साहित्य की नागरिकता वैश्विक धरातल पर होती है

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प्रतीकात्मक फोटो
साहित्य की दुनिया भी विज्ञान की तरह पूरे विश्व को अपने भीतर घटित होते देखती है। साहित्य मानव मन की अभिव्यक्ति का संसार है वहां वस्तु संसार को उस तरह जगह नहीं मिलती जैसा संसार में दिखता है। साहित्य के संसार में मन दशा व रस दशा व आनंद दशा के सूत्र छिपे होते हैं।

– विवेक कुमार मिश्र

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डॉ. विवेक कुमार मिश्र

साहित्य की दुनिया भी निराली होती है । यहां तरह तरह से सत्य को कहने की कोशिश की जाती है। बहुत बार अपने सत्य को दूसरे पर आरोपित कर बात कही जाती है तो दूसरे के सत्य को अपने उपर इस तरह घटाया जाता है कि लगता ही नहीं कि आप उसमें शामिल नहीं हैं । इस तरह साहित्य की घटनाएं और साहित्य के प्रसंग अनेकशः ऐसे आते हैं कि दूर दूर तक घटमान दुनिया से उनका लेना-देना उस तरह नहीं दिखता कि आप पहचान सके कि हां यहां यहीं सत्य है। जो साहित्य में घटित होता है वह साहित्य में ही घटित होता है और दिखता है लोगों के मन में संसार में और जगत में घटते हुए । साहित्य कुछ भी इस तरह नहीं आता कि आप दो और दो चार कह सकें साहित्य गणित नहीं है, जीवन है और जीवन के रहस्य की तरह ही साहित्य के रहस्य भी होते हैं जो समझ में आ जायें तो तुरंत समझ में आ जायें और न आयें तो पूरा जीवन भी कम पड़ जाएं । साहित्य के पाये तखत के पाये की तरह मजबूत होने चाहिए । एक समय कई सारे लोग बैठ जाएं तो भी साहित्य के तखत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है । साहित्य आपके भीतर के स्थाई भाव से जीवित होता है । साहित्य के लिए क्षणिक हर्ष-विषाद का अर्थ उस तरह नहीं होता जैसा कि आम तौर पर किया जाता है। साहित्य हर्ष-विषाद के रास्ते क्या घटित हो सकता है उसकी ओर संकेत करता है। वह हमें विचार करने के लिए छोड़ता है। आप साहित्य इसलिए नहीं पढ़ते कि मनोरंजन करना है या हवा में उड़ना है। साहित्य इसलिए पढ़ता है कि उससे संसार को समझने में मदद मिलती है । साहित्य आपको सीमित दुनिया से निकाल कर व्यापक समाज से जोड़ने का काम करता है । साहित्य की नागरिकता वैश्विक होती है… मनुष्यता बोध के भाव संसार भर में सब जगह एक से होते हैं । इसलिए साहित्य की दुनिया भी विज्ञान की तरह पूरे विश्व को अपने भीतर घटित होते देखती है। साहित्य मानव मन की अभिव्यक्ति का संसार है वहां वस्तु संसार को उस तरह जगह नहीं मिलती जैसा संसार में दिखता है। साहित्य के संसार में मन दशा व रस दशा व आनंद दशा के सूत्र छिपे होते हैं।
साहित्य जीवन रहस्य को समझने से ही अपनी दुनिया को व्यापक बनाता है। साहित्य के संदर्भ इस तरह से कार्य करते हैं कि बातें संदर्भ काल में होते हुए भी कालांतर से आपको जोड़ देती हैं । यहां आप किसी एक कालखंड तक सीमित नहीं होते भूत वर्तमान और भविष्य सब साथ साथ चलता रहता है और सबको ही घटते हुए देखना ही साहित्य का आनंद लोक है पर इस लोक में भी बहुत सारे लोग ऐसे आ जाते हैं कि उन्हें आनंदलोक की यात्रा कम ही समझ में आती है वे क्षणिक विषाद और क्षणिक आनंद के पालने में झूलने को ही जीवन का सही रूप मानते हैं और इसी हिसाब से कदम बढ़ाते रहते हैं। उन्हें साहित्य भी अपनी दुनिया में एक पूंजी निवेश की तरह भार परक क्रिया ही लगती है। इसीलिए बहुत बार ऐसे लोग भी मिलते हैं जिनके लिए साहित्य का अर्थ केवल बगल में किताब दबाकर घूमने जैसा ही होता है। उन्हें इससे कुछ लेना-देना नहीं होता कि किताब के भीतर क्या लिखा है उनका बस इतना प्रयोजन होता है कि किताब देखकर उन्हें पढ़ा लिखा माना जाये। इसके लिए पुस्तक का फ्लैप उलट पलट कर पुस्तक के बारे में समय समय पर बुदबुदाते रहते हैं । साहित्य