
#सर्वमित्रा_सुरजन
खबर है कि दिल्ली चिड़ियाघर को जल्द ही निजी हाथों के जिम्मे सौंपा जा सकता है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय के बीच इस संदर्भ में कई बैठकें हो चुकी हैं, जिसमें गुजरात के जामनगर में स्थित वनतारा परियोजना की तर्ज पर दिल्ली चिड़ियाघर को आधुनिक रूप देने की योजना पर चर्चा हुई है। नई योजना के तहत चिड़ियाघर में वन्यजीवों को उनकी प्राकृतिक जीवनशैली के करीब वातावरण उपलब्ध कराया जाएगा। इसके लिए विश्वस्तरीय सुविधाएं विकसित की जाएंगी, जिनमें वातानुकूलित चिकित्सा केंद्र, आधुनिक पुनर्वास केंद्र आदि शामिल होंगे। जानवरों को खुले जंगल जैसी आज़ादी देने की भी योजना है ताकि वे अपनी प्राकृतिक प्रवृत्ति के अनुसार जीवन बिता सकें।
जानवरों को बेहतर परिस्थितियों में रखना, उनके इलाज की उत्कृष्ट व्यवस्था और लुप्तप्राय प्राणियों के संरक्षण का प्रयास, यह सब सुनने में काफी अच्छा लगता है। मगर गौर करें तो इसमें निजीकरण का बड़ा षड्यंत्र दिखाई दे रहा है। गौरतलब है कि 214 एकड़ में फैला दिल्ली चिड़ियाघर एशिया के बेहतरीन चिड़ियाघरों में से एक है। यहां अलग-अलग महाद्वीपों से लाए गए पशु- पक्षियों की लगभग 22 हजार प्रजातियां और 200 प्रकार के पेड़ हैं। एक पुस्तकालय भी है, जहां वन्यजीव, जैव विविधता आदि पर ढेरों पुस्तकें हैं।
कहने का आशय यह कि इतने उम्दा चिड़ियाघर को और बेहतर बनाने की मंशा अगर सरकार की है तो उसके लिए दीर्घकालिक योजना बनाकर चरणबद्ध तरीके से उसे लागू किया जा सकता है। अब तक जिस तरह वन्य जनजीवन पर पूरी तरह सरकार का नियंत्रण रखकर संरक्षण-संवर्धन किया जाता रहा है, वही सिलसिला जारी रखने में आखिर अब क्यों अड़चन आ रही है, क्यों चिड़ियाघर के आधुनिकीकरण के नाम पर निजी क्षेत्र के लिए दरवाजे खोले जा रहे हैं।
इसका जवाब सरकार अच्छे से जानती है, लेकिन शायद कार्पोरेट पूंजी का दबाव इतना बढ़ चुका है कि अब सरकार के लिए किसी भी बात पर ना कहना संभव नहीं रहा। पूंजीवाद का मुंह सुरसा की तरह बढ़ता जा रहा है और इसमें जितने भी निवाले चले जाएं, सब कम ही पड़ेंगे। तीन-चार दशक पहले जब बोतलबंद पानी की बिक्री शुरु हुई तो सवाल उठे थे कि प्रकृति की इस अनुपम देन पर सौदेबाजी कैसे की जा सकती है, क्या कल को हवा भी बिकेगी। और देखिए कि अब पानी भी बिकता है, प्राणवायु यानी ऑक्सीजन भी बिकती है, इसे न्यू नॉर्मल मान लिया गया है। छत्तीसगढ़ में नदी और तालाब बिकते सबने देखा है। निजीकरण का दायरा बढ़ता गया तो विमानतल, रेलवे, दूरसंचार, खनिज संपदा से भरी खदानें, बंदरगाह सब बिक गए।
