जंगल में बढ़ता इंसानी दखल, आदमखोर हो रहे बाघ-बघेरे !

देखा जाए तो दोष वन्यजीवों का नहीं अपितु लोगों का है जो बस्तियों से निकल कर जंगल की जमीन पर बसते हैं या खेती करते हैं अथवा खनन के माध्यम से पर्यावरण और वन्यजीवों के घर को नुकसान पहुंचाते हैं। ऐसे हालात में तेंदुए हों या अन्य खूंखार वन्यजीव भी आहार और पानी की तलाश में इंसानी बस्तियों में पहुंच जाते हैं और वहां किसी इंसान को देखकर स्वयं को सामने पाकर स्वयं को असुरक्षित समझते हुए हमला कर देता है। और इसी के साथ इंसान और वन्यजीवों में टकराव शुरु हो जाता है।

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नामीबिया से कुनो-पालपुर लाया गया चीता

-आबादी क्षेत्र में बढ़ती वन्यजीवों की आवाजाही व इंसानों पर हमले को रोकने के लिए वन्यजीवों को देना होगा प्राकृतिक माहौल
-सेंचुरी से गांवों का हो विस्थापन ताकि टैरेटरी के लिए नहीं हो संघर्ष, जंगल से आबादी क्षेत्र की तय हो न्यूनतम दूरी

-हरिओम शर्मा-

हरिओम शर्मा वरिष्ठ पत्रकार

जयपुर। पिछले दिनों में प्रदेश के अनेक भागों में वन्यजीवों के आबादी क्षेत्र में प्रवेश की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। एक तरफ तेंदुए के संरक्षण की योजना शुरू करने वाला राजस्थान देश में पहला स्थान हासिल कर चुका है, वहीं दूसरी तरफ तेंदुओं के आबादी क्षेत्र में पहुंच कर इंसानों पर हमले की खबरें विचलित करने वाली हैं। यूं तो प्रदेशभर में इन दिनों बाघ-बघेरे व तेंदुओं के हमलों से इंसानों जीवन को खतरे के समाचार मिलते रहते हैं लेकिन ताजा घटनाएं झालावाड़ और करौली जिलों से ज्यादा मिलने से आमजन में भय व्याप्त है। इन दो जिलों में तेंदुए के हमले से आठ जने घायल हो गए। इससे पहले भी तेंदुए के हमलों में कई लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक सा है कि आखिर जंगल छोड़ ्रकर वन्यजीव आए दिन गांव, कस्बे, ढाणी अथवा शहरों की इंसानी बस्तियों में क्यों घुस रहे हैं। इसका जवाब भी सीधा सा यही रहने वाला है कि जंगलों में इंसानों का दखल जिस गति से बढ़ता जा रहा है उससे ऐसी घटनाओं मेें इजाफा स्वाभाविक है। वन्यजीवों के हमलों की बात करें तो प्रदेश में पिछले वर्षों में वन्यजीव संरक्षण के क्षेत्र में खासी वृद्धि हुई है। देश में वर्तमान में करीब पौने दो लाख वर्ग किलोमीटर जंगल वन्यजीव संरक्षित क्षेत्र में आता है। वन्यजीवों से संबंधित आंकड़ों के अनुसार देश में तेंदुए के परिवार का कुनबा 13 हजार से अधिक है। राजस्थान में तेंदुओं की आबादी करीब 650 आंकी गई है। इसे एक अच्छा आंकड़ा कहा जा सकता है। प्रदेश में दस से अधिक तेंदुआ संरक्षित क्षेत्र हैं। इनमें से कई संरक्षित क्षेत्रों में लेपर्ड सफारी भी है। प्रदेश की राजधानी जयपुर देश का एक मात्र ऐसा शहर है जहां तीन लेपर्ड सफारी हंै। जिस प्रदेश में तेंदुए के संरक्षण के लिए इतनी कवायद चल रही है, वहां तेंदुओं का बस्ती में पहुंचकर लोगों पर हमला करना बहुत ही चिंता पैदा करने वाला है। ऐसे में देखा जाए तो दोष वन्यजीवों का नहीं अपितु लोगों का है जो बस्तियों से निकल कर जंगल की जमीन पर बसते हैं या खेती करते हैं अथवा खनन के माध्यम से पर्यावरण और वन्यजीवों के घर को नुकसान पहुंचाते हैं। ऐसे हालात में तेंदुए हों या अन्य खूंखार वन्यजीव भी आहार और पानी की तलाश में इंसानी बस्तियों में पहुंच जाते हैं और वहां किसी इंसान को देखकर स्वयं को सामने पाकर स्वयं को असुरक्षित समझते हुए हमला कर देता है। और इसी के साथ इंसान और वन्यजीवों में टकराव शुरु हो जाता है। ऐसे में कई बार हालात विकट हो जाते हैं जब ग्रामीण हमले से नाराज होकर तेंदुए को घेरकर मार डालते हैं। इसके अलावा कई बार बाघ, बघेरे या तेदुए अथवा शावक जंगल से भटककर हाईवे और राजमार्ग पर आ जाते हैं और हादसे का शिकार होकर दम तोड़ देते हैं।
वन्यजीवों और इंसानों के बीच होने वाली भिड़ंत अथवा संघर्ष को टालने के लिए जरूरी है कि वन्यजीवों को उनके अनुरूप प्राकृतिक माहौल उपलब्ध करवाने के लिए हर संभव प्रयास किए जाने जरूरी हैं। इस दिशा में जंगल और आबादी क्षेत्र की न्यूनतम दूरी तय किए जाने, जंगल में बसी आबादी को अन्यत्र बसाने, जंगलों में अवैध रूप से खनन और पेड़ों की कटाई पर स्थायी रूप से रोक लगाने सहित वन्यजीवों के लिए जंगल के भीतर ही पर्याप्त भोजन व पानी का प्रबंध किए जाने की जरूरत है। उपरोक्त में सबसे अहम जंगलों में अवैध खनन और अन्य गतिविधियों पर सख्ती से रोक लगाने की है। इसके लिए मजबूत राजनीतिक व प्रशासनिक इच्छाशक्ति की जरूरत अहम है। इसके बिना किसी भी कीमत पर इस समस्या से नहीं निपटा जा सकता है। हमारे जनप्रतिनिधियों को इस पर इमानदारी से गौर करने और दलगत राजनीति से उपर उठकर प्रयास करने की भी खासी जरूरत है।

