
-भावेश खासपुरिया-

मैं पूछता हूँ पंछी से –
“नीले खुले नभ में
निर्भय होकर उड़ते हुए
कैसी महसूस होती है तुम्हें
यह स्वच्छंदता?
पसरी धूप में
किसी मुंडेर पर बैठ
चोंच से दाना चुगते हुए
कैसी लगती है,
तृप्त होती आत्मा?
अपनों के संग
सुदूर किसी देश की
यात्रा पर निकलते हुए
कैसा लगता है,
चंचल परों का
फड़फड़ाना?”
पंछी सुनकर मौन रहता है
गहरी श्वास ले अनिमेष देखता है
जैसे मन ही मन कहता हो –
“उतने ही सुंदर,
जितने सुंदर होते हैं शब्द।”
उड़ान की थकान को
अपने परों में समेट
फिर वह उड़ जाता है
क्षितिज की ओर।
और शब्दों से
बोझिल यह मन
हो जाता है मौन।
©भावेश खासपुरिया

















