सीरिया में तख़्तापलट

-देशबन्धु में संपादकीय 

हाल के बरसों में तख़्तापलट का सामना कर चुके देशों में अब सीरिया का नाम भी जुड़ गया है। सीरिया में बशर अल असद के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए संकल्परत विद्रोही गुट हयात तहरीर अल शाम (एचटीआई) ने पिछले हफ्ते से अपने अभियान को तेज करते हुए अलेप्पो, हमा, होम्स और दारा जैसे प्रमुख शहरों पर अपना कब्ज़ा जमाया। रविवार को राजधानी दमिश्क पर क़ब्ज़े के साथ ही तय हो गया कि सीरिया में असद परिवार के 50 बरस पुराने शासन का अंत हो गया है। बताया जा रहा है कि बशर अल असद अपने परिवार के साथ विमान से किसी अज्ञात ठिकाने की तरफ चले गए हैं, उनके बारे में कोई पुख़्ता जानकारी नहीं दी जा रही है। इस बीच सोशल मीडिया पर असद के विमान के लापता होने या दुर्घटनाग्रस्त होने की चर्चाएं भी तेज हैं। विद्रोही सीरिया को अब आज़ाद देश कह रहे हैं। मिलिट्री ऑपरेशंस कमांड ने टेलीग्राम पर एक पोस्ट में लिखा, ‘हम तानाशाह बशर अल-असद से दमिश्क शहर को आजाद घोषित करते हैं। दुनिया भर में विस्थापित हुए सभी लोगों के लिए एक आज़ाद सीरिया आपका इंतज़ार कर रहा है।

सीरिया के प्रधानमंत्री मोहम्मद गाजी अल-जलाली ने रविवार सुबह पहले से तैयार किए गए एक संदेश में कहा कि सरकार लोगों की ओर से चुने गए किसी भी नेतृत्व के साथ सहयोग करने के लिए तैयार है। उन्होंने सीरियाई लोगों से सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान न पहुंचाने की अपील करते हुए कहा कि यह सभी नागरिकों की है। उन्होंने कहा, ‘मैं यहां अपने घर में हूं, कहीं नहीं गया और न ही इसे छोड़ने का इरादा है। इस बयान से जाहिर है कि प्रधानमंत्री विद्रोहियों की शर्तों को मानने और उन्हें सत्ता सौंपने के लिए तैयार हैं। इधऱ विद्रोही गुट एचटीआई के नेता अबू मोहम्मद अल-जुलानी ने भी विद्रोही बलों से राज्य के संस्थानों को नुकसान न पहुंचाने का आह्वान किया है। हालांकि दमिश्क में सड़कों पर जिस तरह टैंकों और बंदूकों के साथ विद्रोही ताक़त दिखा रहे हैं, उससे अभी फौरन हालात सामान्य होने के आसार नहीं दिख रहे हैं।

2011 के अरब बसंत में कई देशों में तख्तापलट हुए, तीन-चार दशकों से राज कर रहे तथाकथित तानाशाहों को लोकतंत्र की मुहिम के नाम पर उखाड़ फेंका गया। होस्नी मुबारक़, कर्नल गद्दाफ़ी जैसे शासकों की सत्ता का अंत हुआ और यही सफलता सीरिया में प्राप्त करने की कोशिश की गई। लेकिन बशर अल असद को गद्दी से उतारने में 13 बरसों का लंबा इंतजार करना पड़ा। अरब बसंत के दौरान सीरिया में विद्रोहियों को बशर अल असद ने पूरी ताक़त से कुचला था। हालांकि उन्हें सत्ता संभाले दस साल ही हुए थे और उनका राजनैतिक नजरिया तानाशाहों से बिल्कुल अलग था।

