
-सनातन विकास ही है समाधान
–बृजेश विजयवर्गीय

इस बार अद्भुत संयोग है कि विश्व पर्यावरण दिवस एवं गंगा अवतरण”दिवस जिसे गंगा दशहरा भी कहा जाता है एक ही दिन आ रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मान रहा है और इस बात का ध्येय वाक्य प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करने का है जो सीधे-सीधे नदियों की सुरक्षा से जुड़ा हुआ विषय है। यू तो पर्यावरण का विषय बहुत जन जन को प्रभावित करता हुआ व्यापक और गहरा है लेकिन हमें वैश्विक सोच व चिंतन के साथ स्थानीय कार्यवाही ( थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली )को अमल में लाना ही इसकी सार्थकता के लिए बड़ा कदम हो सकता है। आज विकास के पश्चिमी माडल में सरकारों का ध्यान केवल कंक्रीट और सीमेंट के कार्यों पर है ।वहीं इसका सीधा दुष्प्रभाव प्रकृति पर पड़ रहा है और प्रकृति को बचाना एक बहुत बड़ी चुनौती जन सामान्य के समक्ष खड़ी हुई है। दुर्भाग्यवश लगभग सभी सरकारों का विकास एजेंडा प्रकृति के विनाश का पर्याय बन गया है जिसके कारण धरती का बुखार बढ़ता जा रहा है। जिससे जलवायु परिवर्तन ,वायु प्रदूषण ,खेती प्रदूषित नदियां ,सिकुड़ती खेती और किसानी , रोजगार के घटते अवसरों तथा बिगड़ता स्वास्थ्य सबके सामने है। अनियंत्रित तापमान से कहीं बाढ़ तो कहीं सुखाड़ के हालात हैं। 25 वर्ष पूर्व दी गई चेतावनी कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए होगा, उसके संकेत हाल ही में भारत के पहलगाम की घटना और उसके बाद ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत द्वारा सिंधु जल समझौते को रद्द करना इसी प्रक्रिया का हिस्सा तो नहीं है? यह आज का मौजूदा सवाल विश्व समुदाय के सामने खड़ा है। हमारा पड़ोसी दुश्मन विश्व समुदाय के समक्ष एक गुहार लगाता हुआ दिख रहा है कि भारत से कहा जाए कि सिंधु जल समझौते को न तोड़ा जाए, अन्यथा पाकिस्तान में भयंकर संकट खड़ा हो जाएगा। केवल भारत और पाकिस्तान ही क्यों प्राकृतिक संसाधनों पर दुनिया के हर बड़े देश की नजरें गड़ी है । पश्चिमी सोच का कवच ओढ़ कर विकास का दावा करने वाली सरकारें लूट पर उतर आई है और इतना ही नहीं भूगर्भ में भी खनिज की लूट के लिए देश एक दूसरे पर हमला कर रहे हैं और उन्हें गुलाम बना रहे हैं रूस और यूक्रेन के ताजा संकट से भी यही स्थिति सामने आ रही है कि यूक्रेन के प्राकृतिक संसाधनों पर रूस की निगाहें हैं। दुनिया में अब लड़ाई धर्म और संप्रदाय को लेकर काम प्राकृतिक संसाधनों की लूट को लेकर अधिक हो रही है। विश्व पर्यावरण दिवस पर हम जब विकास की बात कर रहे हैं तो हमें यह समझना होगा कि विकास किस प्रकार का हो सनातन यानी सतत विकास का मॉडल अपनाया जाए या पश्चिमी विकास के मॉडल के आगे हमारे प्राकृतिक संसाधनों को बर्बाद होने दिया जाए?विकास का पश्चिमी मॉडल कहता है कि सैन्य ताकत के दम पर कमजोर देश के प्राकृतिक संसाधनों को हड़प जाए तथा विकास का व रोजगार का लालच देकर जंगलों को बर्बाद कर प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा जमाना है।
अमेरिका ने इराक ईरान और अन्य छोटे देशों में ऐसा किया है जबकि उद्देश्य तेल के भंडारों पर अधिकार जमाना है।
