सरकारों की विकासलीला

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फोटो सोशल मीडिया

#सर्वमित्रा_सुरजन

उत्तराखंड के धराली में बादल फटने की घटना ने एक बार फिर केदारनाथ हादसे की याद दिला दी है, जिसमें हजारों जिंदगियां तबाह हो गई थीं। केदारनाथ से धराली के बीच बाढ़ और भूस्खलन के कई और हादसे देश के अन्य इलाकों में हो चुके हैं। जान-माल का भारी नुकसान होने के बावजूद ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से कोई सबक हमने नहीं लिया है। हर बड़ी दुर्घटना को प्रकृति की विनाशलीला कहकर अपने सिर से जिम्मेदारी झटक दी जाती है। हम कभी यह नहीं कहते कि ये दुर्घटनाएं लोभी सरकारों की विकासलीला का परिणाम हैं। हिमालय को भारत का मुकुट बताकर उस पर गर्व करना, हिमालय की सुंदरता का बखान, उस पर धार्मिक पहचान का ठप्पा इन सबके चक्कर में हिमालय की वास्तविकता से आंख चुराई जाती रही। सत्ता में बैठे बहुत कम लोग इस बात की फिक्र करते हैं कि उनके फैसलों का असर भौगोलिक संरचना को कैसे बिगाड़ रहा है।
मंगलवार को धराली में सैलाब ने बस्ती को उजाड़ दिया। हर्षिल क्षेत्र में खीर गंगा गदेरे (गहरी खाई या नाला) का जलस्तर अचानक बढ़ने से धराली गांव में एक के बाद एक बड़ी लहरें आई और समूचे गांव को मिनटों में सूना कर दिया। इस घटना में 40 से 50 घर बह गए हैं और सौ से ज्यादा लोग लापता बताए जा रहे हैं। असल में कितनों की मौत हुई, कितने बचे, कितने लापता हुए इसका कुछ पता नहीं है। एक स्थानीय नागरिक के मुताबिक गांव के ज़्यादातर लोग एक पूजा में शामिल होने की तैयारी कर रहे थे। चार अगस्त की रात और पांच अगस्त की सुबह भी पूजा थी। पूरा गांव पूजा में शामिल हो रहा था, अगर हादसा चार तारीख को होता, तो शायद नुकसान और बड़ा होता। गौरतलब है कि धराली गंगोत्री के रास्ते में पड़ता है और ये जगह हर्षिल वैली के पास है, यहीं कल्प केदार का है, जहां श्रद्धालु दर्शन करने के लिए आते हैं। चारधाम यात्रा का रास्ता धराली से होकर भी गुज़रता है. ऐसे में श्रद्धालु कई बार धराली के होटलों में भी रुकते हैं।
खीरगंगा के उफन कर बहने का वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है। वीडियो में दिखाई दे रहा है कि छोटे-बड़े घरों, दो मंजिला मकानों, होटलों तक सब सैलाब में बहते गए, वीडियो में घबराए लोगों की चीख-पुकार भी सुनी जा सकती है, वहीं पहाड़ के ऊपर की तरफ से लगातार सीटियों की आवाज सुनाई दे रही है। दरअसल ये सीटियां मौजमस्ती की नहीं, बल्कि चेतावनी की है। मुखबा गांव से धराली गांव के ऊपर के क्षेत्र की पहाड़ियां दिखाई देती हैं। मुखबा के लोगों ने पहाड़ी से जैसे ही खीर गंगा को उफन कर नीचे आते देखा तो धराली के लोगों को आगाह करने के लिए सीटियां बजानी शुरू कर दी। अब इस चेतावनी को कितनों ने समझा और कितनों ने अपनी जान बचाई, इसका कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। वैसे स्थानीय लोगों के मुताबिक पहाड़ों पर सीटी बजाकर आपदा की सूचना देने का तरीका काफी पहले से आजमाया जाता रहा है।
पहाड़ों की कहानियों, मुहावरों, लोकोक्तियों में भी कई तरीके से इस बात को समझाया गया है कि जंगल, नदी, पहाड़ों के साथ इंसान का व्यवहार कैसा होना चाहिए। अगर इंसान अपनी हद पार करे तो फिर क्या नुकसान हो सकता है, यह भी लोकभाषा में वर्णित है। मगर आधुनिकता की हनक में लोक संस्कृति, व्यवहार और भाषा का तिरस्कार किया जाता है, जिसका खामियाजा कभी न कभी भुगतना ही पड़ता है। उत्तराखंड को लेकर काफी अर्से से चेतावनी दी जाती रही है कि यहां का मिज़ाज समझ कर ही फैसले लिए जाने चाहिए। किंतु इन चेतावनियों को लगातार नजरंदाज कर धर्म के नाम पर पर्यटन को बढ़ाना और विकास के नाम पर पहाड़ों का दोहन जारी है। विकास और रोजगार के नाम पर तेजी से पहाड़ों को काटा जा रहा है, कहीं सुरंग, कहीं पुल, कहीं सड़कें बन रही हैं। लाखों पेड़ काटकर, जंगल उजाड़ कर कारखाने लगाए जा रहे हैं, बड़े बांध बन रहे हैं। इन सबका दुष्परिणाम बार-बार सामने आ रहा है। हर बार तबाही के बाद सरकार के रटे-रटाए वाक्य सामने आते हैं कि मुश्किल की इस घड़ी में हम लोगों के साथ हैं। यथासंभव राहत और बचाव कार्य चलाया जा रहा है। मृतकों के लिए हमारी संवेदनाएं हैं। मगर अब जनता को पूछना चाहिए कि क्या वाकई आपकी संवेदनाएं हमारे साथ हैं, अगर हैं तो फिर बार-बार ऐसे हादसे क्यों हो रहे हैं।
मंदिरों में भीड़ बढ़ाने के लिए कहीं ऑल वेदर रोड बन रही है, कहीं हेलीकॉप्टरों से श्रद्धालुओं का आवागमन हो रहा है। क्या दो मिनट वाले भोजन की तरह भक्ति का फल भी दो मिनट में चाहिए। पहले तीर्थाटन कठिन होते थे, क्योंकि व्यक्ति कष्ट सहकर अपने आराध्य के दर्शन करने पहुंचता था। दु:साध्य यात्रा कर व्यक्ति परमात्मा से पहले स्वपरिचय प्राप्त करता था। जीवन के उन पहलुओं पर विचार के अवसर तीर्थ यात्री को दुर्गम रास्तों पर मिलते थे, जो सांसारिक जीवन में मगन रहते हुए नहीं मिलते हैं। मगर अब व्यस्त जीवन से कुछ पल भक्ति के लिए निकालने हैं तो उसमें भी सारी सुविधाएं चाहिए। भक्त ज्यादा आएंगे तो मंदिरों में चढ़ावा ज्यादा आएगा, आसपास के व्यापार, कारोबार को बढ़ावा मिलेगा, हो सकता है कुछ लोगों के लिए कमाई के अवसर बढ़ें। लेकिन दो पल में ही कैसे ये सब तबाह हो सकता है, ये उत्तराखंड में फिर नजर आ गया है। विडंबना यही है कि प्रकृति के संदेश को समझ कर भी अनदेखा किया जा रहा है।

(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)

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