
-मनु वाशिष्ठ-

शरद! तुम्हारे आगमन से तन मन हर्षित,पांव डांडिए पर थिरकने को आतुर हैं। एक के बाद एक त्यौहार, पाहुणों का आगमन जो शुरू हो गया है। ठंडक भी दस्तक दे रही है, दिनों ने अपना आकार समेटना शुरू कर दिया है, रातों ने उदारता दिखाते हुए, आराम के लिए थोड़ा ज्यादा वक्त देना की सोच लिया है। चारों तरफ अब रौनक ही रौनक है फूलों से श्रृंगार, मालाएं, मंदिर सजाएंगे, मिठाई भोग लगेंगे, नृत्य भजन कीर्तन भी होंगे, इन सब चीजों से त्यौहार में चार चांद लग जाते हैं। आखिर मौका खुशियों का जो है सब अपने अपने घर द्वार कारोबार सजाने संवारने में लगे हैं। इसी उल्लास/ उमंग के बीच राह चलते एक होर्डिंग पर नजर पड़ती है, “दीवारें बोल उठेंगी!” कुछ भी विज्ञापन बना देते हैं, फिर लगा सही ही तो लिखा है, शायद तुम्हारे आगमन पर इन्हीं उल्लसित, हुलसित भावनाओं से प्रेरित कोई सृजनकर्ता पेंट का यह विज्ञापन सृजित कर पाया होगा “दीवारें बोल उठेंगी!”शरद! तुम्हारे आगमन की खुशी में कोई सजीव या निर्जीव, भला शांत कैसे रह सकता है?
शरद! तुम्हारे स्वागत में खेतों में खड़ी धान की फसल जब हवा पाकर झूमने लगती है तो, खेतों से निकल दूर आबादी तक इसकी खुशबू लोगों की नाक में पहुंच दीवाना बना देती है। इधर खेतों में कपास भी झक सफेद चांदी सी, बर्फ के गोले सी, फाहे उगलती, बाती बन आरती के थाल में स्वयं समर्पित होने तैयार खड़ी है। तुम्हारे स्वागत में बिटौरा (उपले रखने का सुरक्षित स्थान) पर छितराए हुए लौकी, तुरई के सफेद पीले फूलों पर विचरते भ्रमर/तितलियां अपनी ही धुन पर नृत्य में व्यस्त हैं। पपीहे की पीहू पीहू ने भी प्रियतम से मिल शांति अख्तियार कर ली है। नृत्य और नदियों में एक समानता है, जब ये गतिमान होते हैं तो अपनी जीवंतता दर्शाते हैं, और वो जीवंतता चहुं ओर ध्यान आकर्षित कर रही है। वर्षा रानी की विदाई हो चुकी है, नदियां भी उफान के बाद मानो अब थक कर विश्राम कर रही हैं। बच्चे भी किताबों को विराम दे, अपनी नई खरीदारी की योजनाओं में व्यस्त हैं। चहुं ओर उल्लास ही उल्लास है। त्यौहार बस आ ही गए हैं।
शरद! तुम्हारे आगमन की खुशी में कृष्ण भी कहां रुक पाए, उन्होंने मगन हो इस धरा पर शरद पूर्णिमा पर महारास करते हुए गोपियों की, भगवान शिव की साध पूरी की। तुलसीदास जी ने भी रामचरित मानस में शरद! तुम्हारे आगमन पर बहुत सुंदर अभिव्यक्ति दी है __
बरषा बिगत सरद रितु आई, लछमन देखहु परम सुहाई।
फूले कास सकल महि छाई। जनु बरषां कृत प्रगट बुढ़ाई।
भावार्थ _ हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई, मानो वर्षा ऋतु ने (कास रूपी सफेद बालों के रूप में) अपना बुढ़ापा प्रकट किया है। अद्भुत! सभी के अपने अपने भाव।
बहरहाल, मैं भी तुम्हारे स्वागत की तैयारियों में मगन, घर आंगन सजाने में व्यस्त हूं। जन्माष्टमी, गणेश उत्सव, गरबा महोत्सव, रासलीला उत्सव, दीपावली पंचपर्व के आनंददायक इन पलों को मुठ्ठी में भर लेना चाहती हूं। ताकि बाद में कोई अफसोस ना रहे __
साथिया नहीं जाना कि जी ना लगे,
मौसम है सुहाना कि जी ना लगे।
आश्विन से कार्तिक तक का समय (शरद) थोड़ा तुनकमिजाज भी है, समस्त व्यस्तताओं के साथ सेहत को अवश्य संभाल कर रखिएगा।
__ मनु वाशिष्ठ, कोटा जंक्शन राजस्थान

















