
डॉ पी एस विजयराघवन
(तमिलनाडु के वरिष्ठ पत्रकार और संपादक)
देश के दक्षिणी हिस्से का अंतिम जिला कन्याकुमारी समुद्रों की त्रिवेणी हैं। पितरों को तर्पण व पुण्य स्नान समंदर में होता है जिसके लिए देश-विदेश से श्रद्धालु यहां आते हैं। कन्याकुमारी पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के साथ धर्म व अध्यात्म की नगरी है। विश्व में कन्याकुमारी एक मात्र स्थल है जहां देवी की पूजा कन्या के रूप में होती है। स्वामी विवेकानंद ने भी अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस की आज्ञा पाकर रॉक मेमोरियल पर देवी की आराधना व तपस्या की थी।

कहानी व इतिहास
कन्याकुमारी दक्षिण भारत के महान शासकों चोल व चेरन पांड्य के अधीन रहा है। यहां के स्मारकों पर इन शासकों की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। इस जगह का नामकरण कन्याकुमारी पडने के पीछे पौराणिक कथा प्रचलित है। इसके अनुसार भगवान शिव ने असुर बानासुर को वरदान दिया था कि कुंआरी कन्या के अलावा किसी के हाथों उसका वध नहीं होगा। प्राचीन काल में भारत पर शासन करने वाले राजा भरत के आठ पुत्री और एक पुत्र था। भरत ने अपना साम्राज्य अपनी संतानों को नौ बराबर हिस्सों में बांट दिया। दक्षिण का हिस्सा उनकी पुत्री कुमारी को मिला जिन्हें देवी शक्ति का अवतार माना जाता था। कुमारी ने दक्षिण भारत के इस हिस्से पर कुशलतापूर्वक शासन किया। कुमारी शिव से विवाह की इच्छा के कारण उनकी अराधना करती थीं। शिव के राजी होने पर विवाह की तैयारियां होने लगीं। लेकिन दूसरी ओर नारद मुनि चाहते थे कि बानासुर का कुमारी के हाथों वध हो जाए। इस कारण शिव और देवी कुमारी का विवाह नहीं हो पाया। उधर, बानासुर को जब कुमारी की सुंदरता के बारे में पता चला तो उसने कुमारी के समक्ष शादी का प्रस्ताव रखा। कुमारी ने शर्त रखी कि यदि वह उन्हें युद्ध में हरा देगा तो उससे विवाह कर लंेगी। दोनों के बीच युद्ध में बानासुर मारा गया। कुमारी की याद में ही दक्षिण भारत के इस स्थान को कन्याकुमारी कहा जाता है। माना जाता है कि शिव और कुमारी के विवाह की तैयारी का सामान आगे चलकर रंग बिरंगी रेत में परिवर्तित हो गया।
स्थल पुराण
स्थल पुराण के अनुसार बानासुर को वरदान ब्रह्मा ने दिया था। शक्ति और संन्यास का प्रतीक
कुमारी जो स्वयं प्रकृति थी यहां आर्यवर्त के दक्षिणी छोर में आकर बसीं। वह भगवान शिव से परिणय करना चाहती थीं। शिव को सुचिंद्रन से विवाह के लिए आना था। देवर्षि नारद जानते थे कि भद्रकाली और देवी भगवती का रूप कुमारी ही बानासुर का वध कर सकती हैं। अगर उनका विवाह हो गया तो बानासुर का वध संभव नहीं होगा। उन्होंने शिव-शक्ति का विवाह रुकवाने की तरकीब सोची। विवाह ब्रह्म मुहूर्त में होना था। नारद ने मुर्गे का रूप धारण किया और बांग देकर शिव को यह संकेत दिया कि पौ फटने से विवाह का मुहूर्त निकल चुका है। इस वजह से शिव की बारात लौट जाती है। इससे देवी क्रोधित होकर उग्र रूप धारण कर लेती हैं और सबकुछ तहस-नहस करने लगती हैं।
शांत होने के बाद देवी संन्यासिन बन जाती हैं। बानासुर देवी भगवती को पाने की जोर आजमाइश करता है तो देवी उसका वध कर देती हैं। मरते वक्त उसे अपनी गलती का एहसास होता है और बानासुर उसके पापक्षमण की प्रार्थना करता है। उस दिन से देवी यहां कन्या रूप में बसी मानी जाती हैं।
पुराणों में उल्लेख
देवी कन्याकुमारी की पूजा मलयाली नंबूदरी पद्धति से होती है। उनकी आराधना का उल्लेख
वैदिक काल में भी मिलता है। देवी का वृतांत रामायण और महाभारत में तो है ही तमिलों के मूल संगमकालीन साहित्य मणिमेघलै, पुराणानूर, महानारायण व उपनिषद में भी हैं। कन्याकुमारी मंदिर के पास ही ग्यारह पवित्र तीर्थ हैं। कन्याकुमारी का मंदिर 51 शक्तिपीठ में से एक है। जिसका नाम बाला्िबका है। देवी कन्याकुमारी को कात्यायिनी नाम से भी पुकारा जाता है। कंस को चेतावनी देने वाली नवजात कन्या देवी कात्यायिनी ही थीं। उन्होंने चेतावनी दी थी कि वासुदेव और देवकी का आठवां पुत्र ही उसका वध करेगा। मंदिर का प्रमुख उत्सव चैत्र पूर्णिमा का पर्व है और नवरात्र का त्यौहार है।
भरा-पूरा पर्यटन
कन्याकुमारी विश्व के लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में एक है! समुद्री त्रिवेणी पर सूर्योदय
और सूर्यास्त का अलग ही आकर्षण है। देवी के मंदिर के अलावा समंदर में स्थित रॉक मेमोरियल व तिरुवल्लुवर की प्रतिमा प्रमुख आकर्षण हैं। तिरुकुरल की रचनाकार अमर तमिल कवि तिरूवल्लुवर की प्रतिमा 38 फीट ऊंचे आधार पर 95 फीट की है। इस प्रतिमा की कुल उंचाई 133 फीट और वजन 2000 टन है। इस प्रतिमा को बनाने में कुल 1283 पत्थर के टुकड़ों का उपयोग किया गया था। कन्याकुमारी के पास नागरकोईल का नागराज मंदिर, त्रावणकोर महाराजा का पद्मनाभपुरम महल व चौंतीस किमी दूर स्थित उदयगिरि दुर्ग है जहां बड़ी संख्या में पर्यटक जाते हैं।
(आस्था के बत्तीस देवालय पुस्तक से साभार)
(शृंखला के पहले मंदिर की जानकारी)
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