काश तुम देख पाते…

जाने अंजाने ही प्रेमचंद की कहानियों के किरदारों ने हम सभी को एक बेहतर इंसान बनने के लिए भी प्रेरित किया है. और हां कमाल की बात यह भी है कि उस समय की लिखी गई कहानियों के सभी किरदार आज भी समाज में जहां के तहां खड़े हैं , उनकी आर्थिक, सामाजिक स्थिती में लेशमात्र भी कोई परिवर्तन नहीं आया है, वो अलग बात है कि उनको मोहरा बनाकर की गई राजनीति से राजनितिक दलों की स्वयं की आर्थिक, सामाजिक स्थिति पहले से काफी बेहतर हो गई है.

मुंशी प्रेमचंद की जयंती पर विशेष…

-सुजाता ‘सुज्ञाता’-

मुझ जैसी वो पीढ़ी जिनका भारतीय समाज से प्रथम परिचय प्रेमचंद की लिखी कहानियों द्वारा ही हुआ था.
तब न तो न्यूज़ चैनल्स थे और न ही डिजिटल प्लेटफार्म्स कि दुनिया को ,देश को , गाँव को, शहर को समाज को करीब से देख पाते , समझ पाते. स्कूल लाईब्रेरी में सजी अलमारियों के काँच से झांकती किताबें जिन पर सेवासदन, प्रेमाश्रम , रंगभूमि, निर्मला, कायाकल्प, गबन ,कर्मभूमि, गोदान आदि लिखा हुआ रहता था हमारे लिए तब इन शब्दों के मायने समझ पाना मुश्किल हुआ करता था .हम लाईब्रेरी से सप्ताह भर के लिए ईश्यू कराते और अगले हफ्ते के इंतजार में रहते कि कौन सी किताब निकलवाऐंगें. तब एक हफ्ते में केवल ही किताब मिला करती थी बच्चों को. बड़ी नेमत लगा करती थी तब यूं एक अच्छी किताब पढ़ना , क्योंकि आजकल की तरह ये मोबाईल के एक क्लिक पर मिली पीडीएफ जितनी सहज उपलब्ध नहीं हुआ करती थी. तब अपने परिवार से इतर समाज को जानने की हमारी उत्सुकता प्रेमचंद की किताबों ने ही पूरी की थी.
उपन्यासों और कहानियों के उन शब्दों के मायने बेशक काफी साल बाद समझ में आए हों लेकिन व्यक्तिगत तौर पर यह मानना है कि मेरी पीढी के लोगों के हृदय में यदि कहीं समाज के दबे-कुचले, शोषित , कुंठित वर्ग के लिए संवेदनाएं बची हुई हैं तो यह उनकी लिखी किताबें पढ़ने की ही देन है! उनकी कलम द्वारा रचे पात्र चाहे निर्मला हो, होरी हो , बूढी काकी हो या फिर ईदगाह का हामिद हो , सभी ने हमारे भीतर तक उतर कर हममें मानवीय संवेदनाओं का ऐसा संचार किया जो आज तक कायम है .
जाने अंजाने ही प्रेमचंद की कहानियों के किरदारों ने हम सभी को एक बेहतर इंसान बनने के लिए भी प्रेरित किया है.
और हां कमाल की बात यह भी है कि उस समय की लिखी गई कहानियों के सभी किरदार आज भी समाज में जहां के तहां खड़े हैं , उनकी आर्थिक, सामाजिक स्थिती में लेशमात्र भी कोई परिवर्तन नहीं आया है, वो अलग बात है कि उनको मोहरा बनाकर की गई राजनीति से राजनितिक दलों की स्वयं की आर्थिक, सामाजिक स्थिति पहले से काफी बेहतर हो गई है.
परिवर्तन यदि आया है तो बस इतना , कि आज हामिद की कहानी सुनने सुनाने से लोग बचते नजर आते हैं क्योंकि उन्हें इसमें मानवीय संवेदनाओं से अधिक धर्म मजहब दिखाई देता है. आज गोदान के होरी की स्थिति पर सवाल उठाने वालों को पहले उनके स्वयं के गिरेबान में झांकने की हिदायत दी जाती.
मुंशी प्रेमचंद , काश तुम देख पाते कि तुम्हारे सभी पात्र आज भी उसी रंगमंच पर खड़े तुम्हें याद कर रहे हैं जहां उनकी प्रासंगिकता आज भी वैसी ही है, जैसी तुम्हारी लेखनी से निकलके वक्त थी !

