
-देशबन्धु में संपादकीय
एक ओर तो भारत विश्वगुरु होने का दावा कर रहा है, तो वहीं दूसरी तरह स्कूली शिक्षा में बड़ी गिरावट की रिपोर्ट सामने आ रही है जो बेहद चिंताजनक है। स्वयं केन्द्र सरकार द्वारा जो आंकड़े जारी किये गये हैं वे भारत की भयावह तस्वीर पेश कर रहे हैं- वर्तमान व भावी दोनों ही। कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि ज्ञान के बिना कैसा भारत बनेगा। वैसे तो सम्बन्धित विभाग द्वारा इन आंकड़ों को अब न्यायसंगत बतलाने की कवायद भी जारी है, लेकिन यथार्थ यही है कि शिक्षा के मामले में भारत में बड़ी गिरावट दर्ज हुई है। स्कूली शिक्षा ही उच्चतर शिक्षा, शोध और यहां तक कि अध्ययन के पश्चात देश को चलाने वाली पीढ़ी के स्तर को भी तय करती है। अगर नयी पीढ़ी का शैक्षणिक स्तर खराब रहा तो, जैसा कि आंकड़े बतला रहे हैं, देश का एक स्याह और निराशाजनक भविष्य ही दिखता है। सरकार को चाहिये कि तमाम मतांतरों को एक तरफ रखकर शिक्षा के स्तर को बेहतर बनाने में जुट जाये। सभी तरह के पूर्वाग्रहों को छोड़कर हर बच्चे को स्कूली शिक्षा, वह भी गुणवत्तायुक्त दिलाना सरकार का पहला कर्तव्य होना चाहिये।
शिक्षा मंत्रालय की एकीकृत जिला सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई) द्वारा साल 2023-24 की जो रिपोर्ट जारी की गयी है, उसके अनुसार इस वर्ष के दौरान देश भर के स्कूलों में 37 लाख नामांकनों की कमी आई है। यूडीआईएसई नामक यह प्लेटफॉर्म राष्ट्रीय स्तर पर स्कूलों के आंकड़े एकत्र करता है। उसके अनुसार 2022-23 में 25.17 करोड़ नामांकित विद्यार्थी थे जो 2023-24 में घटकर 24.80 करोड़ हो गये। छात्र 21 लाख और छात्राएं 17 लाख घट गयीं। अल्पसंख्यकों की संख्या 20 फ़ीसदी कम हुई। हालांकि इस विभाग के अधिकारी इन आंकड़ों को तर्कसंगत बताने की कोशिश करते हुए कह रहे हैं कि डेटा संग्रहण प्रणाली में परिवर्तन हुआ है। 2021-22 के पहले तथा अब के आंकड़ों में तुलना नहीं हो सकती और वास्तविक स्थिति अलग है। वे यह भी बतला रहे हैं कि 2030 तक सभी स्तरों तक स्कूली शिक्षा उपलब्ध कराई जायेगी। अन्य तथ्यों तथा विभागीय अधिकारियों द्वारा 2030 से सम्बन्धित तमाम दावों को एक ओर रख दिया जाये, तो भी इन आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि यह स्थिति कोई उम्मीद लेकर नहीं आती।
आधुनिक विश्व में शिक्षा का महत्व सभी जानते हैं। बगैर अथवा गुणवत्ताहीन शिक्षा के आधार पर कोई भी व्यक्ति, समाज या देश विकास की कल्पना भी नहीं कर सकता। जो भी देश आज अग्रणी, विकसित और सही मायनों में आधुनिक हैं, वे दरअसल अनिवार्य, सभी की सहज पहुंच वाली तथा गुणवत्तायुक्त शिक्षा व्यवस्था के कारण ही हैं। इसलिये आधुनिक भारत के निर्माताओं ने इस पर बहुत जोर दिया था। वर्षों की गुलामी से बाहर निकले भारत को सीमित संसाधनों व अनेक दुश्वारियों के बावजूद तेजी से विकास की राह पर अग्रसर करने के लिये आधुनिक शिक्षा प्रणाली की बुनियाद रखी गयी थी। देश भर में शासकीय स्कूलों एवं कॉलेजों का जाल बनाया गया। राष्ट्र निर्माताओं की वह ऐसी पीढ़ी-लिखी जमात थी जो उच्च शिक्षित तथा विद्वान थी। इसलिये उसे शिक्षा का महत्व मालूम था। इसी शिक्षा व्यवस्था ने देश को जल्दी ही आधुनिक देशों की पंक्तियों में ला खड़ा किया था। न सिर्फ शालेय शिक्षा बल्कि उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिये भी अल्प समय में कई विश्वविद्यालय, आईआईएम, इंजीनियरिंग, आईआईटी जैसे संस्थान खोले गये थे। इनसे निकले युवाओं ने देश के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ज़्यादातर सरकारों ने इसकी महत्ता को जान-समझकर देश की शिक्षा प्रणाली को बेहतर करने की उत्तरोत्तर कोशिशें कीं लेकिन 2014 में आई भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने इसकी जैसी उपेक्षा की, वैसी आज़ाद मुल्क ही नहीं वरन अंग्रेजी शासनकाल में भी नहीं हुई थी। यह उपेक्षा अनायास नहीं वरन सायास है और हीनभावना से ग्रस्त शासकों द्वारा की गयी है जो पढ़ने-लिखने से दूर तक नाता न रखने वाले हैं। प्रबुद्ध समाज को यह सरकार मानो अपना दुश्मन मानती है। इस मद में सरकार का बजट घटता चला गया है या उसका बड़ा हिस्सा उपयोग में नहीं लाया जाता। दशक भर में देश में बड़ी संख्या में स्कूल बन्द हुए हैं या ज़रूरी साधनों के बिना खाना-पूरी के लिये चल रहे हैं। एक सुनियोजित चाल के तहत शिक्षा को बेकार साबित करने की कोशिशें की जाती हैं। कभी ‘हार्वर्ड बनाम हार्ड वर्क’ कहकर विद्वता का मज़ाक उड़ाया जाता है तो कभी यह कहकर आधुनिक शिक्षा को खारिज किया जाता है कि ‘यह मैकाले की देन है’; या फिर ‘भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के लिये परम्परागत गुरुकुल खत्म कर दिये गये’।
इससे भी ख़तरनाक खेल यह खेला जा रहा है कि युवा पीढ़ी की रुचि ही शिक्षा या ज्ञान प्राप्ति में खत्म की जा रही है। स्कूलों के सिलेबस के जरिये गैर वैज्ञानिक और अतार्किक शिक्षा परोसी जा रही है। साथ ही, युवा व छात्र वर्ग अब शिक्षा में कम राजनीतिक व धार्मिक व्यक्तियों तथा संगठनों के एजेंडों को पूरा करने में व्यस्त है। सियासी व धार्मिक जुलूसों एवं गतिविधियों में नयी पीढ़ी का पूरा समय और ऊर्जा खप रही है। शिक्षा की ओर से यह पीढ़ी स्वयं मुंह मोड़कर सियासतदानों को अवसर दे रही है कि शिक्षा विभाग के खर्चों को कम कर सके। इस बाबत यदि कोई आवाज़ उठाता है तो उसे सरकार विरोधी या एक विचारधारा के खिलाफ़ मान लिया जाता है। भारत की बुनियादी शिक्षा कमज़ोर होती है तो वह सरकार व राजनीतिक दलों के लिये तो लाभदायक है, पर समाज व देश के लिये घातक साबित होगी।