
स्वास्थ्य से जुड़ी लोकोक्तियां
-मनु वाशिष्ठ-

प्राचीन समय से ही दैनिक जीवन में #स्वास्थ्य से जुड़ी #लोकोक्तिया या बातें, पुराने चिकित्साविद् इस्तेमाल में लाते रहे हैं। लोकोक्तियों/ मुहावरों में ही एसी गूढ़ बातें कह दी गई हैं, कि उनको यदि दैनिक प्रयोग में लाया जाय तो कई रोगों से कोसों दूर रहा जा सकता है। ये सारे नुस्खे हालांकि आयुर्वेद के पुराने ग्रन्थों से ही लिए गए हैं, पर घर में बुजुर्गों द्वारा आपस की बोलचाल में मुहावरों (कविताई ढंग) से बता दिया करते थे। पुराने समय में यह सब किसी पढ़ाई का नहीं #दिनचर्या का हिस्सा था। छोटी मोटी बीमारियों के लिए तुरंत डॉक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं होती थी।
पेट को रखो नरम,और पैर को रखो गरम।।
सिर को रखो ठंडा,यही है सेहत का फंडा।।
नींबू आधा काटिये,कालीमिर्च,सेंधानमक मिलाय
भोजन प्रथमहि चूसिये,अजीर्णता मिट जाय।
पीवै मट्ठा, है जाये लट्ठा।
भोर ही मठा पियत,जीरा नमक/ गुड़ मिलाय,
बल और बुद्धि बढ़त है,सबै रोग जरि जाय।
#गांधीजी ने भी कहा है। धैर्य के लिए आज भी यह शतप्रतिशत सही है__
#जैसे कम खाना गम खाना ,
डॉक्टर वकील के पास क्यों जाना।
कम खाना और गम खाना,दो बड़े ये योग।
गम खाये बैरी (शत्रुता)कटै, कम खाये तन रोग।।
रोग की जड़ खांसी,झगड़े की जड़ हांसी।
भोजन के तुरन्त बाद तेजी से न चलने के लिए, सहज तरीके से बताया गया है__
खाके जल्दी चलिए कोस,
मरिये आप देव को दोष।
#एक बार खाये योगी,
दो बार खायेभोगी,
और बार बार खाये रोगी।
संतुलित भोजन ही मनुष्य को जिन्दा रखता है, और असंतुलित भोजन ही मनुष्य के रोग का कारण बनता है। संतुलित आहार के लिए बुजुर्गों ने कहा है__
#अन्न ही तारे,अन्न ही मारे।
कभी घी घना, कभी मुट्ठी चना,
और कभी वह भी मना।
खाये चना,रहे बना।
घी दूध खाय के खोपड़ी,
भुला दे सबकी हेकड़ी।
हरड़,बहेड़ा आंवला,घी शक्कर में खाय,
हाथी दाबे कांख में,साठ कोस ले जाय।।
जो नियमित तौर पर सुबह त्रिफला का सेवन घी, शक्कर या शहद के साथ करता है, वह अति शक्तिशाली बन जाता है।
दांत की मजबूती और सवेरे जल के महत्व के लिए कहा है__
जब तक दांत, तब तक आंत।
मोटी दातुन जो करे,नित उठ हरड़ खाय,
बासी पानी जो पिए,ता घर वैद्य न जाय।
अधिक गर्म जो पेय पिए,अथवा भोजन खाय,
वृद्धावस्था के प्रथम ही,बत्तीसी झड़ जाय।
घूंट घूंट पानी पियें, रहें तनाव से दूर।
एसीडिटी,या मोटापा होवे चकनाचूर।
वात रोग या हर्निया,अपेंडिक्स का त्रास,
पानी पीजे बैठ कर, कभी ना आवे पास।
प्रातः कल पानी पियें, घूंट घूंट कर आप।
बस दो तीन गिलास है, हर औषधि का बाप।
जो नित आंवला खात है,प्रातः पियत पानी,
कबहुँ न मिलिहे वैद्य से,कबहुँ न जय जवानी
देर रात तक जागना,रोगों का जंजाल,
अपच,आँख के रोग,तन भी रहे निढ़ाल।
नित भोजन के अंत में,तोला भर गुड़ खाय,
अपच मिटे,भोजन पचे,कब्जियत मिट जाय।
भोजन करके खाइये,सौंफ,गुड़,अजवायन।
पत्थर भी पच जायगा,जाने सकल जहान।
फल या मीठा खाय के,तुरत न पीजे नीर।
ये सब छोटी आंत में बनते विषधर तीर।
घी,अलसी,नारियल,तिल, सरसों का तेल।
यही खाइये नहीं तो दिल समझिए फेल।
चोकर खाने से सदा बढ़ती तन की शक्ति।
गेंहू मोटा पीसिये, दिल में बढ़े विरक्ति।
रोज मुलहठी चूसिये,कफ बाहर आ जाये।
बने सुरीला कण्ठ भी,सबको लगत सुहाय।
अल्युमिनम के पात्र का करता जो उपयोग।
आमन्त्रित करता सदा, वह कई तरह के रोग।
जाऊँ कि ना जाऊँ, जाना ही उचित।
खाऊं कि ना खाऊं,ना खाना ही उचित।।
अर्थात शौच जाने पर मन में दुविधा हो, तो जाना ही चाहिए। तथा भोजन की मन में दुविधा हो तो न खाना ही उचित है।
*प्रातःकाल एवं संध्या के समय पतिपत्नी का साथ मृत्युतुल्य होता है, इसका प्रमाण कई जगह दिया गया है। इसे राक्षसी कृत्य भी कह सकते हैं। एक राजस्थानी के दोहे में__
सूखो फल, बूढ़ी त्रिया, कन्या रवि को धूप।
प्रातःमैथुन, सांझ दधि, पांचो कालसरूप।।
*अर्थात सूखा, बासी भोजन करना, अपने से अधिक उम्र की स्त्री से, तथा प्रातः काल या दिन में सहवास करना, कन्या राशि में जब सूर्य #आश्विन मास (क्वार के महीने) में संक्रमण करता हो, तो उस धूप में बैठना, संध्या या रात्रि समय दही से भोजन करना, ये सब साक्षात #मृत्यु के कारक होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रातः काल धर्मकाल होता है, दिन अर्थकाल होता है रात्रि कामकाल होती है, और महानिशा यानी संध्या, पूजन के लिए होती है। यह समय सहवास के लिए उपयुक्त नहीं है। इस काल में सहवास करने से संतान राक्षसी प्रवृत्ति की होती है। इसका मुख्य उदाहरण महर्षि कश्यप की संतान #हिरण्यकश्यप का सबसे सही सटीक उदाहरण है।
__ मनु वाशिष्ठ कोटा जंक्शन राजस्थान
गागर में सागर, ज्ञान का अद्भुत संकलन पस्तुत किया है आपने । एक बार पुनः साधुवाद