में बुदबुदाने का भी महत्व है। मान लिया जाता है कि आप कुछ न कुछ कर रहे हैं । कम से कम बुदबुदा तो रहे हैं और जब बुदबुदाते रहेंगे तो एक दिन खदबदायेंगे भी और खदबदाना साहित्य के हिसाब से बड़ा काम हो जायेगा । यदि आप साहित्य के रस में डूब जाएं तो साहित्य आपके माथे से टपकने लगता है और ऐसे लोग भी मिलते रहते हैं जिनके माथे से साहित्य भी टपकता है और पसीना भी पर कौन ज्यादा टपकता है पता नहीं चलता। इनका साहित्य से उस तरह से लेना देना नहीं होता कि आप कह सकें कि इनका साहित्य के साथ यहीं संबंध है। कार्य-कारण की श्रृंखला से दूर साहित्य की गति होती है । साहित्य में भी एक दूसरे को गढ्ढे में ढ़केलने और गढ्ढ़े से निकालने की कथा रहती है। किसी पर टिका टिप्पणी ढ़ंग से कर दो तो वह न जाने कितना पहुंचा हुआ आदमी अपने को समझने लगता है और न करों तो उसे लगता है कि ये महाशय तो अपने को साहित्यकार मानेंगे ही नहीं । वैसे किसी भी ढ़ंग के साहित्यकार को किसी के मानने और न मानने का इंतजार कभी नहीं रहता। ढ़ंग का साहित्यकार अपने लिखे पर और अपने शब्द पर भरोसा करता है और उसे बराबर से यह लगता है कि अपनी बात अपने संदर्भ और अपनी उपस्थिति को स्वयं दर्ज कराना ठीक होगा। इसीलिए ढ़ंग के पायेदार साहित्यकार भूमिका लिखाने के चक्कर में नहीं पड़ते न ही ये सोचते कि उनके साथ कौन है या कौन नहीं है और किसे इधर-उधर की गोटी जोड़कर अपने साथ लाना है और कहां तक लाना है । वैसे भी यदि आप साहित्य जगत में काम कर रहे हैं तो थोड़ा मन से निराला भी बनिए, थोड़ा दौड़ भाग थोड़ा गणित , गुणा भाग से दूर रहते वास्तविक जिंदगी के ताप को महसूस करते करते कुछ रचते हैं तो वह आप के लिए और संसार की सेहत के लिए भी ठीक ही रहता है । आजकल और पहले भी ऐसा भ्रम बना रहता था कि फलां साहब आपको साहित्यकार बना देंगे । उनके पास में या बगल में बैठ जायेंगे तो मुझे भी बड़ा और पहुंचा हुआ साहित्यकार मानने में देर नहीं लगेगी। इसीलिए मख्खन की दुकान पर मख्खन भले न मिले पर साहित्य की जहां दुकान होती है वहां इतना मख्खन होता है कि आप जैसा चाहो वैसा ठेका मिल जायेगा । साहित्य में जितने भी रस होते हैं और हों सकते हैं उससे दो रस आगे का रस बताकर आपकी प्रशंसा भरी टिप्पणी कर दी जायेगी जिससे आप जब सड़क पर चलें तो कदम में मद भरा संसार दिखें। केवल मकान निर्माण हेतु ठेकेदार जी की जरूरत नहीं पड़ती जिंदगी के अन्य हिस्सों में भी ठेकेदार की सीधे सीधे जरूरत पड़ती ही पड़ती है । अब यदि आप साहित्य के क्षेत्र में कुछ करना चाहते हैं तो यहां भी कुछ न कुछ बड़े ठेकेदार मिल जायेंगे जो रास्ता बताने से लेकर साहित्य निर्माण की सामग्री और भूमिका के बारे में इस तरह बतायेंगे कि आपको इनकी विशेषज्ञता पर किसी तरह का शक न हो । देखते देखते राष्ट्रीय महत्व के आदमी के रूप में आपको घोषित कर देंगे। अब जिसे कभी घर में ही महत्वपूर्ण जगह न मिली हो उसे राष्ट्रीय महत्व का आदमी घोषित कर दिया जाये उसके कंधों पर सभ्यता का भार लाद दिया जाएं तो भला सोचिए कि वह आदमी कहां जायेगा….. ? वैसे तो किसी को कोई कुछ नहीं बनाता एक ढेला की भी मदद कोई नहीं करता पर घोषित करने में जाता ही क्या है। किसी को भी महान कह दो अब वह महान बन जायें तो उसकी मेहनत और भाग्य का मामला है और नहीं भी बना तो आपने तो उसका भला सोचकर ही ऐसा कहा था । इसलिए इस तरह की बातों में किसी तरह का कोई खतरा नहीं होता और लोग एक दूसरे को महान घोषित इसलिए भी करते रहते हैं कि एक न एक दिन कोई उनको भी तो महान मानेगा। साहब महान होने के लिए महान जैसा दिखना भी पड़ता है।
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एफ -9, समृद्धि नगर स्पेशल बारां रोड कोटा -324002(राज.)

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