
#सर्वमित्रा_सुरजन
अंधेर नगरी चौपट राजा नाटक में फांसी का फंदा बड़ा और कोतवाल की गर्दन छोटी होने के कारण मोटे-तगड़े गोर्वधन दास को फांसी पर चढ़ाने की तैयारी कर ली जाती है। क्योंकि राजा को तो बकरी के मरने पर इंसाफ करना है। इसलिए जिसकी गर्दन फंदे के नाप की हो, उसे ही सिपाही ढूंढ कर ले आए। हालांकि गुरुजी ऐन मौके पर आकर अपने चेले गोर्वधन दास को बचा लेते हैं और मूर्ख राजा स्वर्ग जाने की इच्छा लिए खुद फांसी चढ़ जाता है, इस तरह अंधेर राज समाप्त होता है। मगर क्या वाकई अंधेरगर्दी खत्म हुई है। विवेकहीन शासक और निरंकुश प्रशासन की पोल खोलते इस व्यंग्यात्मक प्रहसन को भारतेंदु हरिश्चंद्र ने एक ही दिन में लिख दिया था। वे उच्च कोटि के लेखक थे, लेकिन इस रचना और आज के वक्त को देखकर लगता है कि उनकी दूरदृष्टि भी गजब की थी। 1881 में जब यह नाटक लिखा गया, तब अंग्रेजी हुकूमत थी और भारत आजादी की लड़ाई के लिए पहला बिगुल फूंक चुका था। इस लड़ाई में हिंदू-मुसलमान सब साथ थे और मुकाबला अंग्रेजों से था।
अब अंग्रेजों को गए सात दशक से अधिक वक्त बीत चुका है। भारत आजाद हो गया है, उससे अलग होकर पाकिस्तान बन गया, दोनों देशों के बीच चार युद्ध हो गए हैं, लेकिन सीमा के आर-पार आम जनता अब भी विवेकहीन शासन की अंधेरगर्दी देख रही है। पाकिस्तान में तो अब फिर से सैन्य शासन की आहट सुनाई दे रही है। ऑपरेशन सिंदूर में पाकिस्तान को मात मिली है, लेकिन दुनिया में वह अलग कहानी सुनाने में लगा है। शाहबाज शरीफ ने जिस तरह युद्धविराम के बाद लगभग डींग हांकने के अंदाज में अपनी विजयगाथा दुनिया को बताई और भर-भर के अपनी सेना की तारीफ की, उससे समझ आता है कि पूरा भाषण पहले से लिखकर उन्हें पढ़ने दिया गया। अब पाक सेनाप्रमुख जनरल आसिम मुनीर की तरक्की कर उन्हें फील्ड मार्शल बना दिया गया है। इससे पहले पाकिस्तान में एक ही फील्ड मार्शल थे, जनरल अयूब खान। अयूब खान की वजह से पाकिस्तान में सैन्य तानाशाही आई। अब क्या पाकिस्तान फिर सैन्य तानाशही की तरफ बढ़ रहा है, यह सवाल उठ रहे हैं। इधर पाकिस्तान से अलग हुए बांग्लादेश में भी सेना का दबदबा बढ़ रहा है। शेख हसीना से सत्ता छीनने के बाद बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुखिया बने मोहम्मद यूनुस और देश के सेना प्रमुख जनरल वकार उज-जमान के बीच दरार बढ़ती जा रही है। जनरल जमान चुनावों की तारीख जल्द घोषित करवाना चाहते हैं, और मो.युनूस इसे टाल रहे हैं। ऐसे में जनरल जमान ने कमांडरों की बैठक बुलाई है और माना जा रहा है कि फिर से तख्तापलट हो सकता है।
लोकतंत्र को नकारने, बहुलतावाद की उपेक्षा करने और कट्टरपंथ पर चलने का क्या अंजाम होता है, इसे पाकिस्तान और बांग्लादेश की जनता से बेहतर कौन जानता होगा। लेकिन क्या भारत की जनता जानती है कि उसकी बेहतरी किसमें है। क्योंकि अभी जो माहौल बन चुका है, वह बिल्कुल वैसा ही है, जिसका वर्णन 1881 में भारतेंदुजी ने किया था।