हम भारतीय संदर्भ में बात नदियों की करते हैं तो उसमें गंगा का स्थान सर्वोच्च जो भागीरथ जी की लंबी तपस्या के बाद ज्येष्ठ माह में शुक्ल पक्ष की दशमी को धरती के लोगों का कल्याण करने के लिए अवतरित हुई। लोक कल्याण की इसी सोच ने गंगा और अन्य नदियों को मां का दर्जा दिया जो सर्वथा उपयुक्त है। लेकिन जब हम व्यवहार में देखते हैं तो आज भारत की समस्त नदियां प्लास्टिक पॉलिथीन एवं के प्रदूषण के कारण गंदगी ढोने ने वाली नदियां बन चुकी है। जिस देश की सनातन संस्कृति में नदियों को पूजने की परंपरा है वहां पर नदियां प्रदूषण रहे तो यह समाज और शासन,संत और महाजन सभी के लिए शोचनीय है। प्रकृति का अधिक से अधिक दोहन,शोषण की विकास का पर्याय बन चुका है। शिक्षा भी शोषणकारी हो तो विकास कल्याणकारी कैसे होगा? सनातन संस्कृति में पर्यावरण का संरक्षण परंपराओं में विद्यमान है और हम हैं कि विकास को लालच में बदलकर भ्रष्टाचार को जन्म देकर पर्यावरण की फैशनेबल बातें करते हैं। इस फैशनेबल पर्यावरण के शौक ने विश्व विषय की गंभीरता को खत्म कर दिया। जब नकली सिक्के प्रचलन में आ जाते हैं तो असली सिक्के को भी लोग नकली ही समझने लगते हैं। पर्यावरण के साथ भी यही खिलवाड़ हो रहा है। हमारी सरकारों के प्रयास भी बनावटीपन लिए हुए हैं जहां करोड़ों वृक्ष लगाने के दावे किए जाते हैं वही सरकारें हजारों सालों से विकसित जंगलों को काटने में कतई नहीं हिचकती ! अभी हम बारां जिले के शाहबाद के जंगल को देख रहे हैं जहां एक अनावश्यक बिजली प्लांट के लिए जंगल को खत्म करने की इबारत लिखी जा चुकी है। उच्च न्यायालय के आदेश से ही यह काम रुक सका है । अभी कुछ दिन पहले तेलंगाना हैदराबाद और बकस्वाहा में जंगल को उजाड़ने की दर्दनाक घटना हुई है। जयपुर में भी जंगल उजाड़ने की घटनाओं के प्रति रोष है । पश्चिमी राजस्थान में ओरण तथा वन्य जीवों को बचाने के लिए लोगों को शहर और कस्बे बंद करने पड़ रहे हैं इन सब उदाहरणों से समझा जा सकता है कि हम पर्यावरण के प्रति कितने गंभीर हैं। यह शुभ संकेत है कि अब लोग बेजुबान पेड़ पौधों वन्यजीवों परिंदों को बचाने के लिए आवाज़ उठाने लगे हैं। ऐसा भी नहीं है कि सरकारें पर्यावरण को लेकर कुछ नहीं करती निश्चित ही सरकारी अपने स्तर पर बहुत कुछ करती है। हमारे ही देश के कुछ शहरों छत्तीसगढ़ के रायपुर मध्य प्रदेश का इंदौर और उज्जैन स्वच्छता में अग्रणी साबित हुए हैं तो सिक्किम में कांच के पानी की तरह साफ दिखने वाली नदी बहती है। चंडीगढ़ हमारे ही देश का एक राजधानी वाला शहर है जहां की हरियाली लोगों का मन मोहती है।
सरकारों की अपनी अजीब कार्य शैली है जो काम तो करतीं हैं लेकिन सही ढंग से नहीं करती। हजारों करोड़ खर्च करने के बाद भी स्वच्छता का काम गति नहीं पकड़ पकड़ रहा और नदियां प्रदूषण का शिकार बन गई। शहरों में कचरों के पहाड़ खड़े हो गए । सरकारों को इसका अहसास उन्हें तब होता है जब बर्बादी सामने आकर खड़ी हो जाती है। क्रमशः
(बृजेश विजयवर्गीय, स्वतंत्र पत्रकार एवं पर्यावरणविद्)
अमेरिका ने इराक ईरान और अन्य छोटे देशों में ऐसा किया है जबकि उद्देश्य तेल के भंडारों पर अधिकार जमाना है।
