-मनु वाशिष्ठ-

एक पत्र, सुनो स्त्री!
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता। संपूर्ण भारत में स्त्रियों को बहुत ऊंचा स्थान प्राप्त है, आज जो स्त्रियों की स्थिति है उसके लिए कहीं ना कहीं तुम भी जिम्मेदार हो। आधी आबादी! तुम इस धरती पर आधी आबादी की #पूर्ण स्वामिनी हो। जब तुम अपने आप में बहुत कुछ संपूर्ण श्रेष्ठ हो, खुद को कमजोर क्यों समझती हो। तुम प्रेम की पराकाष्ठा हो, तुम स्वयं दुर्गा की शक्ति वाली, किसी कवि की कलात्मक अभिव्यक्ति, लेखक की प्रेरणा, सौंदर्य की मूरत, प्रेम, धैर्य, त्याग जैसे गुणों की खान हो, फिर भी सहारे के लिए अपना सिर रखने के लिए किसी के कंधे क्यों तलाशती रहती हो। तुम्हारी (नारी #शक्ति रूप में) अपनी पहचान है, फिर पुरुषों की बराबरी की होड़ में जाम से जाम टकरा, धुआं उड़ा रही हो। और आजकल रोजाना फेसबुक पर नित नए पोज, स्टाइल में, सुंदर दिखने की कोशिश में (कई बार #बचकाने) फोटो अपलोड करती रहती हो, डी पी बदलती रहती हो, ये सब क्या है … हर समय सुंदर दिखना ही जिंदगी का मकसद है क्या? हर समय क्यों चाहती हो कि सब तुम्हारे सौंदर्य की ही प्रशंसा करते रहें। सांचे में ढला शरीर, अपने गोरे रंग पर इतराना, इसमें तुम्हारा क्या योगदान है? ये सारी हरकतें तुम्हारी आंतरिक कमजोरी को हवा दे रहे हैं। क्या तुम्हारे अंदर आत्मविश्वास की कमी है, अगर है तो अपना बौद्धिक स्तर, आत्मविश्वास को बढ़ाओ। किसी की बेटी, किसी की पत्नी, किसी की मां, गोरा रंग, सांचे में ढला शरीर, पुरुषों को आकर्षित करने के लिए सजी धजी गुड़िया बनी रहना, इसके अलावा क्या पहचान है, तुम्हारी इस समाज में? अपने किरदार को कुछ ऐसा बनाओ, अपने अंदर कुछ ऐसा पैदा करो कि तुम अपना #परिचय अपने नाम से दो। यह धरती, यह आसमान, सबके लिए #समान रूप से धूप, हवा, पानी देती है, फिर तुम क्यों भेदभाव करती हो? इस आबादी को #पोषण देने हैं या #शोषण करने में भी तुम्हारा बराबर का योगदान है, गेंद दूसरे पाले में फेंक देने से बात नहीं बनेगी। रोना गिड़गिड़ाना बंद करो, जब आप दूसरे को दोष दे रहे होते हैं, तब कहीं ना कहीं अपनी कमियों को भी छुपा रहे होते हैं। ईश्वर ने तो सबको समान रूप से सक्षम बना कर भेजा है, फिर तुम क्यों भेद भाव रखती हो। या तुम भी इसी को भाग्य मान कर चल रही हो। स्वयं को कमजोर, बेचारी साबित कर सहानुभूति बटोरना भी एक प्रकार की #मानसिक बीमारी ही है, और तुम्हें बीमार नहीं रहना है …. ऑफिस में सहयोगी हो या बॉस की बदतमीजियां, या घर पर शादी के बाद पति को ढंग से जान भी नहीं पाती हो और उस के मुंह से शराब के भभके तथा पीठ पर पड़ने वाले लात, घूंसों का मुकाबला तुम्हें और सिर्फ तुम्हें ही करना है। ससुराल को #यातना गृह मत बनने दो। ना तो दूसरों को आहत करो, ना ही दूसरों के #वाक् बाणों से स्वयं को छलनी होने दो।
उठो ओ स्त्री! आधी आबादी! तुम्हें बोनसाई नहीं बनना है, विस्तृत हो जड़ों को फैलने दो। फिर दुनिया देखेगी तुम्हारे रूप/फूल, कौशल/फल, सामर्थ्य/श्रेष्ठता को। क्यों? एक ओर तो स्वतंत्रत सोच की आड़ में नग्न सड़कों पर दौड़ने को भी तैयार हो तो दूसरी ओर ज्ञान प्राप्ति के लिए भी स्वयं को लबादे में बंद करने को तैयार हो जाती हो। नुकसान किसका होगा, तुम क्या बस इशारों पर नाचने वाली कठपुतली बन आत्ममुग्धा सी खुश होना पसंद करती हो? तुम कहां किसी से कम हो, बराबरी वाली दुनिया में तुम हर चीज में श्रेष्ठ हो। बस अपने भूले हुए स्वरूप को याद करने की जरूरत है।
__मनु वाशिष्ठ, कोटा जंक्शन राजस्थान