जाड़े के दिनों में चाय

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– विवेक कुमार मिश्र

vivek kumar mishra
विवेक कुमार मिश्र

जाड़े के दिनों में
जब धूप की किरणें धीरे धीरे आती हैं
तब एक बालक चाय में रोटी डूबोकर
ऐसे खाता है कि दुनिया का सबसे बड़ी उपलब्धि मिल गयी हो
चाय के साथ रोटी का स्वाद
अलग ही रंग और रस में होता है
चाय और रोटी सीधे सीधे चालिस साल पीछे बचपन में लेकर चली जाती है
जब संसाधनों, और पदार्थ में खुशी न ढ़ूढ़कर जो होता
और जितना कुछ होता उसे ही
दुनिया की सबसे बड़ी दौलत मानते मिल जाते थे लोग
किसी को कुछ भी अतिरिक्त नहीं चाहिए
अतिरिक्त की चाह थी ही नहीं
टूटी साइकिल भी बहुत दिनों तक साथ साथ चलती थी
मरम्मत होती और फिर टूटी साइकिल भी नई चाल में आ जाती थी
चाय के साथ जब रोटी का स्वाद लेते हैं तो
सीधे सीधे एक इतिहास में चले जाते हैं
जब चाय भी बड़ी मुश्किल से बना करती थी
बहुत देर तक गीली लकड़ी सुलगती रहती थी
आंच कम धुआं ज्यादा
चाय को ऐसे पकाते कि बस चाय ही बना रहे हों और कुछ करना ही नहीं है
इस चाय को पीते ही लकड़ी की आग और धुएं का स्वाद भी मिल जाता था
इस आंच पर जो चाय पकती वह सोंधी चाय होती
इस चाय को पूरा घर एक साथ दवा मानकर पीता
जाड़े के दिनों में चाय जब
धूप की किरणों के बीच आंगन में पी जाती थी तो
एक बड़ा उत्सव सा दिन हो जाता था कि सब चाय पी रहे हैं।
– विवेक कुमार मिश्र

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