
#सर्वमित्रा_सुरजन
कई चुनौतियों के बीच केरल के वरिष्ठ साम्यवादी नेता मरियम एलेक्जेंडर बेबी को देश के सबसे बड़े वामपंथी दल- कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्किसस्ट) ने रविवार को अपना नया महासचिव नियुक्त किया। पिछले वर्ष 12 सितम्बर को सीताराम येचुरी के निधन के बाद से यह पद रिक्त था जो उन्होंने लगभग 9 साल तक सम्हाला था। तमिलनाडु के मदुरै में सम्पन्न पार्टी के 5 दिवसीय सम्मेलन के अंतिम दिन उन्हें यह पद दिया गया। उनके खिलाफ खड़े महाराष्ट्र के ट्रेड यूनियन नेता डीएल कराड़ को सिर्फ 31 वोट मिले। सीपीआई (एम) की केरल शाखा से पार्टी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पद सम्हालने वाले वे दूसरे नेता हैं- दिग्गज ईएमएस नंबूदरीपाद के पश्चात। पार्टी द्वारा हाल ही में 75 साल की उम्र सीमा का नियम लागू करने के बाद पूर्व महासचिव प्रकाश करात, वृंदा करात, सूर्यकांत मिश्रा, सुभाषिनी अली, माणिक सरकार और जी. रामकृष्णन जैसे वरिष्ठ नेता पोलित ब्यूरो से बाहर हो गये थे। केवल 79 वर्षीय केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन को रणनीतिक कारणों से रखा गया है। पोलित ब्यूरो में 8 नए सदस्य शामिल हुए, वे हैं- त्रिपुरा विधानसभा में विपक्ष के नेता जितेंद्र चौधरी, तमिलनाडु के पूर्व सीपीएम सचिव के. बालाकृष्णन व ट्रेड यूनियन नेता यू. वासुकी, सीकर (राजस्थान) के सांसद अमरा राम, श्रीदीप भट्टाचार्य (पश्चिम बंगाल), अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव विजू कृष्णन, अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ की महासचिव मरियम धावले और पूर्व छात्र नेता आर. अरुण कुमार।
येचुरी के मुकाबले बेबी को वैचारिकी के स्तर पर अनुदार नेता माना जाता है। छात्र राजनीति (स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया) से मुख्य धारा की राजनीति में आने वाले बेबी को आपातकाल में छात्रों व युवाओं को संगठित करने के कारण जेल भी जाना पड़ा था। वे केरल के शिक्षा मंत्री रहे तथा लोकसभा सदस्य भी रहे। वे ऐसे वक्त में पार्टी का यह अहम पद सम्हाल रहे हैं जब कई तरह की चुनौतियां सामने हैं। ये चुनौतियां संगठनात्मक हैं तो वहीं विधानसभा-लोकसभा में घटता प्रतिनिधित्व भी। इसके साथ ही राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक मोर्चों पर उसका कम होता हस्तक्षेप भी दल के लिये चिंता का विषय है। पिछले 11 वर्षों से भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने जिस प्रकार से दक्षिणपंथी विचारधारा को देश भर में फैलाया है, उसका माकूल जवाब देने में वामपंथी दल लगातार नाकाम साबित हो रहे हैं। ऐसा केवल सीपीएम ही नहीं वरन देश के दूसरे बड़े साम्यवादी दल कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) के बारे में भी कहा जा सकता है। फिर, दोनों दलों के बीच एकता की आशा तो दूर, अब देखना होगा कि क्या तालमेल भी सम्भव है। जो वाम मोर्चा 2004 में बनी कांग्रेस प्रणीत यूपीए सरकार के दौरान मौजूद था, वह अब अस्तित्व में इसलिये भी नहीं है क्योंकि संसद में उसकी उपस्थिति क्षीण है। याद हो कि 2004 में इसे 44 सीटें मिली थीं। आज वह 4 पर सिमटी हुई है। इनमें भी तीन उसे सहयोगी दलों के सहयोग से हासिल हो सकीं।
