भूली बिसरी यादेंः यादें चवन्नी की !

चवन्नी क्या गई सवाए का शगुन ही समाप्त हो गया। फिर तो ग्यारह, इक्कीस, इक्यावन इस तरह चलने लगे। चवन्नी को बच्चों के गले में भी पहने देखा जाता था, इसका तर्क समझ से परे है। इस तरह अनेक रस्मोरिवाज में चवन्नी की पूछ बनी रही। बीस पैसे के कमल के फूल वाले सिक्कों की भी (सोने के वहम में) खूब जमाखोरी हुई थी।

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Photo by Debraj Chanda: pexels.com

-मनु वाशिष्ठ-

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मनु वशिष्ठ

दादी नानी बन गई हूं तो हरकतें भी तो वैसी ही होंगी। बच्चों को पुराने सिक्कों के खजाने को दिखा रही थी। उसी में कई तरह की चवन्नियां दिख गई। सिक्कों का जिक्र हो और चवन्नी का जिक्र न हो यह मुश्किल है। यूं समझिए चवन्नी सिक्कों की रानी थी। हालांकि तीस जून 2011 में रिजर्व बैंक के आदेश पर चवन्नी के चलन को बंद कर दिया गया था। सबसे पहले चली चवन्नी पर एक 1/4 रुपया लिखा रहता था, बाद में जब भारत में दशमलव प्रणाली अन्य देशों की तरह लागू की और पाई की जगह पैसे लिखे जाने लगे, तो चवन्नी पर 25 पैसे छपने लगा। कुछ सिक्के चलन से गायब बेशक हो जाएं, पर यादों के किसी कोने में जगह बनाए रहते हैं। समय परिवर्तनशील है, समय के साथ बहुत सी चीजें बहुत बेकार हो जाती हैं, या छोड़ कर दूर चली जाती हैं। वैसे ही चवन्नी भी अपना रोल निभा कर दिवंगत आत्मा सी यादों में रह गई। उसका चलन भले ही बंद हो गया मगर चवन्नी जाते-जाते कई मुहावरे और कहानियां दे गई, इसलिए इसको सब सिक्कों की रानी कहना उचित होगा।
जैसे हम किसी की औकात एक चवन्नी से नापते हैं। अगर किसी का येन केन प्रकरेण काम बन जाता तो कहने में आता, अरे! उसकी तो “चवन्नी चल गई”। कभी तंगहाली को लेकर कहा जाता क्या “चवन्नी छाप” जिंदगी हो गई है। कई घरों में छोटे बच्चे या बच्ची को भी “चवन्नी” (मतलब छोटा) कह दिया जाता था।
मुझे तो चवन्नी ही चाहिए, बचपन में इस तरह की जिद आम बात थी, और आश्चर्य की बात यह है कि उसमें भी रईसी वाली फीलिंग आती थी, जो आज बच्चों को शायद सौ ₹ मिलने पर भी ना आती हो। जब कभी मां मेहरबान होती या टिफिन ना बन पाता तो चवन्नी देकर कहतीं “कुछ खा लेना”। चवन्नी से लोगों की कितनी जरूरतें और शौक पूरे होते रहे हैं। चाट, जलेबी, पेड़ा, पान, पतंग, गुल्लक, लेमनचूस टॉफी, ऑरेंज आइसक्रीम, कुल्फी, बेर, रिक्शे की सवारी, किसी को बख्शीस, ये सारे छोटे छोटे काम चवन्नी के खाते में थे। चवन्नी की अपनी खनक (ठसक) थी। साठ के दशक में तो चवन्नी में मेला भी घूम सकते थे। चवन्नी ने लंबे समय तक पत्राचार, मनीआर्डर, डाक टिकट जारी करवाए। सैर कराई, रस्में निभाने में वह मददगार रही। पूजा पाठ में भी खूब साथ दिया है चवन्नी ने। रुपए पर चवन्नी रखकर इसे सवा रुपया बनाया तो पंडित जी की दक्षिणा राशि बन गई। शुभ कार्यों में, लग्न पत्रिका, ब्याह शादी की चीजों में शगुन रखना हो या मन्नत का प्रसाद चढ़ाना हो, सवाये में एक रुपए के साथ चवन्नी ही चलती थी। बारात में दूल्हे पर खील, मखाने में मिलाकर थैली लुटाने की परंपरा हो तो बच्चे छोटे सिक्के के साथ चवन्नी ढूंढते थे, कि कितने पैसे मिले। चवन्नी क्या गई सवाए का शगुन ही समाप्त हो गया। फिर तो ग्यारह, इक्कीस, इक्यावन इस तरह चलने लगे। चवन्नी को बच्चों के गले में भी पहने देखा जाता था, इसका तर्क समझ से परे है। इस तरह अनेक रस्मोरिवाज में चवन्नी की पूछ बनी रही। बीस पैसे के कमल के फूल वाले सिक्कों की भी (सोने के वहम में) खूब जमाखोरी हुई थी।
भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में भी चवन्नी का एक अहम योगदान रहा है। जब गांधी जी ने चवन्नी से कांग्रेस की सदस्यता को जोड़ने की मुहिम चलाई थी, तब बहुत सारे लोग आगे आए और एक नारा हवा में उछला_ है खरी चवन्नी चांदी की, जय बोल महात्मा गांधी की। बाद में आपातकाल के बाद यही नारा बदल गया था।
जबसे संसार में वस्तु विनिमय की जगह मुद्रा विनिमय शुरू हुआ तब से शासन द्वारा जारी सिक्के हमारे जीवन और भरोसे का हिस्सा हैं। हमारी रोजमर्रा की कितनी ही जरूरतों का आधार छोटे सिक्के रहे हैं। समय-समय पर अनेक सिक्के भी विभिन्न रूपों में जारी और चलन से बाहर होते रहे हैं। आज की महंगाई के परिदृश्य में छोटे सिक्के जैसे एक, दो, तीन, पांच, दस, बीस, पच्चीस और पचास पैसों के सिक्के हुआ करते थे, अब लगभग मूल्य हीन हो गए हैं। पहले हमारे यहां सिक्कों के चलन में पाई, आना, दो आना, इकन्नी, दुअन्नी और चवन्नी, अठन्नी के नाम के सिक्के चले, जो अब केवल “दुर्लभ सिक्के संग्रह” की शोभा बढ़ा रहे हैं। अब तो एक, दो, पांच और दस ₹ के सिक्के प्रचलन में दिखाई देते हैं। एक ₹ और दो ₹ के नोट भी अब गायब हो गए हैं। कुछ सिक्के गायब हो जाते हैं पर यादों के किसी कोने में जगह बनाए रहते हैं, उन्हीं में से एक है सिक्कों की रानी #चवन्नी।
__ मनु वाशिष्ठ कोटा जंक्शन राजस्थान

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