
-प्रो. गीताराम शर्मा

रक्षाबन्धन समग्र राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधने का त्योहार है। यह त्योहार यह प्रेरणा देता है कि हम सब प्राकृतिक रुप से एकात्मता के सूत्र में बंधे हुए हैं, इस एकात्मता की रक्षा हेतु कर्तव्य का बन्धन हमारी मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय है। अर्थात् कुछ पौराणिक सन्दर्भों से भले ही यह त्योहार भाई बहन के पवित्र रिश्ते की रक्षा के सीमित भाव से जुड़ गया हो किन्तु विराट भाव भूमि में यह त्योहार परमात्म स्वरुप समग्र अस्तित्व की रक्षा के लिए बन्धन को सहर्ष स्वीकार करने की प्रेरणा देता है। रक्षा के लिए सदैव बन्धन के कर्तव्य की प्रेरणा सदियों से संस्कृत भाषा देती रही है, सम्भवत: इसी भाव बोध के साथ 1969 में भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के आदेश से केन्द्रीय तथा राज्य स्तर पर संस्कृत दिवस मनाने का निर्देश जारी किया गया था। तब से संपूर्ण भारत में संस्कृत दिवस श्रावण पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। श्रावणी पूर्णिमा कर्तव्यबोध के साथ साथ संस्कृत दिवस के रुप में शैक्षणिक और अकादमिक इतिहास बोध की दृष्टि से हमारे लिए अति विशिष्ट है। प्राचीन भारत में इसी दिन शिक्षण सत्र का प्रारम्भ होता था । उपनयन संस्कार के बाद गुरुकुलों में वेदारम्भ और शास्त्राध्यन आरम्भ होता था। इसीलिए इस दिन को सांस्थानिक रुप में संस्कृत दिवस के रूप से मनाने की परम्परा 1969 में प्रारम्भ हुयी|आजकल देश में ही नहीं, विदेश में भी संस्कृत दिवस उत्सव बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है।
संस्कृत भाषा तथा उसका वाड़्मय भारत की विश्ववरेण्य भव्यता को सदियों से मौलिक रुप में सुरक्षित रखने व साहित्य,संस्कति ,कला,कौशल,धर्म,दर्शन,ज्ञानविज्ञान के श्रेष्ठतम प्रतिमानों को लोकानुग्रहकामना से आगे की पीढ़ियों के लिए हस्तांतरित करने की दृष्टि से अप्रतिम योगदान है।
संस्कृत सृष्टि के ऊषाकाल में स्वयंप्रसूत नाद से निष्पन्न वैज्ञानिक ध्वनि संकेतों की समुच्चय रुपा दिव्या भाषा तथा विश्व की मधुरा भाषा होने के साथ साथ समग्र ऋषि चेतना की संवाहिका भारत की आत्मभूता भाषा है।भारत का समग्र आध्यात्मिक और भौतिक अस्तित्व,गौरवपूर्ण अतीत,संस्कृति , लोक शास्त्र द्वारा निर्मित और समय सापेक्ष परिष्कृत परम्परायें,जीवन आदर्श,व्यष्टि और समष्टि के प्रति नैष्ठिक दायित्वबोध, ज्ञानविज्ञाननिष्ठा, पर्यावरण के प्रति आत्मीयता की अनुभूति, पूर्वजों के आचारपूत अनुभव,भद्र संकल्प,लोकविज्ञानकलाप्रावीण्य, पुरुषार्थप्राधान्य जीवन की स्वीकृति, समुत्कर्ष और निश्रेयस् की सह साधना, स्थायित्व,व्यापक जीवन-दृष्टि ,समता-ममता-बन्धुतापूर्ण विश्वबन्धुत्व, समन्वय, समरसतापूर्ण एकात्म सांस्कृतिक राष्ट्रवाद उदात्त जीवनमूल्याधारित जिजीविषा , संस्कारप्राधान्य, ,द्वन्द्वसहिष्णुता,तितिक्षा, विशुद्ध मानवतावाद जैसे महनीय गुणों से भासित होता है। ऐसे उदात्त और सुदीर्घ काल से ख्यात सुसंस्कृत सभ्य और भव्य भारत के स्वरुप को संस्कृत भाषा सदा से अभिव्यक्त करते हुए यह प्रमाणित करती रही है कि संस्कृत और संस्कृति की युति ही भारत का सर्वस्व है-“भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृततिस्तथा ”
संस्कृत भाषा और वाड़्मय से सींचे गये संस्कार जीवन भर यान्त्रिक जगत की यातनाओं के सन्त्रास से त्रस्त व्यक्ति को आश्वस्त करते हैं इस लोक में और लोकान्तर में रक्षा के लिए आश्वस्त करते हैं।।आज जानने और जीने दोनों के लिए संस्कृत से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। इसलिए कहा गया है कि विभिन्न ज्ञान, विज्ञान,विद्या और कलाओं का वेत्ता होने पर भी जो संस्कृत नहीं जानता, वह स्वयं को भी नहीं जानता।
वह संस्कृत ही है जिसमें तत्व ज्ञान की जितनी गहराई है उतनी ही आचरण की ऊंचाई भी।आधिभौतिक,आध्यात्मिक और आधिदैविक सभी ध्येयों के लिए त्रिपथगामिनी गंगा के समान संस्कृत गंगा सर्वविध कल्याणमयी है।अत: ठीक ही कहा गया है- ” संस्कृत संस्कृति की मूल है। ज्ञान विज्ञान का महासागर है। वेदतत्वार्थ से युक्त सम्पूर्ण लोक में ज्ञान और चरित्र का प्रकाश फैलाकर जगत का कल्याण करती है-
“संस्कृतं संस्कृते: मूलं ज्ञानविज्ञान वारिधि।
वेद तत्वार्थ संजुष्टं लोकालोककरं शुभम्।।”
-प्रो. गीताराम शर्मा, कोटा