पश्चिम बंगाल में लगभग तीन दशक तक सरकार चलाने के बाद वहां तृणमूल कांग्रेस व भाजपा ने उसका पूर्ण सफाया कर रखा है। यहां उसका लोकसभा व विधानसभा में एक भी सदस्य नहीं है। त्रिपुरा में ईमानदारीपूर्वक काम करने के बावजूद 2023 में उसकी सरकार जाती रही। हालांकि वहां वह मुख्य विपक्षी दल है। उसका एक सदस्य यहां से लोकसभा में है। त्रिपुरा का चुनाव चाहे दूर हो लेकिन पश्चिम बंगाल का चुनाव अगले साल ही है। दोनों ही राज्यों में पार्टी को अपना संगठन मजबूत करते हुए चुनावी तैयारियां प्रारम्भ करनी होंगी। खासकर, प. बंगाल में पहले। बेबी के अपने गृह प्रदेश केरल में ज़रूर माकपा सरकार है लेकिन वहां कांग्रेस का जनाधार बढ़ रहा है। खासकर, वहां की वायनाड सीट से प्रियंका गांधी ने जैसी बड़े अंतर वाली जीत हासिल की, उससे साफ है कि यहां कांग्रेस की भी उसे चुनौती मिलेगी। यहां लेफ्ट डेमोक्रेटिक गठबन्धन की सरकार है जिसका नेतृत्व सीपीएम करती है। केरल में भी अगले वर्ष के मध्य में विधानसभा चुनाव हैं। सत्ता को बनाये रखना चुनौती है। यहां से भाजपा का एक सदस्य भी पिछले लोकसभा चुनाव में जीतकर आया है जो बताता है कि एक और नयी राजनीतिक शक्ति यहां उभर रही है जिसका आंशिक खतरा सीपीएम को है।
मदुरै सम्मेलन में तय किया गया है कि केरल के वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) की ही तज़र् पर वह अन्य जगहों पर सरकार बनाने की कोशिश करेगा। इसका अर्थ है कि कांग्रेस से उसका कोई चुनावी गठबन्धन होने से रहा। यह भी बड़ी चुनौती महासचिव के समक्ष होगी।
एक वक्त था जब छात्रों, असंगठित श्रमिकों, संगठित कर्मचारियों, किसानों, महिलाओं के बीच सीपीएम का बड़ा काम था। देश में भाजपा की मजबूती के साथ ये संगठन लगातार कमजोर पड़ते गये हैं। उनमें नये प्राण फूंकने तथा उनके जरिये राजनीतिक हस्तक्षेप को बढ़ाना बेबी के लिये नयी चुनौतियां होंगी। सीपीएम ही नहीं, इस दौर में विचारधारा के स्तर पर समग्र साम्यवाद के समक्ष सबसे बड़ी समस्या उसके खिलाफ दक्षिणपंथी दुष्प्रचार है। भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा कांग्रेस के साथ-साथ वामपंथी विचारधारा को सर्वाधिक बदनाम किया जाता है। आईटी सेल और वाट्सएप यूनिवर्सिटी की हर तीसरी-चौथी पोस्ट साम्यवादी विचारधारा के खिलाफ होती है। देश में समानता व धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ फैलाई गयी नफ़रत का शिकार बड़े पैमाने पर साम्यवादी विचारधारा ही हुई है। कांग्रेस के पास तो अपने बचाव के लिये फिर भी कुछ लोग और तथ्य हैं, परन्तु राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो साम्यवादियों का पक्ष रखने के लिये न तो प्रखर प्रवक्तागण हैं और न ही ऐसे जनप्रतिनिधि जो भाजपा व कांग्रेस के बरक्स वामपंथ का पक्ष रख सकें। नये महासचिव को आम जनता से संवाद के नये तरीके अपनाने होंगे। अन्य दलों के मुकाबले उसका प्रचारतंत्र कमजोर है। सर्वहारा के लिये मौजूदा दुश्वारियों के इस दौर में देखना होगा कि बेबी सीपीएम और वाम विचारधारा के लिये उम्मीद बनते हैं या नहीं?
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)