शिक्षा और स्वास्थ्य तो पहले ही निजी हाथों के हवाले हो चुके हैं। एक तरह से देखा जाए तो मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं, बुनियादी सुविधाओं से लेकर जीवन को बेहतर बनाने वाले हर क्षेत्र में व्यापार का शिकंजा कस गया। यह सब अकेले कारोबारियों के बस की बात नहीं थी, अगर ऐसा तो पुराने जमाने में सेठ-साहूकार ही सरकार चलाते। लेकिन जब तक लोकतंत्र और सत्ता का इकबाल बुलंद था, तब तक कारोबारियों, उद्योगपतियों को मुनाफाखोरी की खुली छूट नहीं मिली थी। उन्हें अपनी पीठ पर हाथ रखने की इजाज़त न किसी प्रधानमंत्री ने दी, न किसी मुख्यमंत्री ने दी। लेकिन अब यह सब पूरी निर्लज्जता के साथ होता है। अब सरकारी अस्पतालों, शिक्षा संस्थानों का भूमिपूजन या शिलान्यास प्रधानमंत्री करते हैं, और जनता को बताते हैं कि आपको सौगात दे रहा हूं। उसके बाद वह बना या नहीं बना, इसकी चर्चा नहीं होती। सौगात सरकारी फाइलों में बंद हो जाती है। लेकिन निजी अस्पतालों, शिक्षा संस्थानों का उद्घाटन प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों के हाथ होता है और समाज सवाल भी नहीं करता कि इनकी मुनाफाखोरी में आप हिस्सेदार हैं या नहीं, क्योंकि आखिर उसे पढ़ने, इलाज करने, आवागमन, वार्तालाप करने सबके लिए निजी क्षेत्रों पर निर्भर रहने की मजबूरी हो गई है। जबकि इन बुनियादी सुविधाओं के लिए वह भारी शुल्क अदा करता है और सरकार को कर चुकाता है, वह अलग।
जब इंसानी जिंदगी के नाम पर इतना मुनाफा निजी क्षेत्र कमा रहे हैं, तो फिर जल, जंगल, जमीन, जानवर क्यों बख्शे जाएं। लिहाजा अब दिल्ली चिड़ियाघर के निजीकरण की सुगबुगाहट चल रही है। अगर यह योजना वाकई सफल हो जाती है, तो दिल्ली के पुराना किले के पास की इतनी बड़ी जमीन पर मनमाने खेल करने की छूट उस कंपनी को मिल जाएगी, जिसके पास चिड़ियाघर का मालिकाना हक हो जाएगा।
जामनगर में बना वनतारा बनने की हकीकत तो देश देख ही चुका है। खुद प्रधानमंत्री उसका उद्घाटन कर आए। प्राणिविशेषज्ञ सवाल करते रह गए कि किस तरह दुनिया भर के वन्यजीवों को इस तरह लाने और निजी जंगल में पालने की अनुमति दी गई। बीमार जानवरों की देखभाल की आड़ में अगर कोई अवैध कारोबार हो रहा होगा, तो उसकी जवाबदेही कैसे तय होगी, लेकिन उसका कोई जवाब नहीं मिला। जानवरों की खाल, नाखून, सींगों समेत उनके अंदरूनी अंगों की वैश्विक बाजार में बड़ी मांग है। दवा, वस्त्र, सौंदर्य प्रसाधन आदि में इनका इस्तेमाल होता है। ऐसे में क्या गारंटी है कि पशु संरक्षण की आड़ में अवैध कारोबार नहीं होता, न आगे होगा। वनतारा के प्रचार के लिए प्रधानमंत्री पहुंचे तो फिल्म, खेल और मीडिया जगत के तथाकथित सितारों ने भी इसकी तारीफ की। उनसे पूछा जाना चाहिए कि आप किस हैसियत से निजी जंगल और वहां पल रहे जानवरों की हिमायत कर सकते हैं, क्या वे वन्यजीव संरक्षण के जानकार हैं। अगर नहीं तो फिर इस प्रचार से उन्हें कौन सा लाभ मिल रहा है, यह पूछा जाना चाहिए।
वनतारा की तर्ज पर दिल्ली चिड़ियाघर को विकसित करने की खबर सावधान करने के लिए काफी है कि निजीकरण कैसे केवल इंसानों नहीं बल्कि प्रकृति को भी अपनी जद में लेता जा रहा है। फिलहाल लोकतंत्र में आवाज़ उठाने के लिए कुछ स्वतंत्र मंच बचे हैं, लेकिन कहीं चिड़ियाघर के बाद इन मंचों की भी बारी आ गई तब क्या होगा, यह सोचकर ही डर लगता है।
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)