पहलगाम में आतंकी हमला हुआ, निर्दोष लोग मारे गए। सरकार से इंसाफ की गुहार लगाई गई। 14 दिन बाद ऑपरेशन सिंदूर हुआ। उसमें सफलता मिल ही रही थी कि अचानक अमेरिका के कहने पर युद्धविराम हो गया। सेना ने बताया पाक के आतंकी ठिकाने ध्वस्त किए गए। जनता ने इस पर खुशी जताई कि इतनी जांबाज सेना उसकी हिफाज़त के लिए है। फिर भी सरकार से सवाल हुए कि पाक में बैठे आतंकियों को तो मारा गया, लेकिन उन चार आतंकियों का क्या हुआ, जो पहलगाम तक चले आए। इसका कोई जवाब सरकार ने नहीं दिया, लेकिन अचानक अशोका विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. अली खान महमूदाबाद को गिरफ्तार कर लिया गया, क्योंकि अंग्रेजी में लिखी उनकी फेसबुक पोस्ट में हरियाणा महिला आयोग को सांप्रदायिक और महिला विरोधी विचार नजर आए। प्रो.महमूदाबाद पूछते रहे कि आखिर किस जगह ऐसा लगा कि उन्होंने महिलाओं का अपमान किया है, लेकिन उन्हें जवाब नहीं मिला। उनकी गर्दन फंदे के अनुरूप दिखी होगी, तो इंसाफ की राह में उन्हें धकेल दिया गया। गनीमत है कि देश में गोर्वधनदास के गुरु जैसा विद्वान, सम्मानीय सुप्रीम कोर्ट है, जिसने प्रो. महमूदाबाद को अंतरिम जमानत दे दी। लेकिन इससे अंधेरगर्दी खत्म हो जाएगी, ऐसा लगता नहीं है।
क्योंकि इस सारे प्रकरण में ध्यान गुनहगारों को पकड़ने से ज्यादा फंदे के लिए गर्दन तलाशने पर था और गर्दन अल्पसंख्यक की हो तो इंसाफ का ज़ोर ज़रा ज्यादा दिखाई देगा। प्रो. अली खान महमूदाबाद की बड़ी सी पोस्ट में पाकिस्तान के आतंकवाद पोषण की आलोचना की गई है, फिर ऑपरेशन सिंदूर के लिए सेना की तारीफ है कि उसने नागरिकों को निशाना नहीं बनाया। इसके बाद युद्ध की मुखालफत की गई है, लिखा है- कुछ लोग बिना सोचे-समझे युद्ध की वकालत कर रहे हैं, लेकिन उन्होंने (असल में) कभी युद्ध देखा नहीं है, संघर्ष क्षेत्र में रहना या वहां जाना तो दूर की बात है। किसी छद्म नागरिक सुरक्षा अभ्यास गतिविधि का हिस्सा बनने से आप सैनिक नहीं बन जाते और न ही आप कभी किसी ऐसे व्यक्ति का दर्द जान पाएंगे जो संघर्ष के कारण नुकसान उठाता है। युद्ध क्रूर होता है। और गरीब लोग इसका सबसे ज़्यादा ख़ामियाज़ा भुगतते हैं, केवल राजनेता और रक्षा कम्पनियां ही इसका फ़ायदा उठाती हैं। आगे उन्होंने उम्मीद जताई कि कर्नल सोफिया कुरैशी की तारीफ जो दक्षिणपंथी टिप्पणीकार कर रहे हैं, वे भाजपा द्वारा फैलाई नफरत के शिकार लोगों का भी बचाव करेंगे। मॉब लिंचिंग और बुलडोजर न्याय में जिस तरह मुस्लिमों को बीते समय में निशाने पर लिया गया है, डॉ. महमूदाबाद ने वही लिखा है। उन्होंने आखिरी में लिखा कि दो महिला सैनिकों द्वारा जानकारियों को प्रस्तुत करने का दिखावा अहम है, लेकिन यह दिखावा ज़मीनी हक़ीक़त में भी बदलना चाहिए नहीं तो यह केवल पाखंड है। इसके बाद सांप्रदायिकता से संक्रमित भारतीय राजनीति का जिक्र करते हुए उनकी पोस्ट खत्म होती है।
