
चरम पर कभी भी जीवन का अस्तित्व नहीं होता है। अर्थात् व्यक्ति न सर्वाधिक खुश रहकर जीवित रह सकता है और न ही सर्वाधिक दुःखी रहकर। वैसे ही जैसे हम बहुत दिनों तक अकेलेपन या एकांत में नहीं डूबे रह सकते हैं और न लम्बे समय तक शोरगुल में ही। जीवन शायद संतुलन का दूसरा नाम है। जैसे जीवन न इस छोर है न उस छोर, जीवन कहीं दोनों छोरों के बीच में है। इसी तरह अकेलापन न अच्छा है, न ख़राब। वह अच्छे और ख़राब के बीच में कहीं है।
-भावेश खासपुरिया-

अकेलापन क्या है? शायद एक ऐसी भावना जहाँ व्यक्ति हर मानवीय या मानवेत्तर संबंध से स्वयं को अलग पाता है या कर लेना चाहता है। अब यह भावना उसे किसी के भी द्वारा सौंपी जा सकती है, जिसे स्वीकार या अस्वीकार करना व्यक्ति के हाथ में है। और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि व्यक्ति इस भावना का स्वयं भी अपने लिए चुनाव करता है। अज्ञेय भी लिखते हैं कि – “मैं अकेलापन चुनता नहीं हूँ, केवल स्वीकार करता हूँ।”
हम भावुकता के दृष्टिकोण से सोचें तो जिस जगह से किसी चित्रकार के रंग में भीगे हुए ब्रश ने जन्म लिया या किसी क़लमकार की स्याही में डूबी क़लम ने…हम उस स्थान को सबसे ख़राब कहने से बचना चाहेंगे या शायद ख़राब भी नहीं कह सकेंगे। हम उस जगह को सबसे ख़राब कैसे कह सकते हैं जिसने हमारे भीतर उस एक चीज़ को जन्म दिया जो हमें आजीवन आत्महंता होने से बचाती रहेगी? यह तो बिल्कुल ऐसा हुआ जैसे एक महिला अपनी कोख को इसलिए बुरा कहे, क्योंकि उसमें पलने वाले शिशु को जन्म देने के लिए उसे पीड़ा सहनी होगी।
और वहीं यदि व्यवहारिक दृष्टिकोण से देखें तो व्यक्ति एक सामाजिक जीव है, उसके लिए समाज वह परिधि है जिसके भीतर रहकर वह स्वयं फलता फूलता है और अपने परिवार को सुरक्षित महसूस करता है। उस व्यक्ति के लिए शायद अकेलापन ख़राब हो सकता है;लेकिन तब भी हम उसे सबसे खराब कहने से तो बचना ही चाहेंगे। सबसे खराब का अर्थ हुआ कि निम्न से निम्नतम। ऐसी जगह जहाँ किसी को होना ही नहीं चाहिए। जहाँ से आगे कोई राह ही नहीं निकलती है।
जबकि यह अधिकांश लोगों का सच है कि जीवन के किसी न किसी बिंदु पर कुछ क्षण के लिए ही सही हर व्यक्ति अपने आस-पास के सभी कुछ से उकता कर स्वयं को उनसे अलग कर लेना चाहता है। व्यक्ति की इस अस्थाई भावना को आप एकांत के प्रति उसका आग्रह कह सकते हैं, लेकिन एकांत तो हमें शहर के या अपने घर के किसी न किसी कोने में मिल सकता है। एकांत चाहने में और स्वयं को हर रिश्ते से अलग कर लेने की इच्छा में भेद है।
व्यक्ति के ऊपर थोपा हुआ अकेलापन ख़राब हो सकता है;लेकिन स्वयं से अपने लिए चाहे हुए अकेलेपन के विषय में यह कहने में संशय है। जबकि दोनों ही तरह का अकेलापन सबसे खराब तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि दोनों ही में कला के जन्म की संभावना तो बराबर बनी रहती है और जहाँ यह संभावना है वहाँ जीवन की आशा तो है ही।
चरम पर कभी भी जीवन का अस्तित्व नहीं होता है। अर्थात् व्यक्ति न सर्वाधिक खुश रहकर जीवित रह सकता है और न ही सर्वाधिक दुःखी रहकर। वैसे ही जैसे हम बहुत दिनों तक अकेलेपन या एकांत में नहीं डूबे रह सकते हैं और न लम्बे समय तक शोरगुल में ही। जीवन शायद संतुलन का दूसरा नाम है। जैसे जीवन न इस छोर है न उस छोर, जीवन कहीं दोनों छोरों के बीच में है। इसी तरह अकेलापन न अच्छा है, न ख़राब। वह अच्छे और ख़राब के बीच में कहीं है।
तो फिर प्रश्न आता है कि व्यक्ति के रहने के लिए सबसे ख़राब जगह कौनसी है? शायद नाउम्मीदी या व्यक्ति का पूर्णतः आशाहीन हो जाना। जहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ अंधकार है। जैसे नाउम्मीदी अमावस की रात का आकाश है और अकेलापन पूर्णिमा की रात का। अकेलेपन के अंधेरे में बहुत थोड़ा ही सही, किंतु आशा और उम्मीद के चंद्र के लिए स्थान तो है।
अंत में यह कह देना सभी की अभिव्यक्ति के सम्मान के लिए उचित जान पड़ता है कि सभी के लिए सही और ग़लत के मायने अलग-अलग होते हैं। हो सकता है कि जो हमारे लिए सही है वह किसी और के लिए ग़लत हो और जो किसी और के लिए सही हो, वह हमारे लिए ग़लत। इस बात का सार इतना ही है जो मोहन राकेश ने भी लिखा है कि -“हर व्यक्ति अपनी जगह सही होता है और वास्तविक संघर्ष सही और ग़लत के बीच न होकर सही और सही के बीच ही होता है।” अतः हो सकता है कि कुछ लोग अपनी जगह सही हों और कुछ अपनी जगह ग़लत न हों।
©भावेश खासपुरिया
कोटा (राज.)

