चीतों को लेकर चली खासी बहस

देश भर में गत वर्ष वन्यजीवों को लेकर खासी बहस और चर्चाओं का बाजार गरम रहा था। खासकर जब कि नामीबिया से भारत लाए गए आठ चीतों को मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में शिफ्ट किया गया है। देश व प्रदेश में लुप्त हो चुके इनके पुनर्वास के प्रयास यूं तो दशकों से किए जा रहे हैं लेकिन लगभग छह माह पहले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जन्म दिवस पर दक्षिण अफ्रीकी देश नामीबिया से चीतों के भारत आने के बाद देश और प्रदेश की सियासत अचानक तेज हो उठी। दलगत राजनीति के अखाड़े में चीता को लेकर श्रेय लेने और वाहवाही लूटने की होड़ सी मच गई थी। ऐसे में लगतताजाा है कि नेताओं का ध्यान वन्यजीवों के संरक्षण और जैव विविधता की ओर कम लेकिन बयानबाजी की ओर ज्यादा ही चला गया है। ऐसा नहीं है कि चीते पहली बार देश की सरजमी पर आए हैं। इतिहास गवाह है कि इससे पहले भी दशकों तक चीते देश और प्रदेश के जंगलों में मौजूद थे। इनकी प्रजाति के लुप्त होने पर इन्हें फिर से लाने के प्रयास तत्कालीन राजा महाराजाओं से लेकर सरकारों की ओर से भी किए गए। लेकिन फिलहाल इस जीव को राजनीतिक हथियार की तरह बहुचर्चित कर दिया गया है। देश की धरती पर चीता का पुनर्वास एक तरह से जैव विविधता की टूटी कड़ी को फिर से जोडऩे का प्रयास ही कहा जाएगा। किसी भी स्तर पर वन्यजीवों की उपेक्षा प्रकृति और मानव के हित में नहीं कही जा सकती है। हमें गंभीरता से वन्यजीवों के संरक्षण यथा उनके प्राकृतिक फूड चैन, हेबिटॉट और टैरेटरी के संरक्षण पर ध्यान देना होगा।

जीव ही जीव का आहार !

