिया। एक राष्ट्रपति ऐसे भी रहे जिनके शपथ ग्रहण में उनके परिवार के कुछ लोग ट्रेन के साधारण दर्जे में सफर करके पहुंचे, और उसके बाद दुबारा कभी नहीं आए। कुछ ऐसे प्रधानमंत्री भी रहे जिन्होंने किसी भी कारोबारी से अकेले मिलने से मना कर दिया, और वे व्यापारिक प्रतिनिधि मंडलों से ही मिलने को तैयार हुए। अब यह तो अलग अलग लोगों के अपने मिजाज पर भी निर्भर करता है कि वे नैतिकता को कितना ओढऩा चाहते हैं, या उसे कचरे की टोकरी में डाल देने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती।
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)