
-ए एच जैदी-
(नेचर प्रमोटर)
आज हम इस बात को नहीं समझ रहे हैं कि कौवे समेत हमारे आस-पास मौजूद पक्षी पर्यावरण के लिए कितने जरुरी हैं। जबकि यह हकीकत है कि एक समय घर-घर नीम के पेड़ हुआ करते थे और उन पर सभी प्रकार के घरेलू पक्षियों का बसेरा होता था। घरेलू चिडिय़ा, फाख्ता, कौवे इन पेड़ों पर घोंसले बनाते थे।

उस समय न टेलीफोन थे न मोबाइल। लेकिन जब कौवे छत पर कांय-कांय करते तो हमारी दादी कहतीं, आज मेहमान आने वाले हैं। और उनकी यह बात सच भी साबित होती थी। मोर, कबूतर, कोयल व कौवे का राजस्थनी गीतों व साहित्य में बहुत वर्णन है। महलों में बने चित्रों में भी इन पक्षियों की झलक दिखाई देती है। आज उन्हीं कौवे को श्राद्ध पक्ष में भोजन के लिए तलाश किया जा रहा है क्योंकि कौवों को पितृ पक्ष में खास आदर मिलता है।बदलते परिवेश से कौवे अब शहरों को छोड़कर ग्रामीण क्षेत्रों में समूह में सिमट गए हैं। इनकी संख्या कम होती जा रही है। एक समय कौवे काफी हद तक लुप्त हो गए थे। उन्हें जहां सुरक्षित जगह और भोजन मिला नदी, नालों तथा तालाब के किनारे अपना बसेरा बना लिया। लेकिन जब इनकी संख्या बढऩे लगी तो बर्ड फलू का कहर शुरू हो गया। कौवों की घटती संख्या को देखते हुए पर्यावरणविद भी चिंतित हैं। उनका कहना है कि वर्तमान में ही कौवे के सरंक्षण को लेकर कोई उपाय नहीं किए तो यह पक्षी भी विलुप्त हो जाएंगे। लगातार पेड़ों की हो रही अंधाधुंध कटाई, बढ़ते जा रहे कंक्रीट के जंगल का असर पर्यावरण पर तो पड़ ही रहा है, पशु पक्षी भी प्रभावित हो रहे हैं। बदलते खान-पान और खेतों में कीटनाशकों के प्रयोग से आम आदमी के अलावा पशु पक्षियों का जीवन चक्र भी प्रभावित हो रहा है।

इसका सबसे अधिक असर पक्षियों में गौरैया और कौवों पर देखने को मिल रहा है। गौरैया का तो फिर भी संरक्षण करना शुरू कर दिया लेकिन कौवों की जनसंख्या लगातार कम होती चली जा रही है। यही स्थिति रही तो कौवे भी गिद्ध की तरह गायब हो जाएंगे।
कौवों के कम होने के पीछे पेड़ों की कटाई प्रमुख है क्योंकि ये पेड़ों की खोह में ही अपना घोसला बनाते हैं। वहीं खेतों का पानी पीने से उनकी प्रजनन क्षमता प्रभावित हो रही है क्योंकि यह पानी कीटनाशक से प्रभावित होता है। जबकि कौवा पर्यावरण के लिए बहुत ही जरूरी पक्षी है।