राजस्थान से लेकर दूसरे प्रदेशों को लेकर बहस छिड़ी है कि फला जंगल में जयपुर से ले जाकर हिरण, चीतल छोड़ दिए और कूनो नेशनल पार्क में इतने हिरणों को चीतों के आहार के लिए छोड़ दिया। कहा गया है कि जीव ही जीव का आहार है। खासकर जंगली जीवों के लिए यह सटीक बैठता है। प्रकृति ने हर प्राणी के लिए भोजन की व्यवस्था की है। जंगल में तृणहारी और मांसाहारी दोनों तरह के जीव रहते आए हैं। बघेरे को बंदर तो बाघ को हिरण प्रजाति का शिकार प्रिय है। मुख्य रूप से जंगल में बिल्ली प्रजाति के जीवों में शेर, बाघ, बघेरे व तेंदुए आदि हिंसक जीव अपने आहार के लिए हिरण प्रजाति के हिरण, चीतल, सांभर, बारहसिंगा और एंटीलोप नीलगाय आदि जीव शामिल हैं। पूरी तरह शाकाहारी हिरण प्रजाति के जीव प्रकृति में बिल्ली प्रजाति का सदियों से आहार रहा है। इसके अलावा कई वन्यजीव अभयारण्य से लगती आबादी क्षेत्र में जहां बाघ-बघेरों के लिए प्रेबेस (आहार) को लेकर समस्या होती है वहां ये जीव आसपास की बस्तियों के जंगल व खेतों तक पालतू पशुओं को भी शिकार बना लेते हैं। आए दिन सेंचुरी के समीप के गांव-गुवाड़ों से इसकी खबरें भी आती रहती हैं। कई बार ग्रामीण दुधारु पशुओं के शिकार से परेशान होकर वन्यजीवों की जान के दुश्मन तक बन जाते हैं। जंगल में प्रकृति की बनाई फूड चैन को बनाए रखना बहुत जरूरी है अन्यथा वन्यजीव वहां से पलायन कर बस्तियों में आने को मजबूर होंगे यह सर्वविदि है। जीवों के आवास, भोजन और संरक्षण की चिंता नहीं की गई तो वन्यजीव और मानव के बीच संघर्ष पनपने की राह पनपने से इनकार नहीं किया जा सकता। जो जिसका आहार और और आवास है वह सुरक्षित रहना ही चाहिए। चाहे वह फिर इंसान के लिए हो या बाघ, बघेरे व चीतों के लिए। टैरेटरी की तलाश में हाल ही सरिस्का से निकला बाध एसटी-24 वन महकमे के लिए बीते एक माह से सिरदर्द बना हुआ है। लगभग 28 दिन बाद यह बाघ कैमरे में कैद हो पाया जो कि टैरेटरी की तलाश में सरिस्का वन्यजीव अभयारण्य से निकलकर जयपुर के नजदीक आ पहुंचा है। साफ है कि बाघ को अपना इलाका बनाने के लिए घर से निकलना ही पड़ा।
लेकिन इसके पीछे की हकीकत से भी सब बाकिफ हैं। वन्यजीवों की आबादी में निरंतर विस्तार होने से जंगल सिकुड़ते जा रहे हैं। हरित और सघन वन क्षेत्र घटता जा रहा है। टैरेटरी को लेकर बढ़ते संघर्ष से बाघ-बघेरों का कुनबा घर में घुट रहा है। मानवीय दखल और अवैध खनन ने प्रकृति की अमूल्य धरोहर बाघ परिवार को संकट में ला दिया है।

एक सदी से है जारी है चीतों को देश-विदेश से लाने का सिलसिला

एसा नहीं है कि भारत में पहली बार मोदी सरकार ने देश के बाहर से विलुप्त हुए चीतों को लाने का सिलसिला शुरू किया है। बात हंगामा बरपान की नहीं, चीते देश के दूसरे राज्यों और विदेश तक से विभिन्न अभयारण्यों में लाए जाते रहे हैं। तत्कालीन राजा-महाराजाओं को भी वन, पर्यावरण और जैव विविधता को बनाए रखने की उतनी ही चिंता थी जितनी की आज की सरकारों को। इतिहास गवाह है कि जयपुर परिक्षेत्र यानि ढुंढाड़ के जंगलों में चीते की प्रजाति एक सदी पहले ही लुप्त हो गई थी। उस दौर में महाराजा के आग्रह पर विलायत से आए दंपति ने चीते यहां भेजे। बताया जाता है कि इंग्लैंड से समुद्री जहाज से मुंबई लाने के बाद चीतों को रेलमार्ग से जयपुर लाया गया था। इसी तरह डूंगरपुर के तत्कालीन महाराजा ने भी चीते लुप्त होने पर करीब 94 साल पहले ग्वालियर राजघराने के माघ्यम से भोपाल से बाघ का जोड़ा मंगवाकर पुनर्वास करवाया था। विदेशी मेहमानों का देश की विभिन्न रियासतों में राजपरिवारों के यहां आना-जाना बना रहता था और हिंसक जीवों के शिकार के शौक के चलते वन्यजीवों का खूब शिकार भी किया जाता था। ऐसे में प्रकृति की अमूल्य धरोहर बाघ-बघेरे व चीते देश व प्रदेश से लुप्त होते गए और उनके पुनर्वास की चिंता तत्कालीन महाराजाओं ने बखूबी की और उन्हें देश-विदेश से लाकर यहा फिर से बसाया।

सरिस्का हो गया था बाघ विहीन

डेढ़ दशक पहले शिकारियों की सक्रियता से सरिस्का से लुप्त हुए बाधों को भी यहां पुन: अन्य वन्यजीव अभयारण्यों से लाकर बसाया गया। इसलिए हमें चिंता अब इस बात की करनी चाहिए कि वन्यजीवों की सुरक्षा के साथ उनके प्राकृतिक आवास और आहार की पुख्ता व्यवस्था भी करनी चाहिए। इसके लिए बिना राजनीतिक किए जो भी उपाय हों किए ही जाने चाहिए। अन्यथा जैवविविधता की कड़ी टूटती चली गई तो मानव का भी अस्तित्व खतरे में पडऩे से नहीं रोका जा सकेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, संपादक एवं स्तंभकार हैं)

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