
-देवेंद्र यादव-

राजस्थान की राजनीति में प्रमुख दल भारतीय जनता पार्टी तथा कांग्रेस, और उनके नेता प्रदेश में 36 कोम की राजनीति कर सत्ता और संगठन पर लंबे समय से काबिज हैं, लेकिन अब प्रदेश में धीरे-धीरे बिहार और उत्तर प्रदेश की तर्ज पर जातिगत राजनीति का उबाल बढ़ता हुआ नजर आ रहा है। जातिगत राजनीति का बढ़ता उबाल दोनों ही पार्टियों के भीतर लंबे समय से कुंडली मारकर बैठे नेताओं के लिए एक प्रकार से राजनीतिक रूप से खतरे की घंटी है।
यह खतरा राजस्थान की राजनीति में अनायास ही नहीं आया है बल्कि दोनों पार्टियों नेताओं ने खुद मोल लिया है। भारत युवाओं का बढ़ता देश है और अर्से से पदों पर बैठे नेताओं के चलते युवाओं को राजनीति में उनका हक और अवसर समय रहते नहीं मिल रहा है। दोनों ही पार्टियों के युवा कार्यकर्ता कुंठित और नाराज हैं। वे प्रदेश में अपना राजनीतिक विकल्प तलाश कर रहे हैं। इसीलिए प्रदेश में उत्तर प्रदेश और बिहार की तरह जातिगत राजनीति की आहट सुनाई दे रही है। हालांकि इसकी शुरुआत प्रदेश के आदिवासी समाज ने पहले ही कर दी थी। भाजपा नेता किरोडी लाल मीणा लोकसभा के सांसद राजकुमार रोत और जाट नेता हनुमान बेनीवाल, यह तीनों वह नेता है जो अपनी-अपनी जातियों को आगे कर प्रदेश के बड़े नेता बने थे।
किरोड़ी मीणा ने अपनी पार्टी का विलय भाजपा में कर लिया था और वह भाजपा से विधायक बने और मंत्री हैं लेकिन राजकुमार रोत और हनुमान बेनीवाल दोनों की प्रदेश में अपनी पार्टिया हैं, जिनका अपने-अपने क्षेत्र में राजनीति प्रभाव भी देखा जाता है।
भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री के पद के प्रबल दावेदार किरोड़ी मीणा इन दिनों प्रदेश की राजनीति में चर्चा में है। वह प्रदेश में नकली खाद और बीज का मुद्दा उठाने के साथ छापामारी कर भ्रष्ट कंपनियों और भ्रष्ट लोगों पर मुकदमे भी दर्ज करवा रहे हैं।
राजस्थान में डबल इंजन भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। किरोड़ी मीणा भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता और राज्य सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं। किरोड़ी मीणा प्रदेश में भ्रष्टाचार को उजागर कर भारतीय जनता पार्टी को संकट में डाल रहे हैं क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर भ्रष्टाचार मुक्त भारत की बात करते हैं। वहीं दूसरी तरफ उन्हीं की पार्टी के बड़े नेता राज्य में कैबिनेट मंत्री किरोड़ी मीणा प्रदेश में हो रहे भ्रष्टाचार को जनता के बीच सार्वजनिक कर रहे हैं।
दोनों पार्टियों के पारंपरिक नेता और मतदाताओं की बात करें तो भाजपा के भीतर राजपूत नेता और कांग्रेस के भीतर जाट नेता मौजूद है जो अपनी अपनी पार्टियों को प्रदेश की सत्ता में लाने के लिए पूर जोर मेहनत करते हैं। अपनी पार्टियों को सत्ता में भी लाते हैं। भाजपा प्रदेश की सत्ता में जब भी आई हमेशा राजपूत को मुख्यमंत्री बनाया मगर कांग्रेस ने जाट नेता को कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष तो बनाया मगर मुख्यमंत्री कभी नहीं बनाया।

2023 के विधानसभा चुनाव मैं भाजपा ने कांग्रेस को राज्य की सत्ता से बाहर कर अपनी सरकार बनाई और राज्य में पहली बार गैर राजपूत नेता भजनलाल शर्मा को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया। भजन लाल शर्मा को मुख्यमंत्री बनाया जाना प्रदेश के राजपूत नेताओं के लिए किसी राजनीतिक सदमें से कम नहीं है। भाजपा हाई कमान के इस निर्णय को लेकर आज भी प्रदेश के राजपूत नेता नाराज नजर आ रहे हैं। सबसे बड़ी नाराजगी पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की दिखाई दे रही है, जो तीसरी बार मुख्यमंत्री बनना चाहती थीं। प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस नेता अशोक गहलोत और भाजपा के नेता वसुंधरा राजे दोनों का प्रभाव है। लेकिन यह दोनों ही नेता अपनी-अपनी पार्टियों के भीतर हाशिये पर हैं। दोनों ही नेताओं की राजनीतिक ताकत प्रदेश में दमखम रखती है।

श्रीमती वसुंधरा राजे ने इसकी झलक 2024 के लोकसभा चुनाव में शायद बीजेपी हाई कमान को दिखाई थी। प्रदेश में 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 24 लोकसभा की सीट जीती थी लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 11 सीटों पर हार मिली। प्रदेश में वसुंधरा का राजनीतिक दबदबा अभी भी बरकरार है जिसे आने वाले दिनों में होने वाले पंचायत राज और निकाय चुनाव में देखा जा सकता है। पंचायत राज और निकाय चुनाव में यह भी देखा जा सकता है कि प्रदेश में बिहार और उत्तर प्रदेश की तरह जातिगत राजनीति का शुभारंभ होगा या नहीं। क्योंकि प्रदेश में लंबे समय से भाजपा और कांग्रेस में कुंडली मारकर बैठे नेता अपनी महत्वाकांक्षा को छोड़ना नहीं चाहते हैं और दोनों ही पार्टीयों के युवा नेता अपना राजनीतिक कैरियर बनाना चाहते हैं। वे अवसर को गवाना नहीं चाहते हैं इसलिए उनके लिए पंचायत राज और निकाय चुनाव महत्वपूर्ण है जिसमें वह अपने राजनीतिक द्वार खोल सकते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)