बाकि प्रेमचंद को जितना समझा है उसका सार कुल जमा इतना ही है कि
किसी को शोध करना ही है तो महंगे विज्ञापनों के स्टार माडल्स की कोलगेट स्माईल पर नहीं बल्कि ताउम्र तंगहाल गृहस्थी की गाड़ी को खींचने की कवायद करते रहने पर भी मुस्कुराते प्रेमचंद की मुस्कुराहट पर करना चाहिए !

शोध करना ही है तो नाईकी और एडिडास के महंगे जूतों पर नहीं प्रेमचंद के पैरों में शान से सजे उन जूतों पर होना चाहिए जिनसे उनकी उंगलिया बाहर झांककर अपने पहनने वाले की नहीं बल्कि देश की आर्थिक और सामाजिक नीतियों को बनाने वालों को उनकी विफलताएं गिना कर आत्मावलोकन करने की चुनौती दे रही हैं!

शोध करना ही है तो सैलिब्रिटियों , नेताओं, अभिनेताओं , उद्योगपतियों एवं राजपरिवारों के प्रसिद्ध दंपतियों पर नहीं अपितु अभावों में आडंबरहित जीवन जीते प्रेमचंद और उनकी अर्द्धांगिनी शिवरानी पर करनी चाहिए कि जिनकी बाडी लैंग्वैज इस चित्र में कह रही है कि दोनों के बीच एक अद्भुत, अद्वितीय कमाल की कैमिस्ट्री है !

शोध करना ही है तो महानगरों की मल्टीनैशनल कंपनियों में लाखों रुपए महीने की आमदनी पाकर भी अपने स्पेस के लिए लड़ते दंपतियों पर नहीं बल्कि कुर्सियों पर बैठे प्रेमचंद और शिवरानी के बीच कुर्सियां नज़दीक होने पर भी बीच में दोनों द्वारा एक दूसरे के बीच संकोचवश छोड़े गए ‘स्पेस’ पर करना चाहिए जो रिश्तों में स्पेस के महत्व को कितनी सादगी से बयां कर जाता है!

शोध करना ही है तो ब्रांडेड कपड़ो , हाई-फाई कंटैंट राईटर्स , करोड़ों की रायल्टी पाते आथर्स पर नहीं बल्कि समाज के सबसे कमज़ोर तबके की समस्याएं अपनी कलम के जरिए उठाने वाले प्रेमचंद पर करना चाहिए जिन्होंने हर हाल में जो देखा उसपर बिना किसी झूठ या लागलपेट का मुलम्मा चढ़ाए, निडर होकर निरंतर लेखन किया ,फिर चाहे आमदनी हो या न हो और चाहे नौकरी ही क्यों न चली जाए!

शोध करना ही हो तो कई-कई फिल्टर्स से लैस सेल्फियों के मायाजाल का नहीं अपितु इस महान लेखक के उस हौसले , आत्मविश्वास और स्वाभिमान पर करना चाहिए जो फटे जूतों, सिलवटों भरे सादा लिबास, बिना गहनों भी गर्व से साथ बैठी अर्द्धांगिनी के साथ फोटोग्राफर के स्माईल प्लीज कहने पर कैमरे की आँखों में आंखें डाले वास्तव में ही एक “सैल्फी” कही जाने वाली ‘सैल्फी” खिंचवा लेता है जो केवल इमानदारी के फिल्टर से जगमगा रही है !

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