
-विष्णुदेव मंडल-

चेन्नई। मैं पहली बार चेन्नई 5 मार्च 1996 को टेन की जनरल बोगी में बैठकर आया था। उस समय मुझे सिर्फ अपनी मातृभाषा मैथिली के अलावा हिंदी बोलना आता था। दिल्ली से चेन्नई के सफर के दौरान आसपास में बैठे लोग मुझ से हिंदी में ही बात करते थे लेकिन हिंदी पट्टी के राज्य मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र से आंध्रप्रदेश में प्रवेश करते ही उसमें सवार यात्रियों की बोलचाल की भाषा बदल गई। मेरे आस-पास बैठे यात्री तमिल व तेलुगू बोल रहे थे। उनके शब्द मेरे कानों में डब्बे में बंद कंकर की तरह लग रहे थे क्योंकि मुझे दक्षिण की भाषा के बारे में कुछ पता नहीं था। जबकि ये सभी यात्री तमिल या तेलुगू के अलावा हिंदी भाषा बोलना भी जानते थे।
इस घटना को दो दशक से समय बीत गया है। आमजन इस बारे में सोचता भी नहीं कि कौन किस राज्य से आया है। दो दशक से भी ज्यादा समय तमिलनाडु में बिताने के कारण मुझे अब तमिल बोलना ही नहीं पढ़ना भी आता है। इसका कारण हम यहां की भाषा, संस्कृति, परंपरा और कायदे कानून को अपना चुके हैं। बच्चे तो यहाँ के लोगों को समझ में ही नहीं आते कि वह हिंदी वाले बच्चे हैं यहां तमिल।
दक्षिण की तमिल, तेलुगू,मलयालम सभी भाषा को प्यार करते हैं। जो तमिलनाडु में हैं वह तमिल जो आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में है वह तेलुगू और जो केरल में है वह बेहतरीन मलयालम बोल लेते हैं। कर्नाटक में रहने वाले कन्नड़ बोलते हैं क्योंकि वह वहां के परंपरा को अपना चुके हैं।
लेकिन सियासत के ठेकेदार अपनी राजनीतिक रसूख कायम रखने के लिए भाषायी विवाद हमेशा उत्पन्न करते रहते हैं।
बहरहाल तमिलनाडु और केंद्र सरकार के बीच द्विभाषीय और त्रिभाषीय फार्मूला के लेकर विवाद चरम पर है। इस विवाद में अब आंध्र प्रदेश के उपमुख्यमंत्री भी कूछ चुके हैं।
उनहोंने डीएमके नेता मुख्यमंत्री एमके स्टालिन तीखा का प्रहार किया है। फिल्म अभिनेता पवन कल्याण ने भाषा विवाद पर सवाल उठाते हुए कहा है कि त्रिभाषा फार्मूला बिल्कुल जायज है, इसमें हिंदी थोपने की बात कहीं से नहीं है। भाषा एक दूसरे को जोड़ता है। जब तमिल फिल्मों की डबिंग हिंदी में प्रसारित कर लोग करोड़ों कमाते हैं उस वक्त भाषा की बात कहां रहती है? उनका कहना था हिंदुस्तान में दो दर्जन से भी ज्यादा भाषाएँ संसदीय प्रणाली से जुड़ी हैं।
अब सवाल उठता है कि दक्षिण के राज्यों में कंस्ट्रक्शन साइट से लेकर होटल, रेस्टोरेंट, शोपिंग माल, छोटेमोटे व्यवसाय आइटी कंपनियों में भी भारी संख्या में हिंदी बोलने वाले प्रवासी काम कर रहे हैं। जो काम चलाऊ तमिल व दक्षिण भारतीय भाषा बोल रहे हैं। एक दूसरे के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए तैयार बैठे हैं। देश और राज्य की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान दे रहे हैं तो फिर हम 21वीं सदी में भाषाई विवाद क्यों खड़ा कर रहे हैं?
यहां तक की बड़े-बड़े उद्योगपति जो हिंदी के प्रदेशों के निवासी हैं उन्होंने भी दक्षिणी राज्यों में उद्योग धंधे लगाए हुए हैं जिनके वर्कर हिंदी भाषी भी हैं। दक्षिण के राज्यों के सचिवालयों में हिंदी बोलने वाले भारी संख्या में आईपीएस आईसीएस एवं आईएएस अधिकारी कार्यरत हैं जो सरकार के साथ नीति बनाने में अपना अहम रोल अदा करते हैं तो फिर यह भाषायी विवाद क्यों ?
चेन्नई के एमजीआर सेंट्रल रेलवे स्टेशन पर उत्तरी राज्यों से ट्रेन या फिर एयरपोर्ट पर हवाई जहाज लैंड करते हैं तो बाहर खड़े टैक्सी और ऑटो चालक यात्रियों को हिंदी में संवाद करते नजर आते हैं। वह अपने जरूरत और सहूलियत के हिसाब से लोगों से बात करके सवारी बैठाते हैं और उनको गंतव्य तक पहुंचाते हैं। जब लोग अपनी जरूरत के हिसाब से एक दूसरे राज्यों में पलायन करके वहां के भाषा और संस्कृति को अपनाकर बेहतर जीवन जीना चाहते हैं तो फिर राजनेताओं को तकलीफ किस बात की है?
खासकर तमिलनाडु में जहां में दो दशक से भी ज्यादा समय से रह रहा हूं, बहुतेरे दक्षिण भारतीय मित्र हैं हम तमिल बोलते हैं। मेरी तमिल बोलने का अंदाज उन लोगों से थोड़ा अलग है लेकिन वह हमें अप्रिशिएट करते हैं कि मैं उनकी भाषा बोल रहा हूं। उनके रीति रिवाज को सम्मान दे रहा हूं। शायद राजनेताओं को इस बात की चिंता नहीं जो अपनी राजनीति चमकाने के लिए भाषीय विवाद खड़ा करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं।
यहां इस बात का उल्लेख करना जरूरी है बतौर पत्रकार मैंने कई सरकारी विद्यालयों के छात्रों से बातचीत के दरमियान महसूस किया है कि तमिलनाडु के 50 प्रतिशत बच्चे ठीक से अंग्रेजी भी नहीं बोल पाते। ऐसे में तमिलनाडु सरकार का अंग्रेजी प्रेम और हिंदी के प्रति नफरत समझ से परे है। हम कह सकते हैं कि तमिलनाडु सरकार तमिलनाडु को एक भाषीय नीति पर ले जाना चाहता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)