हम भारतीय संदर्भ में बात नदियों की करते हैं तो उसमें गंगा का स्थान सर्वोच्च जो भागीरथ जी की लंबी तपस्या के बाद ज्येष्ठ माह में शुक्ल पक्ष की दशमी को धरती के लोगों का कल्याण करने के लिए अवतरित हुई। लोक कल्याण की इसी सोच ने गंगा और अन्य नदियों को मां का दर्जा दिया जो सर्वथा उपयुक्त है। लेकिन जब हम व्यवहार में देखते हैं तो आज भारत की समस्त नदियां प्लास्टिक पॉलिथीन एवं के प्रदूषण के कारण गंदगी ढोने ने वाली नदियां बन चुकी है। जिस देश की सनातन संस्कृति में नदियों को पूजने की परंपरा है वहां पर नदियां प्रदूषण रहे तो यह समाज और शासन,संत और महाजन सभी के लिए शोचनीय है। प्रकृति का अधिक से अधिक दोहन,शोषण की विकास का पर्याय बन चुका है। शिक्षा भी शोषणकारी हो तो विकास कल्याणकारी कैसे होगा? सनातन संस्कृति में पर्यावरण का संरक्षण परंपराओं में विद्यमान है और हम हैं कि विकास को लालच में बदलकर भ्रष्टाचार को जन्म देकर पर्यावरण की फैशनेबल बातें करते हैं। इस फैशनेबल पर्यावरण के शौक ने विश्व विषय की गंभीरता को खत्म कर दिया। जब नकली सिक्के प्रचलन में आ जाते हैं तो असली सिक्के को भी लोग नकली ही समझने लगते हैं। पर्यावरण के साथ भी यही खिलवाड़ हो रहा है। हमारी सरकारों के प्रयास भी बनावटीपन लिए हुए हैं जहां करोड़ों वृक्ष लगाने के दावे किए जाते हैं वही सरकारें हजारों सालों से विकसित जंगलों को काटने में कतई नहीं हिचकती ! अभी हम बारां जिले के शाहबाद के जंगल को देख रहे हैं जहां एक अनावश्यक बिजली प्लांट के लिए जंगल को खत्म करने की इबारत लिखी जा चुकी है। उच्च न्यायालय के आदेश से ही यह काम रुक सका है । अभी कुछ दिन पहले तेलंगाना हैदराबाद और बकस्वाहा में जंगल को उजाड़ने की दर्दनाक घटना हुई है। जयपुर में भी जंगल उजाड़ने की घटनाओं के प्रति रोष है । पश्चिमी राजस्थान में ओरण तथा वन्य जीवों को बचाने के लिए लोगों को शहर और कस्बे बंद करने पड़ रहे हैं इन सब उदाहरणों से समझा जा सकता है कि हम पर्यावरण के प्रति कितने गंभीर हैं। यह शुभ संकेत है कि अब लोग बेजुबान पेड़ पौधों वन्यजीवों परिंदों को बचाने के लिए आवाज़ उठाने लगे हैं। ऐसा भी नहीं है कि सरकारें पर्यावरण को लेकर कुछ नहीं करती निश्चित ही सरकारी अपने स्तर पर बहुत कुछ करती है। हमारे ही देश के कुछ शहरों छत्तीसगढ़ के रायपुर मध्य प्रदेश का इंदौर और उज्जैन स्वच्छता में अग्रणी साबित हुए हैं तो सिक्किम में कांच के पानी की तरह साफ दिखने वाली नदी बहती है। चंडीगढ़ हमारे ही देश का एक राजधानी वाला शहर है जहां की हरियाली लोगों का मन मोहती है।
सरकारों की अपनी अजीब कार्य शैली है जो काम तो करतीं हैं लेकिन सही ढंग से नहीं करती। हजारों करोड़ खर्च करने के बाद भी स्वच्छता का काम गति नहीं पकड़ पकड़ रहा और नदियां प्रदूषण का शिकार बन गई। शहरों में कचरों के पहाड़ खड़े हो गए । सरकारों को इसका अहसास उन्हें तब होता है जब बर्बादी सामने आकर खड़ी हो जाती है। क्रमशः
(बृजेश विजयवर्गीय, स्वतंत्र पत्रकार एवं पर्यावरणविद्)
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