11 सितम्बर, 1965 को जन्मे बशर अल असद की पारिवारिक पृष्ठभूमि राजनीतिक थी, उनके पिता हाफिज़ अल असद 1971 में सीरिया के राष्ट्रपति बने और 2000 तक इस पद पर रहे। लेकिन बशर अल असद ने राजनीति की जगह डॉक्टरी की राह चुनी। वे लंदन में नेत्र चिकित्सा की पढ़ाई कर रहे थे। जनवरी 1994 में उनके बड़े भाई बासेल की मौत हुई, जिन्हें स्वाभाविक तौर पर अगला राष्ट्रपति माना जा रहा था। बड़े भाई की मौत के बाद बशर राजनीति में आए और अपने पिता की मौत के बाद 2000 में बशर ने राष्ट्रपति पद की शपथ ली। सत्ता संभालते वक्त उन्होंने ‘पारदर्शिता, लोकतंत्र, विकास, आधुनिकीकरण की बातें कीं। थोड़े वक़्त के लिए ही सही लेकिन सीरिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, नागरिक आज़ादी जैसी बातों के लिए जगह बनी, इसे ‘दमिश्क स्प्रिंग’ कहा गया। मगर यह बसंत भी जल्द ही गुजर गया और फिर अपने निकट देशों में बन रही विपरीत परिस्थितियों के कारण बशर अल असद ने भी दमन की राह पकड़ी। ईराक पर अमेरिकी हमला, लेबनान के जरिए सीरिया को नियंत्रित करने की अमेरिकी चाल, अरब बसंत, इराक में इस्लामिक स्टेट का उभार, गज़ा पर इजरायली हमला बीते डेढ़ दशक की इन तमाम घटनाओं ने बशर अल असद को उनकी राजनैतिक सोच से बिल्कुल उलट काम करने के लिए मजबूर किया।

पश्चिमी ताकतों का मुकाबला करने के लिए हिज्बुल्ला का साथ सीरिया को मिलता रहा। लेकिन फिलीस्तीन को तबाह करने के साथ-साथ इज़रायल ने हिज्बुल्ला के भी शीर्ष नेताओं को मार गिराया है, लिहाजा इस बार सीरिया का साथ देने की ताकत हिज्बुल्ला में भी नहीं बची। ईरान का भी यही हश्र हुआ है। वहीं रूस भी यूक्रेन युद्ध में उलझा है, तो इस बार उसकी मदद भी सीरिया को नहीं मिली। बशर अल असद ने अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से मदद मांगी थी, लेकिन उन्हें निराशा मिली। ट्रम्प ने पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया है। साथ ही उन्होंने इसके पीछे रूस को भी जिम्मेदार बताया। ट्रम्प ने कहा, यह हमारी लड़ाई नहीं है। अमेरिका को इस संघर्ष में शामिल नहीं होना चाहिए। सीरिया अमेरिका का दोस्त नहीं है।

अमेरिका की प्राथमिकताएं बिल्कुल साफ़ हैं कि जहां उसे आर्थिक या सामरिक फायदा होगा, वहां वह बिना किसी बुलावे के भी पहुंच जाएगा और लोकतंत्र का हवाला देकर दखलंदाजी करेगा। लेकिन जहां उसे कोई लाभ नहीं मिलना, वहां वह आंखें मूंद लेगा। तो फिलहाल अमेरिका ने सीरिया को उसके हाल पर छोड़ दिया है। रविवार को राजधानी दमिश्क से वैसे ही नजारे देखने मिले, जैसे हाल में अफ़ग़ानिस्तान, श्रीलंका या बांग्लादेश में दिखे थे। विमानतल पर भगदड़ है, लोग सुरक्षित बाहर निकलना चाहते हैं, वहीं बहुत से लोग आज़ादी का जश्न मनाते सड़कों पर आ गए हैं। इधर राष्ट्रपति भवन पर कब्जा करना, वहां की चीजों को लूटना, तोड़-फोड़ करना, यह सिलसिला भी चल रहा है।

असद परिवार के शासन का दुखद अंत सीरिया में हुआ है, लेकिन क्या इसके बाद सुख और शांतिमय भविष्य यहां के नागरिकों को मिलेगा, क्या जो नयी सत्ता स्थापित होगी, उसका स्वरूप लोकतांत्रिक होगा, क्या महाशक्तियों के दबाव में आए बिना किसी सरकार का गठन होगा, इन महत्वपूर्ण सवालों के जवाब का इंतज़ार रहेगा।

 

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