
-सुनील कुमार Sunil Kumar
देश के अखबार व टीवी चैनल पिछले कुछ महीनों से लगातार पारिवारिक हिंसा की बढ़ती हुई खबरों से भरे हुए हैं। एक छोटा सा फर्क यह है कि पारिवारिक हिंसा करने वाले अब तक मर्द रहते थे, अब किसी-किसी मामले में महिलाएं भी हिंसा करने लगी हैं। चूंकि महिलाएं भी अकेले, प्रेमी के साथ मिलकर, या भाड़े के हत्यारे से कुछ मामलों में मर्दानी हिंसा को टक्कर दे रही हैं, इसलिए समाज हड़बड़ा गया है। अभी एक बड़े अखबार ने नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो और कुछ दूसरे स्रोतों से अधिकृत जानकारी जुटाकर चौंकाने वाले आंकड़े सामने रखे हैं। इनके मुताबिक पांच बड़े राज्यों में पांच साल में 785 पत्नियों ने अपने पतियों की हत्या की है। मतलब यह कि हर बरस डेढ़ सौ से कुछ ज्यादा ऐसी हत्याओं का औसत रहा इन पांच राज्यों में। अब इससे एक ऐसी भयानक तस्वीर बनती है कि बहुत से कुंवारे लोग शादी का इरादा ही छोड़ दें। लेकिन भारत की आबादी बहुत तेजी से न गिर जाए इसलिए हमने इस अखबार के ऐसे आंकड़ों के साथ-साथ कुछ दूसरे आंकड़ों को भी रखने की कोशिश की है।
हमने चैटजीपीटी और कुछ दूसरे एआई औजारों से जब आंकड़े निकाले तो उनसे भारत के मर्दों की दहशत कुछ कम होनी चाहिए। इन पांच बरसों में से तीन बरसों के ही आंकड़े मारी जाने वाली पत्नियों, और मारे जाने वाले पतियों के बारे में मिल पाए हैं, पहले और आखिरी बरस के आंकड़े पति द्वारा हत्या के तो मिले हैं, पत्नी द्वारा हत्या के नहीं मिले हैं। देश भर के आंकड़े बताते हैं कि 2021 में दो सौ, 2022 में 271, और 2023 में 250 पत्नियों ने पतियों को मारा, या मरवाया। दूसरी तरफ पत्नी की हत्या करने वाले पतियों के आंकड़े 2020 में 6700, 2021 में 6589, 2022 में 6450, 2023 में 6000 से अधिक, और 2024 में भी 6000 से अधिक हैं। मतलब यह कि पति की हत्या साल भर में अधिकतम 271 हुई है, और पत्नी की हत्या कम से कम 6000 तो हुई ही है, और अधिकतम तो 6700 है। पत्नियों की हत्या में अभी भी चल रही दहेज-हत्याएं शामिल हैं जो कि सैकड़ों में हैं, और इनमें देश में 2022 में यूपी सबसे ऊपर, फिर बिहार, और फिर मध्यप्रदेश है। इस बरस देश में सबसे कम दहेज-हत्याएं केरल में दर्ज हुई हैं, यूपी में 2218, बिहार में 1057, एमपी में 518, और केरल में कुल 11 हैं।
हम आंकड़ों पर आधारित विश्लेषण को आंख मूंदकर मंजूर नहीं करते, लेकिन जब सरकारी, अधिकृत, या मीडिया में दर्ज घटनाओं के आधार पर आंकड़े निकाले गए हैं, तो पतियों की हिंसा, और पत्नियों की हिंसा के आंकड़ों की तुलना तो की ही जा सकती है। कुछ गिनी-चुनी घटनाओं के चलते हुए आज पूरे देश में महिलाओं को बेवफा, और कातिल करार दिया जा रहा है, इसलिए यह तुलना जरूरी है कि अभी तक हत्यारी-पत्नियां, हत्यारे-पतियों के मुकाबले पांच फीसदी भी नहीं हैं। अब भारत लैंगिक समानता वाला लोकतंत्र है, महिलाओं को न सिर्फ बराबरी का दर्जा प्राप्त है, बल्कि कानून