
-प्रशांत पाटनी की फेसबुक वॉल से साभार
अमेरिकी पर्यावरणविद लेस्टर ब्राउन बहुत प्रसिद्ध कथन है कि
“हम पृथ्वी को अपने पूर्वजों से नहीं , अपने बच्चों से उधार लेकर उपयोग कर रहे हैं।”
आज विचार करना होगा कि क्या हम हमारे बच्चों को उसका उधार लौटाने के प्रति ईमानदार है?
पर्यावरण मंत्रालय की नीति के मापदंड अनुसार देश के कुल भूभाग का कम से कम 33% भूभाग जंगल एवं वनस्पतियों से ग्रीन कवर होना चाहिए .. लेकिन आज यह लगातार घटते हुए 21% पर आ गया है.. इस तरह जंगलों का कम से कमतर होते रहना देश के इकोसिस्टम के लिए खतरनाक है.. इसके दुष्परिणाम हमें और उससे भी ज्यादा हमारी आने वाली नस्लों को भुगतने होंगे।
हमने तो धरती के प्रति अपनी जवाब देही समझते हुए हमारी ग्राम पंचायत ने इस मानसून में लगाये हैं करीब 9000 पौधे..
6300 पौधे तो हमने बाकायदा उद्यानिकी मापदंडों के अनुसार रोपाई किये हैं.. शेष जून माह की अंतिम सप्ताह में जयपुर से करीब एक दर्जन प्रजातियों के बीज लाकर उनको जमीन में गडवा दिया था.. शुरुआती बारिश में ही जून जुलाई माह में अंकुरित हो गए थे .. उन्होंने अच्छी ग्रोथ पकड़ ली है.. इनकी भी संख्या करीब 3000 पौधों की है। वृक्षारोपण के लिए हमारे पास करीब 55 हेक्टेयर भूमि सुरक्षित एवं संरक्षित है। हमारे द्वारा पिछले 9 वर्षों में विकसित किए गए करीब 25000 विभिन्न प्रजातियों के पेड़ हमारे जंगल में है। हमारा जंगल जैव विविधतापूर्ण है। इसमें पक्षियों के लिए एक बड़ा हैबिटेट एरिया डेवलप हो गया है.. यहां कुछ हिस्से में ग्रासलैंड भी है।
हमारे पास इसके लिए एक पूरा सिस्टम और नेटवर्क है.. हम आभारी है मनरेगा योजना एवं अदानी फाउंडेशन जिनके सहयोग के माध्यम से हम कार्य कर रहे हैं।
लेकिन मैं बहुत चिंतित एवं सदमे में हूं जबसे यह जाना है कि शाहबाद क्षेत्र में एक बिजली प्रोजेक्ट के लिए 408 हेक्टेयर भूमि में से एक लाख 19 हजार पेड़ काटे जायेंगे… लेकिन जैसी जानकारी मिल रही है उसके अनुसार वहां तकरीबन 5 लाख पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलेगी। फिर जैसा कि हमारे यहां कॉरपोरेट्स की प्रवृति होती है कि वह एक बड़ी लैंड बैंक बनाने के लिए आसपास की जमीन भी हथिया लेते हैं। इनके प्रोजेक्ट वाइबल रहते हैं 30- 35 साल इसके बाद यह प्रोजेक्ट के नाम पर मिली सस्ती जमीन के मालिक बन जाते हैं। कारोबारी गतिविधियां शाहबाद जंगल क्षेत्र में शुरू हो गई है… लगता है देश के इस बहुत समृद्ध एवं एवं जैव विविधतापूर्ण जंगल को ग्रहण लग गया है.. सैकड़ो हजारों साल की जैव विविधता नष्ट हो जाएगी.. पक्षियों एवं अनेक वन्य जीवों का जो लुप्तप्राय श्रेणी में शामिल हैं उनका हैबिटेट एरिया खत्म हो जाएगा। अनेक प्रजातियों के पक्षी जो बहुत ऊंचे पेड़ों पर ही अपना घोंसला बनाते हैं.. जैसे की गिद्ध(vulture) जो की लुप्त होने के कगार पर है.. वे आज भी यहां देखे जा सकते हैं जो इस जंगल में बहुत पुराने एवं ऊंचे ऊंचे पेड़ों पर घोंसला बना कर रह रहे हैं। प्राकृतिक जंगल को काटकर उसकी हजारों साल पुरानी बायोडाइवर्सिटी को कहीं पर भी जंगल लगाकर पुनर्स्थापित एवं भरपाई नहीं किया जा सकता।
इस जंगल में निवास करने वाली आदिम जनजाति सहरिया जो वन उपज पर जीवन यापन करते हैं.. उनके लिए भी विस्थापन का खतरा उत्पन्न हो गया है।
इस सबके लिए हमारा बहुत महंगा इलेक्टोरल सिस्टम जिम्मेदार है .. बहुत खर्चीला चुनाव.. चुनावी खर्चों में पारदर्शिता नहीं होना, इलेक्टरल बॉन्ड का दुरुपयोग। फिर निर्वाचित सरकारों को गिराना..खरीद फरोख्त करके सरकारें बनाना.. इन सब कामों में मददगार लोगों का भी राजनीतिज्ञों को ख्याल रखना पड़ता है.. उन्हें भी तो रोजगार देना होगा। आज जबकि बिजली बनाने के लिए आधुनिक विज्ञान में बहुत बेहतर विकल्प मौजूद हैं तो जंगल काटने की कहां आवश्यकता है..
देश में अब कहीं फालतू जमीनें बची हुई नहीं है.. अधिग्रहण की बहुत जटिल प्रक्रिया है और बहुत मुश्किल भी है। कॉरपोरेट्स, ब्यूरोक्रेट्स एवं राजनीतिज्ञों के गठजोड़ की गिद्ध दृष्टि अब जंगल की जमीनों पर है..
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