सोशल मीडिया पर पूरी पोस्ट हिंदी में भी उपलब्ध है, पाठक चाहें तो वहां इसे पढ़ सकते हैं। लेकिन यहां भी जितना हिस्सा दिया गया है, उसमें ऐसी कोई बात नजर नहीं आती जिसकी वजह से एक प्रोफेसर और समाज के सम्मानित नागरिक पर न केवल मामला दर्ज हुआ, बल्कि गिरफ्तार भी किया गया। जबकि असल में महिला और सेना का अपमान करने वाली टिप्पणी मध्यप्रदेश के मंत्री विजय शाह ने की, लेकिन उन पर मामला दर्ज करवाने के लिए भी हाईकोर्ट को आदेश देना पड़ा। हरियाणा और मध्यप्रदेश दोनों जगह भाजपा की ही सरकारें हैं, लेकिन यह कैसी पार्टी है, जिसके इंसाफ के मापदंड दो राज्यों में अलग-अलग हैं।
हालांकि महिला उत्पीड़न की बात हो तो मध्यप्रदेश और हरियाणा में कुछ खास अंतर नहीं है। 2024 में राष्ट्रीय महिला आयोग ने महिलाओं पर अत्याचार की शिकायतों के जो आंकड़े प्रस्तुत किए, उसमें 6,470 शिकायतों के साथ उत्तरप्रदेश सबसे आगे रहा, दिल्ली में1,113 महाराष्ट्र में 762 शिकायतें दर्ज हुईं, ये सभी भाजपा शासित राज्य हैं। भाजपा शासित मध्यप्रदेश में 514 और हरियाणा में 509 शिकायतें महिला उत्पीड़न की दर्ज हुई हैं। हमें नहीं मालूम कि हरियाणा राज्य महिला आयोग इन शिकायतों को कम करने और इनका निदान करने के लिए कितना सक्रिय है। मगर बलात्कार और हत्या का आरोपी राम रहीम इसी हरियाणा में बार-बार पैरोल पर बाहर आता है, यह सब देखते हैं। हरियाणा से ही नरेन्द्र मोदी ने बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान की शुरुआत की थी और इसी राज्य में 2019 में प्रति 1,000 लड़कों पर 923 लड़कियां थीं, और 2024 में हजार लड़कों पर केवल 910 लड़कियों का लिंगानुपात रहा। कन्या भ्रूण हत्या के लिए बने अवैध केंद्र यहां की बड़ी समस्या है।
इन आंकड़ों को देने का मकसद यही बताना है कि हरियाणा महिला आयोग के पास अपना काम करके दिखाने और उपयोगिता साबित करने के ढेरों मौके और कारण हैं। लेकिन यह सब छोड़कर उसने क्यों फंदे के लिए गर्दन तलाशनी शुरु की, यह समझ से परे है।
इधर भाजपा जो ऑपरेशन सिंदूर के बाद तिरंगा यात्रा निकाल रही है, उसमें कई जगहों पर महिलाएं लाल वस्त्रों में सिंदूर लगाकर हिस्सा ले रही हैं, और पहलगाम हमले के लिए मुसलमानों को गलत बता रही हैं। सोशल मीडिया पर एक वीडियो देखा, जिसमें एक पत्रकार पूछ रही है कि आप लोग किसलिए हिस्सा ले रही हैं, तो कई महिलाओं के पास जवाब नहीं है। वे सोफिया कुरैशी की परवरिश को हिंदू बता रही हैं और कह रही हैं कि सब मुसलमान ही करते हैं, इसलिए सजा मिलनी चाहिए। इधर छत्तीसगढ़ में ऑपरेशन सिंदूर के बाद कुछ महिलाओं ने सिंदूर खेला किया, जिससे जाहिर होता है कि सैन्य कार्रवाई तो अपनी जगह है, लेकिन देश में व्यापक समाज इसे हिंदुत्व के नजरिए से देख रहा है। ऐसे में प्रो. महमूदाबाद जैसे लोगों की लिखी बात न समझ आई हो तो किसका कसूर माना जाए। अंधेर नगरी का चौपट राजा कल्लू बनिया, चूने वाला, भिश्ती, कसाई, कोतवाल सबको एक-एक कर दरबार में हाजिर करवाता है। क्या समाज ऐसी हाजिरी लगाने के लिए तैयार है, सोचिए जरा।
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)