में कई तरह की हिफाजत औरत-मर्द के बीच सिर्फ औरत को मिली हुई है। दहेज-हत्या का कानून महिलाओं को बचाने के लिए बनाया गया है, बलात्कार या दूसरे यौन शोषण के मामलों में महिला को अधिक हिफाजत हासिल है, भ्रूण लिंग परीक्षण को जुर्म बनाना भी कन्या भ्रूण को बचाने के लिए किया गया था, सतीप्रथा महिला को बचाने के लिए खत्म की गई, और बालविवाह में अधिक नुकसान नाबालिग लडक़ी का होता था, उसे भी कानून बनाकर रोका गया। महिलाओं को पंचायतों और म्युनिसिपलों में 50 फीसदी तक आरक्षण दिया गया, जबकि वे इन सीटों से परे भी अनारक्षित सीटों पर भी लड़ सकती हैं। देश के अलग-अलग प्रदेशों में महिलाओं को सरकारी नौकरियों में आने के लिए उम्र सीमा में बहुत बड़ी छूट दी गई है, ताकि वे शादी और बच्चों की जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाने के बाद भी नौकरी के लिए अर्जी दे सकें। कानून और सरकारों ने तो अपने हिस्से का काम किया है, यह एक अलग बात है कि सरकार और अदालत हांकने वाले मर्द इन महिला-कानूनों को ठीक से लागू नहीं होने देते, ठीक उसी तरह जिस तरह कि मीडिया में महिला की की गई हिंसा, या करवाई गई हिंसा बढ़-चढक़र दिखाई जाती है क्योंकि मीडिया की फैसले लेने वाली कुर्सियों पर अमूमन मर्द ही काबिज हैं।
भारतीय समाज में महिलाओं के साथ जितने किस्म की, और जिस दर्जे की बेइंसाफी होती है, उससे यह तो साफ है कि बदला लेने की अधिक नौबत उन्हीं के सामने रहती है, वजहें उन्हीं के पास अधिक रहती हैं। इसके बाद भी अगर 6700 पत्नी-हत्या के मुकाबले कुल 271 पति-हत्याएं हुई हैं, तो यह मान लेना चाहिए कि मर्दों के साथ अभी बहुत बड़ी रियायत जारी है। इसके पहले कि यह लैंगिक असमानता दूर करने की कोशिश हो, इस खाई को पाटने की कोशिश हो, मर्दों को संभल जाना चाहिए। अगर उनके साथ बराबरी से हिसाब चुकता होने लगेगा, तो हर बरस देश में शादीशुदा मर्द आबादी 6 हजार से अधिक घटने लगेगी, और करोड़ों शादीशुदा मर्द दहशत में सो भी नहीं पाएंगे। महिलाओं के बीच से इक्का-दुक्का मामले सामने आने पर भी मर्दों को अपने को संभालना चाहिए। बिना हिंसा की शादीशुदा जिंदगी में भी महिला की खुशी का ख्याल रखना चाहिए, पारिवारिक सुख में उसे भी एक हिस्सा देना चाहिए, और उसे पूरे परिवार की सेवा के लिए आठ हाथों वाली एक गुलाम मानना बंद करना चाहिए। आज आर्थिक आत्मनिर्भरता, और अधिक सामाजिक भागीदारी की वजह से भारतीय महिला अच्छे और बुरे हर तरह के काम के लिए पहले के मुकाबले अधिक ताकत रखती है। अभी मर्दों को दहशत में आने की जरूरत तो नहीं है, लेकिन इंसाफ की तरफ बढऩे की जरूरत जरूर है। 271 और 6700, इनके बीच का फासला अभी बहुत बड़ा है, और मर्दों को अपनी हिंसा घटानी चाहिए, अहिंसक पतियों को पत्नियों को बेहतर तरीके से परिवार में सम्मान की जगह देनी चाहिए, वरना जुल्मियों का काल बनकर नीला ड्रम तो बाजार में है ही।
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)