
– बृजेश विजयवर्गीय
(समन्वयक चम्बल संसद, स्वतंत्र पत्रकार)
भारत वर्ष में जहां भगीरथ जी के प्रयासों से गंगा जैसी पवित्र पावनी नदी बह रही होए जिसके वेग को थामने के लिए भगवान शंकर ने अपनी जटाऐं खोल कर उसमें नदी को समा लिया हो, उस देश में नदियों के प्रति विश्व समुदाय ने समर्थन और संरक्षण की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए जागरूकता बढ़ाने के लिए 2005 से 26 सितम्बर को नदी दिवस मनाने का आव्हान किया। पर्यावरणविद् मार्क एंजेलो का नाम इस दिवस के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। लेकिन भारत की नदियों को जहां मां का दर्जा दिया गया है वो सम्मान कहीं नहीं है। हम सम्मान दे कर भूल गए कि नदियां रक्तवाहिनियों की तरह हैं जो जीवन धाराऐं कही जा सकती है। शायद इसी कारण भारत समेत हर जगह सभी सभ्यताओं का जन्म नदियों के किनारे हुआ। दुर्भाग्यवश सभ्य कहे जाने वाले समाज ने नदियों को प्रदूषण युक्त बना कर मैला ढोने वाली गाड़ी बना दिया। कोई भी सरकार नदी संरक्षण के प्रति गंभीर नही दिखती।

धरातल पर देखें नदिया अब पानी के लिए नहीं बजरी के लिए जानी जाती है। जल प्रवाह में से खनन क्षैत्र खोजा जाता है। आबादियों को बसा कर वोट बैंक की फसलें खड़ी की जा रहीं है। भारत की गंगा यमुना, चम्बल समेत बनास, मेज, पार्वती, कलीसिंध अब बारह मासी नदियां नहीं रहीं। चम्बल आदि नदियों के पानी से समृद्धता का ढोल पीटने के बाद हमारे संरक्षण के प्रयास न के बराबर हैं। हम रिवर फ्रंट बना कर नदियों के कुछ हिस्से को कृत्रिम सौंदर्य से भ्रमित करने का प्रयास कर रहे हैं। जबकि नदियों की बीमारी है प्रदूषण, अतिक्रमण और शोषण की। उसका उपचार संरक्षण की योजनाओं को लागू कर प्रदूषण और अतिक्रमण मुक्त करने में है। यह बात उसी तरह से है जैसे हृदय रोगी को हड्डी के डाक्टर के पास जा कर इलाज कराया जाए। नाक काट कर नथ पहनाने का काम हमारे हुक्मरान कर रहे हैं। शायद इसी को विकास कहते है।

आज जल, जंगल और जमीन पर चहुंओर से संकट है। लेकिन आज विश्व समुदाय एक दिन नदियों पर बात करने का अवसर तो प्रदान करता ही है। चहुंओर अंधेरा हो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। अंधेरे में कुछ चिंगारियां मौजूद हैं चाहे वो डॉ राजेंद्र सिंह एवं पर्यावरणविदों के मार्गदर्शन में जल बिरादरी हो या चम्बल संसद या अरवरी संसद। अरावली बचाओ अभियान, हिमालय रिवर बेसिन काउंसिल, तरूण भारत संघ हो सभी सामुदायिक जागरूकता के काम को बड़ी तत्परता से कर रहे है। स्वीडन में हाल ही में सुखाड़ बाढ़ से मुक्ति की युक्ति का आव्हान हुआ है। पीपुल्स वर्ल्ड कमीशन ऑन ड्राउट एंड फ्लड के नाम से विश्व मंच बने है। कोटा को भी इस काउंसिल में प्रतिनिधित्व मिला है जो कि चम्बल के लिए श्रेष्ठ होगा।

आश्चर्य है कि नदियों और उनके जनक पहाड़ों को बचाने के लिए स्वामी सानंद (वैज्ञानिक जीडी अग्रवाल) एवं विजयादास जैसे संतों को आत्म दाह करना पड़ रहा है। राजस्थान में तो सत्तादल के विधायक भरत सिंह को भी आत्मदाह की चेतावनी देनी पड़ी लेकिन सरकार ने खनन बंद करने की घोषणा नहीं की। हम हर साल गंगा दशहरा पर गंगा अवतरण दिवस भी मनाते हैं फिर भी नदियों को बचाने का भाव समाज और शासन के स्तर पर नगण्य ही रहा है। जहां जीवन दायिनी नदियां खुद बीमार हों वहां के लोग कैसे स्वस्थ रह सकते है?
नदियों को गंदा नाला बनानें में आमजन पीछे नहीं हैं। नदियों के किनारे वाले गांवों, नगरों के लोग नदी में अपशिष्ट डालते रहते हैं,यहां तक कि मरे हुए पशुओं को भी नदी की धारा में प्रवाहित कर देते हैं। गन्दे नालों की शरण स्थली हमारी नदियां ही है। कोटा नगर में चंबल नदी के तट पर करोड़ों की लागत से रिवर फ्रंट का निर्माण चल रहा है इसे पर्यटन की दृष्टि से विकसित किया जा रहा है। जब पर्यटकों की भीड़ होगी तो लोग खानपान की वस्तुओं , पैकिंग मैटीरियल आदि को नदी में प्रवाहित करेंगे इससे जलघरों में प्रदूषण जनित रोग फैलेगा, क्योंकि सरकारी तंत्र में निर्माण का बजट होता है लेकिन रखरखाव के नाम पर कर्मचारियों की नियुक्ति तथा सफाई व मरम्मत का बजट नहीं आता है। शिवपुरा से लेकर केशोरायपाटन तक चंबल नदी के दोनों छोर पर कई दर्जन गंदे नाले हजारों टन गंदगी, प्रवाहित कर रहे हैं। इन गंदे नालों की रोकथाम के लिए,एक भी कारगर उपाय प्रशासन अथवा आम जन की ओर से नहीं किए गए हैं। यही नहीं चंबल तक पर कोटा के अनेक देवालय है इनसे निकलने वाली पूजा सामग्री भी चंबल की भेंट चढ़ रही हैं , लेकिन इन्हीं देवालयों की ओर से चंबल मियां की आरती उतारने का उपक्रम भी किया जाता है, यह चिंता जनक है। आस्थाके नाम पर नदियों को प्रदूषणमुक्त बनाना हम सब की जिम्मेदारी है।