
-देशबन्धु में संपादकीय
बांग्लादेश में हुए तख्तापलट के बाद वहां के सियासी हालात और भारतीयों की सुरक्षा समेत कई जरूरी सवालों पर आज केंद्र सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई, इसके अलावा विदेश मंत्री एस.जयशंकर ने संसद में भी इस पर आधिकारिक बयान दिया। केंद्र सरकार के मुताबिक 5 अगस्त को शेख हसीना ने बेहद अल्प सूचना पर कुछ समय के लिए भारत आने की अनुमति मांगी और इसके साथ ही बांग्लादेश प्रशासन ने विमान के भारत में उतरने की अनुमति मांगी, जिसके बाद 5 तारीख की शाम को शेख हसीना दिल्ली पहुंच गई। सरकार ने संसद में यह जानकारी भी दी कि वहां के अल्पसंख्यक समुदायों और भारतीय नागरिकों की सुरक्षा पर उसकी नजर है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक यह जानकारी सामने आई है कि शेख हसीना के ब्रिटेन जाने पर भी संशय है, क्योंकि वहां की सरकार ने उन्हें किसी भी तरह का कानूनी संरक्षण देने से इनकार कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने शेख हसीना से कहा है कि अगर उनके खिलाफ कोई कानूनी-कार्यवाही शुरू होती है तो ब्रिटेन उनका बचाव नहीं करेगा।
इन स्थितियों में शेख हसीना का अगला कदम क्या होगा, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन जिस तरह अपनी सुरक्षा के लिए उन्होंने सबसे पहले भारत से ही संपर्क किया और वह भी काफ़ी कम वक़्त में, उससे ज़ाहिर होता है कि भारत और बांग्लादेश के रिश्ते कितने मजबूत रहे हैं। अब जो नयी सरकार गठित होगी, क्या उसके साथ भी भारत के संबंध सौहार्द्रपूर्ण और भरोसे के रहेंगे, इसे परखना होगा। क्योंकि बांग्लादेश भारत का पड़ोसी देश ही नहीं है, हमारी सीमाओं के साथ-साथ आर्थिक, सामरिक, सांस्कृतिक हितों की भी साझेदारी है। जिन हालात में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने पाकिस्तान के दो हिस्से कराकर बांग्लादेश का निर्माण करवाया था, उस हार का स्वाद पाकिस्तान अब तक नहीं भूला है और चीन ने भी भारत की सक्षमता को तब देख लिया था। लेकिन अब चीन और पाकिस्तान दोनों बांग्लादेश को आधार बनाकर भारत में अपने गलत इरादों को अंजाम देने की कोशिश करेंगे, इस बारे में भारत को पहले से सचेत रहना होगा। सर्वदलीय बैठक में कांग्रेस सांसद और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने पूछा कि क्या सरकार के पास बांग्लादेश के घटनाक्रम में किन्हीं बाहरी ताकतों की भूमिका के बारे में कोई जानकारी है, तो विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा कि सरकार के पास केवल पाकिस्तान के राजनयिक की बदली हुई डीपी (डिस्प्ले पिक्चर) के बारे में जानकारी है जो विद्रोहियों को उनके समर्थन को दर्शाती है।
यह जानकारी छोटी सी है, लेकिन इसके मायने काफ़ी गहरे हैं। पाकिस्तान के राजनयिक अगर विद्रोहियों को समर्थन दे रहे हैं, तो ज़ाहिर है कि बांग्लादेश की राजनैतिक अस्थिरता या वहां कठपुतली सरकार बनाने में बाहरी ताकतों की दिलचस्पी है। ये ताकतें कौन सी हैं, और इनका असल मक़सद क्या है, इसे बेहद सावधानी के साथ विश्लेषित करने की जरूरत है। क्योंकि बांग्लादेश केवल मोहरा हो सकता है और निशाने पर कोई और हो सकता है। अफ़्रीका और एशिया के कई देशों में पिट्ठू सरकारों को बिठाने का सफल प्रयोग वैश्विक ताकतें पहले कर चुकी हैं, अरब स्प्रिंग जैसे उदाहरण भी हमारे सामने हैं, जहां आंदोलन के प्रत्यक्ष कारण कुछ और होते हैं और छिपे हुए एजेंडे जब तक सामने आते हैं, तब तक देश बर्बाद हो चुके होते हैं। ऐसे आंदोलनों में धर्म और नस्ल के नाम पर अत्याचार सहउत्पाद की तरह आता है और लोगों का ध्यान उन्हीं में उलझ कर रह जाता है। इस वक़्त बांग्लादेश में भी यही सब हो रहा है। हिंदुओं पर मंडराता खतरा, मंदिरों पर हमला, ऐसी खबरें सामने आ रही हैं, जिनसे भारत में चिंता उपजना स्वाभाविक है। लेकिन क्या धर्म की आड़ में लोकतंत्र पर मंडराए खतरे से ध्यान भटकाया जा रहा है, यह भी समझना होगा।
शेख हसीना की चुनावों में जीत पर सवाल उठाना, उनकी नीतियों और फ़ैसलों का विरोध करना, उनसे इस्तीफ़े की मांग करना, सब जायज़ रहता, अगर यह सब लोकतंत्र के दायरे में रहकर किया जाता। लेकिन शेख हसीना को जिन हालात में देश छोड़ने पर मजबूर किया गया और फिर बंग बंधु शेख मुजीबुर्रहमान की प्रतिमा को प्रहार करके तोड़ा गया, वह असल में लोकतंत्र पर प्रहार था। आंदोलनकारियों ने जिस तरह शेख हसीना के आवास पर कब्ज़ा किया और उनके निजी सामान का बेहूदा प्रदर्शन किया, वह उपद्रवियों और दंगाइयों का आचरण था, आंदोलनकारी इस तरह अपने लक्ष्य से नहीं भटका करते हैं।
बांग्लादेश में लोकतंत्र का ढहना भारत के लिए किसी लिहाज से अच्छी खबर नहीं है, क्योंकि इस समय हमारे पड़ोसी देशों में एक बांग्लादेश ही था, जहां लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम थी। वहां की अंतरिम सरकार कितनी लोकतांत्रिक रहती है, यह तो आगे जाकर ही पता चलेगा। लेकिन फिलहाल नरेन्द्र मोदी की सरकार को हरेक कदम सावधानी से उठाना होगा और इसके लिए अगर विपक्षी दलों से सलाह-मशविरा किया जाए, तो उसमें कोई हर्ज नहीं है। मंगलवार को जो सर्वदलीय बैठक हुई, उसमें सभी दलों ने सरकार से सहयोग ही किया है, लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि इस अतिमहत्वपूर्ण विषय पर हुई बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं क्यों अनुपस्थित रहे। इसी तरह आम आदमी पार्टी को इस बैठक में शामिल करना सरकार ने क्यों ज़रूरी नहीं समझा, इसका तार्किक जवाब भी सरकार को देना चाहिए। क्योंकि यह समय क्षुद्र राजनीति का नहीं है।