पद्मश्री डॉ. श्याम बिहारी अग्रवाल : भारतीय कला परंपरा के साधक का महाप्रयाण

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-डॉ. रमेश चन्द मीणा

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डॉ. रमेश चंद मीणा

प्रयागराज की सांस्कृतिक धरती ने 6 सितंबर 2025, शनिवार को एक ऐसा रत्न खो दिया, जिसकी अनुपस्थिति लंबे समय तक खलती रहेगी। वयोवृद्ध चित्रकार, शिक्षाविद और कला इतिहासकार पद्मश्री डॉ. श्याम बिहारी अग्रवाल का शनिवार (06.09.2025) की सुबह प्रयागराज स्थित अपने चक जीरो रोड के निवास पर निधन हो गया। हृदयगति रुकने से हुई उनकी मृत्यु ने सम्पूर्ण कला-जगत को शोकाकुल कर दिया। अभी कुछ ही दिन पूर्व, 1 सितंबर को उन्होंने अपना 83वाँ जन्मदिन मनाया था।
डॉ. अग्रवाल का जन्म 01 सितम्बर 1942 में सिरसा, मेजा (प्रयागराज) कस्बे में हुआ। बचपन से ही उनमें कला के प्रति गहरा रुझान था। वे बंगाल शैली के पुरोधा चित्रकार एवं कला गुरु क्षितीन्द्र नाथ मजूमदार के शिष्य रहे। उनके सान्निध्य में उन्होंने जलरंग वॉश तकनीक की बारीकियाँ सीखीं और आगे चलकर एक्रेलिक वॉश की दिशा में भी अभिनव प्रयोग किए।
कोलकाता के गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ आर्ट एंड क्राफ्ट से पाँच वर्षीय स्नातकोत्तर डिप्लोमा प्राप्त करने के बाद, उन्होंने 4 जनवरी 1968 को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दृश्य कला विभाग में अपने गुरु क्षितीन्द्र नाथ मजूमदार के स्थान पर व्याख्याता का पद ग्रहण किया।

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इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उनके अथक प्रयासों से चित्रकला में स्नातक (BFA), स्नातकोत्तर (MFA) और शोध कार्य (Ph.D.) का शुभारंभ हुआ। वर्ष 1979 में विश्वविद्यालय ने उनके शोध “भारतीय चित्रकला में रीतिकालीन साहित्य की अभिव्यक्ति” पर उन्हें डी.फिल. की उपाधि से विभूषित किया।
2003 में आचार्य पद से लगभग 35 वर्ष के सेवा काल पश्चात, सेवानिवृत्त होने के बाद भी उनका कला योगदान अविराम रहा। वे प्रयाग संगीत समिति से जुड़े और अध्यक्ष रहते हुए दृश्य कला संकाय की स्थापना की। इसके साथ ही, इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ में वे विजिटिंग प्रोफेसर रहे। ललित कला अकादमी, संग्रहालयों और विभिन्न विश्वविद्यालयों में आयोजित कार्यशालाओं व सेमिनारों में उनकी भागीदारी ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर विशिष्ट पहचान दिलाई।
डॉ. अग्रवाल ने छह दशकों से अधिक समय भारतीय चित्रकला और दृश्य कला को समर्पित किया। उनकी कला यात्रा विशेष रूप से वॉश चित्रण की साधना से जुड़ी रही। उन्होंने बसोहली, मेवाड़, कांगड़ा और बंगाल स्कूल की शैलियों का गहन अध्ययन और संरक्षण किया।
1965 में उनकी मेवाड़ शैली की चित्रकृति ‘वेणी गुंठन’ को इंदु रक्षिता पुरस्कार मिला, जिसने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया।
उनकी प्रमुख कृतियों में स्वर्णकार, संध्या दीप, युद्धभूमि की ओर, वीणा पाणी, लोकगीत–सोअर, मेघदूत, सबीह, लोहार, अभिसारिका, शकुंतला की विदाई,उन्मादिनी, चैतन्य, मौन संगीत, प्रतीक्षा, वार्तालाप, लहर और चाँद, दुग्धदोहन, श्याम तेरी मुरली न बजाऊ, सीता–राम, श्रद्धा, विरहणी, इंदिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री आदि शामिल हैं। नायिका भेद भी आपके चित्रण का मुख्य विषय रहा हैं। वे सिनेमा पोस्टरों के भी सृजक रहे।
डॉ. श्याम बिहारी अग्रवाल की कला को देखकर सहज ही अनुभव होता है कि यह केवल दृश्य आनंद का माध्यम नहीं, बल्कि एक आंतरिक साधना का परिणाम है। उनकी कलाकृतियाँ वॉश प्रविधि की अद्भुत प्रभाविता से निर्मित होती हैं, जहाँ रंगों की पारदर्शिता और जलरंग की लयात्मकता मिलकर प्रकाश का ऐसा वातावरण रचती है जो अलौकिकता की विशिष्ट परिधि में दर्शक को लपेट लेता है।

