बादल फटना प्राकृतिक आपदा या मानव जनित कुकृत्य?

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प्रतीकात्मक फोटो

*बादल पहाड़ों में ही नहीं रेगिस्तान में भी फटते हैं।

-बृजेश विजयवर्गीय

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बृजेश विजयवर्गीय

उत्तराखंड के उत्तरकाशी के धराली गांव पर बादल फटने की घटना को हम सामान्य रूप से प्रकृति का प्रकोप बताकर अपनी जिम्मेदारियां से पल्ला झाड़ लेते हैं और इसी तरह त्रासदी के शिकार लोगों को राहत पहुंचाने और कुछ मुआवजा बांटने के बाद फिर नई दुर्घटना का इंतजार करते हैं। हमारी यही त्रासदी है । उत्तरकाशी की ताजा घटना से हमें सबक लेना चाहिए कि पहाड़ों के खतरनाक स्थानों पर अनावश्यक निर्माण को हतोत्साहित करना होगा। यह सच है कि प्रकृति से कोई जीत नहीं सकता लेकिन यह भी उतना ही सच है कि हम नुकसान को न्यूनतम तो कर सकते हैं। बादल फटने की घटनाओं के तमाम समाचारों को पढ़ने के बाद हम इसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि हमारी सरकारों ने 2002 की वन एवं वन्य जीव संरक्षण नीति को त्याग दिया और 2022 में उसमें कई तरह के संशोधन कर वन कानूनों को कमजोर बना दिया। इस नीति के तहत नदियों के किनारे और वन्य जीव अभ्यारण के किनारे के 10 किलोमीटर क्षेत्र को ईको सेंसिटिव जोन यानी पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया जाना था। उसके बाद हुआ यह की सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकारों के दबाव में ईको सेंसेटिव जोन की सीमाओं को घटाने का अधिकार उन्हीं लोगों को दे दिया जो पर्यावरण से छेड़छाड़ करना चाहते थे। आज हम देखते हैं कि हमारे वनों और वन संपदा पर इसी प्रकार के नियोजित विकास का खतरा मंडरा रहा है। बादल केवल पहाड़ों में ही नहीं फटते।मैदानी इलाकों और यहां तक राजस्थान के रैगिस्तान में भी बादल फट चुके हैं। पहाड़ भी गिर रहे हैं।
अब से सवाल यह उठता है कि बदल फैट क्यों हैं? मौसम विज्ञान के अनुसार नमी के साथ चलने वाली हवाओं क्यूमिलोनिंबस सीमित क्षेत्र में इकट्ठा होना और गर्म हवाओं के साथ बादलों का संघर्ष ही इसका प्रमुख कारण समझ में आ रहा है। जब बादल भारी मात्रा में पानी लेकर चलते हैं तो उनकी राधा में बढ़ाएं आ जाती है और संघनन बहुत तेजी से होता है। वैज्ञानिक विश्लेषण तो हमेशा चलता रहेगा लेकिन यहा मानवीय त्रासदी और भारी नुकसान को बचाने की जिम्मेदारी किसकी है इस पर विचार किया जाना आवश्यक है। देश के जाने-माने पर्यावरणविदों ने कई बार चेताया है कि पहाड़ी क्षेत्रों में अनावश्यक निर्माण और विकास की गतिविधियों को बंद किया जाए। पर्यावरणविदों की चेतावनी को भविष्यवाणी ही मानना चाहिए। खतरनाक स्थानों पर लोगों की बसावट को नियंत्रित किया जाए। माननीय न्यायालयों ने भी इस चेतावनी पर अपनी मुहर लगाई है। फिर भी हम सुनने और समझने को तैयार नहीं है। विकास का लालच ही इस प्रकार की त्रासदियों का मुख्य कारण है। आज जब हम हमारे आसपास की घटनाओं को देखते हैं तो भविष्य की तस्वीर साफ दिखाई देती है कि इस तरह की घटनाएं अवश्यसंभावी है ‌। हम देख रहे हैं कि हमारी सरकारी किस प्रकार पहाड़ों की सीमाएं घटाती जा रही है। वेध और अवैध खनन विकास का मानक मानकर इन्हें अनवरत बढ़ावा दिया जा रहा है। नदियों का ईको सेंसेटिव जोन कम करती जा रही हैं। राजस्थान के बारां जिले में शाहाबाद के जंगल कंजर्वेशन रिजर्व को काटने की योजना पिछली सरकार बना चुकी थी अब नई सरकार इसको अमल में लाना चाहती है। ऐसा ही अरावली क्षेत्र के सरिस्का में जहां बाघों के शावक किलकारी करते हों वहां से उन्हें खदेड़ा जा रहा है। जयपुर शहर के बीच “डोल का बाढ़” में स्थापित जंगल को समाप्त कर दिया गया ‌जबकि सरकार नगर वन बनाने की योजना पर काम कर रही है। अजीब विरोधाभास है।
एक दूसरे के पाप अपने सिर पर मढ़ने की कला दृष्टिगोचर हो रही है।
जो पहाड़ हमारे सुरक्षा कवच हैं।हमारी सनातन संस्कृति में हिमालय को भारत का उन्नत भाल बताया जाता है ‌आज वहां विस्फोटकों धमाके हो रहे हैं ।तो पहाड़ों का दरकना स्वाभाविक है‌।
गंगा और भागीदारी केक किनारो को 10 किलोमीटर तक इको सेंसेटिव जोन घोषित किया जाए एवं पर्यटन विकास और हाइड्रो पावर प्लांट के नाम पर बन रही अनर्थकारी योजनाओं को खत्म किया जाए। अन्यथा एसी आपदाएं भविष्य में भी आती रहेगी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)

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