
-देशबन्धु में संपादकीय
भारतीय राजनीति से दो दिनों में दो कद्दावर नेताओं का निधन बड़ी शून्यता कायम कर गया है। 4 अगस्त को शिबू सोरेन का निधन हुआ और 5 अगस्त को सत्यपाल मलिक का। श्री सोरेन और श्री मलिक दोनों की राजनीति के तौर-तरीके अलग थे, दल अलग थे, विचारधारा अलग थी। लेकिन मिज़ाज दोनों का एक ही तरह का था, जुझारू, अक्खड़पना, जमीन से जुड़ाव और गांधी की भाषा में कहें तो अंतिम पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति की फ़िक्र दोनों नेताओं की राजनीति के केंद्र में रही। शिबू सोरेन आदिवासियों के बड़े नेता थे, उन्हें झारखंड के लोग केवल दिशोम गुरु (समाज का गुरु) ही नहीं कहते हैं, बल्कि भगवान की तरह मानते हैं। सत्यपाल मलिक का जनाधार बेशक शिबू सोरेन की तरह नहीं रहा, लेकिन उन्होंने भी गरीब, वंचित पीड़ित लोगों के हितों को तरजीह दी। इन दोनों नेताओं में सबसे बड़ी समानता यह रही कि सत्ता के साथ रहते हुए जी हुजूरी नहीं की और सत्ता के ख़िलाफ़ रहे तो खौफ नहीं खाया।
साल 1944 में अविभाजित बिहार के हजारीबाग में जन्मे शिबू सोरेन के संघर्ष की शुरुआत अल्पायु में ही हो गई थी। उनके पिता सोबरन सोरेन की हत्या कर दी गई, क्योंकि उन्होंने आदिवासी इलाकों में फैले महाजनों के आतंक के खिलाफ आवाज़ उठाई थी। पिता के संघर्ष को आगे बढ़ाते हुए शिबू सोरेन ने भी महाजनी प्रथा के खिलाफ़ आवाज़ उठाई और धान कटनी आंदोलन चलाया। उन्होंने आदिवासियों को जागरूक किया कि धान लगाने वाला ही धान काटेगा और इस पर महाजनों का कोई अधिकार नहीं है। 70 से 80 के दशक में ये आंदोलन बहुत बड़ा हो गया, इसने झारखंड के किसानों, कामगारों और काश्तकारों को एकजुट किया, आदिवासियों को शोषण के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत दिलाई। इसी वजह से शिबू सोरेन को झारखंड के लोगों ने दिशोम गुरु की उपाधि दी। कई सालों तक शिबू सोरेन ने आदिवासियों के लिए रात्रि पाठशाला चलाई ताकि दिन भर अपना-अपना काम निपटाने के बाद आदिवासी पढ़ पाएं। शिक्षा के अलावा शराब और नशे से आदिवासियों को दूर करने की कोशिश भी शिबू सोरेन ने की। 1980 में पहली बार सांसद बनने के बाद जब उन्होंने संसद में भाषण दिया तो शराब के विरोध में बोले।
शिबू सोरेन ने सामाजिक सुधार के साथ 1973 में राजनीति में कदम रखा, विनोद महतो और काॅमरेड एके राय के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की। अविभाजित बिहार में प्राकृतिक संसाधनों का खजाना लिए दक्षिण के 26 जिलों को मिलाकर एक झारखंड राज्य बने, ऐसी कल्पना उन्होंने की। लंबे संघर्ष और राजनैतिक उठापटक के बाद आखिरकार 2000 में झारखंड राज्य बना, साथ में छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड भी बने। हालांकि झारखंड निर्माण के बाद कई बार राजनैतिक अस्थिरता बनी। इस दौरान शिबू सोरेन कभी लोकसभा, कभी राज्यसभा, कभी विधानसभा के सदस्य बनते रहे। विभिन्न दलों के साथ उनके वैचारिक, सैद्धांतिक टकराव हुए। दिल्ली की सत्ता पर बैठे लोगों के साथ उन्होंने समझौते भी किए, लेकिन इन सबके बीच आदिवासियों के हितों के उद्देश्य से गुरुजी एक बार भी नहीं भटके। आठ बार लोकसभा सांसद, दो