उनके चित्रों में रहस्यात्मकता का गहरा ताना-बाना बुना गया है। यह रहस्यात्मकता न केवल सौंदर्यात्मक है, बल्कि भारतीय जीवन-दर्शन, लोक-विश्वास और आध्यात्मिक मूल्यों की परंपरा से जुड़ी हुई है। वे एक ओर प्राचीन सांस्कृतिक बिंदुओं को परंपरागत ढंग से अपनी कला में गूँथते हैं, वहीं दूसरी ओर आधुनिकता की संवेदना और दृष्टि को भी स्थान देते हैं। इस संतुलन ने उनकी कृतियों को अद्वितीय और कालातीत बना दिया।

उनकी कलाकृतियाँ केवल रूप और वर्णों की सज्जा भर नहीं हैं, बल्कि विषय-वस्तु के साथ गहरे स्तर पर जुड़ी हुई हैं। सहृदय दर्शक जब उनके चित्रों को निहारता है, तो वह केवल रंग और आकृतियों को नहीं देखता, बल्कि एक आध्यात्मिक अनुभव से गुजरता है। उनकी कला में अथाह गहराई और अनन्तता है, जिसमें गोता लगाने पर नए-नए अर्थ उभरते हैं।
उनके चित्रों की एकल और सामूहिक प्रदर्शनियाँ देश-विदेश के विभिन्न स्थलों पर आयोजित हुईं। अनेक चित्र देश-विदेश के संग्रहालयों और निजी संग्रहों में सुरक्षित हैं।
डॉ. अग्रवाल न केवल चित्रकार बल्कि भावुक लेखक और कला इतिहासकार भी थे। उनकी हिंदी और अंग्रेजी में प्रकाशित प्रमुख पुस्तकें हैं – भारतीय चित्रकला का इतिहास, संत चित्रकला क्षितीन्द्र नाथ मजूमदार, पाश्चात्य चित्रकार, ललित कला निबंध, मानवाकृति एवं चित्र संयोजन, भारतीय चित्रकला: काव्य एवं संगीत आदि।
उन्होंने राज्य ललित कला अकादमी, लखनऊ के सदस्य रहते हुए नवोदित कलाकारों के लिए कार्य किया और ‘कला त्रैमासिक’ पत्रिका का संपादन भी किया।
कला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने ‘रूप शिल्प ललित कला संस्थान’ की स्थापना की, जिसने असंख्य नवोदित कलाकारों को मंच दिया। उनके लिए कला केवल व्यक्तिगत साधना नहीं, बल्कि सामाजिक धरोहर और भावी पीढ़ियों की अमानत थी।
28 अप्रैल 2025 को भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री सम्मान से अलंकृत किया। यह गौरव केवल उनका व्यक्तिगत नहीं, बल्कि प्रयागराज और भारतीय कला परंपरा की प्रतिष्ठा का प्रतीक था। उन्हें देश के अनेक विश्वविद्यालयों और कला शिविरों में विशेष रूप से सम्मानित किया गया।
डॉ. अग्रवाल का जीवन सादगी, साधना और सेवा का प्रतीक था। वे कलाकार होने के साथ-साथ सहृदय शिक्षक और मार्गदर्शक भी थे। अपने अंतिम दिनों तक वे सृजन में सक्रिय रहे और कला के उत्थान हेतु प्रयत्नशील रहे।
उनके निधन से कला-जगत में मानो एक युग का समापन हो गया, किंतु उनकी कृतियाँ, उनकी शिक्षा और उनका दृष्टिकोण सदैव जीवित रहेगा।
डॉ. श्याम बिहारी अग्रवाल केवल एक चित्रकार नहीं, बल्कि भारतीय कला परंपरा के सजग प्रहरी थे।
डॉ. अग्रवाल की कला का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य यही है कि वह व्यक्तिगत सौंदर्य बोध तक सीमित नहीं रहती, बल्कि लोक और राष्ट्र से गहरे सरोकार रखती है। उनकी चित्रकृतियाँ सांस्कृतिक स्मृति और राष्ट्रीय अस्मिता की प्रहरी रही हैं। यही कारण है कि उनके चित्रों में हमें एक ओर भारतीय परंपरा की सुगंध मिलती है और दूसरी ओर समकालीन समाज की धड़कन भी सुनाई देती है।

वस्तुतः डॉ. अग्रवाल की कला अलौकिक प्रकाश, रहस्यात्मक गहराई, परंपरा और आधुनिकता का समन्वय, तथा लोक-राष्ट्र सरोकार – इन सभी विशेषताओं से सुसंपन्न है। यही तत्व उन्हें भारतीय कला-जगत में विशिष्ट और अविस्मरणीय बनाते हैं।
सादर श्रद्धा सुमन
डॉ. रमेश चन्द मीणा
सहायक आचार्य- चित्रकला
राजकीय कला महाविद्यालय, कोटा(राज.)
मो. न. – 09816083135
rmesh8672@gmail.com

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