बार राज्यसभा सांसद, दो बार विधायक बनने वाले शिबू सोरेन ने केन्द्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री जैसे पद संभाले, हालांकि कई तरह के मामले-मुकदमों और राजनैतिक उठापटक में वे अपना कार्यकाल कभी पूरा नहीं कर पाए। आज जब सत्ता पर किसी भी तरह बैठना ही कई नेताओं का अंतिम लक्ष्य बन गया है, तब शिबू सोरेन जैसे नेताओं के जीवन को याद करना चाहिए, जिन्होंने सत्ता से पहले नागरिकों का ख़्याल रखा।
सत्यपाल मलिक का भी राजनीतिक जीवन पांच दशक लंबा रहा। 1968-1969 में छात्र राजनीति से शुरुआत करते हुए श्री मलिक किसान नेता चौधरी चरण सिंह के करीब आए और 1974 में चुनावी राजनीति में उतरे। बागपत से विधानसभा का चुनाव जीतकर पहली बार विधायक बने। इसके बाद वे चौधरी चरण सिंह के साथ ही लोक दल में शामिल हो गए, उन्हें पार्टी का महासचिव बनाया गया। सत्यपाल मलिक 1980 में लोक दल की ओर से ही राज्यसभा पहुंचे। 1984 में वे कांग्रेस में शामिल हो गए थे। कांग्रेस ने उन्हें 1986 में एक बार फिर राज्यसभा पहुंचाया। बोफ़ोर्स मामला उठने के बाद श्री मलिक वी पी सिंह के नेतृत्व वाले जनता दल में शामिल हुए, 1989 में सांसद बने और केन्द्रीय राज्य मंत्री भी। इसके बाद 2004 में सत्यपाल मलिक भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गये।
राजनीतिक उथल-पुथल, सत्ता के खेल – इन सबको श्री मलिक ने करीब से देखा, कई बार उनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर शामिल हुए। जिस पार्टी के साथ रहे, उससे मतभेद भी हुआ। लेकिन भाजपा में नरेन्द्र मोदी का शासनकाल शुरु होने पर जिस तरह उनके मतभेद सामने आए, वे सर्वाधिक चर्चित हुए। पुलवामा हमले पर मोदी सरकार ने उन्होंने जो हमला बोला, उसकी काफ़ी चर्चा हुई। सत्यपाल मलिक द्वारा किये गये खुलासे के मुताबिक उन्होंने सरकार से कहा था कि जवानों को हवाई मार्ग से भेजा जाना चाहिए, लेकिन उनकी सलाह नहीं मानी गई। इसके अलावा उन्होंने सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाए। इससे पहले किसान आंदोलन, महिला पहलवानों का जंतर-मंतर पर धरना, अग्निवीर पर फ़ैसला, भूमि अधिग्रहण विधेयक इन सब पर उन्होंने मोदी सरकार की मुखालफ़त की। मेघालय, गोवा, बिहार, जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहते हुए भी श्री मलिक ने कभी सत्ता की जी हुजूरी नहीं की, बल्कि जो गलत लगा, खुलकर उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाई।
अपने अंतिम दिनों में भी सत्यपाल मलिक का संघर्ष जारी रहा। उन पर सीबीआई की जांच सरकार ने बिठाई थी। जिस पर अस्पताल से लिखी एक पोस्ट में सत्यपाल मलिक ने लिखा- मैं सरकार को और सरकारी एजेंसियों को बताना चाहता हूं कि मैं किसान कौम से हूं, मैं ना तो डरने वाला हूं ओर ना ही झूकने वाला हूं।क्षसरकार ने मुझे बदनाम करने में पूरी ताकत लगा दी, हालांकि सच्चाई तो यह है कि 50 साल से अधिक लंबे राजनीतिक जीवन में बहुत बड़े-बड़े पदों पर देशसेवा करने का मौका मिलने के बाद आज़ भी मैं एक कमरे के मकान में रह रहा हूं ओर कर्ज़ में भी हूं। अगर आज मेरे पास धन दौलत होती तो मैं प्राइवेट हॉस्पिटल में इलाज करवाता।