
खिली हुई प्रकृति, खिली हुई धूप और खिली हुई यह जो वासंती चादर धरती पर दूर दूर तक बिछी हुई है वह यही तो कहती आ रही है कि कहां पड़े हो, अरे बंद कमरों में या कंक्रीट के जंगल में खो जाने का यह समय नहीं है, यह समय तो प्रकृति के विस्तृत आंगन में खिले हुए फूलों के साथ आह्लादित होते हुए मगन होने का है। यह समय मगन भाव का है और यह मगनता भी आंतरिक संसार की है।
– विवेक कुमार मिश्र

अहा बसंत। आह्लादित बसंत। इस समय पूरी प्रकृति खिली हुई मगन मन मिलती है। यह समय ऋतुराज का है। दूर दूर तक बसंत का ही राज होता है। प्रकृति का वैभव देखना हो तो निकल पड़े खेत की मेड़ों पर , सरसों के खेत में और बसंत के रंग व उत्सव को महसूस करें। सड़क के किनारे से जहां तक दृष्टि जाती है कोई और नहीं बस बसंत का उत्सव मनाती प्रकृति ही दिखाई देती है। चारों तरफ सरसों के फूल खिलें हैं। प्रकृति का हर कोना इस समय खिला ही दिखता है। सर्जना और रचना की देवी सरस्वती का प्राकट्य दिवस भी बसंत पंचमी है । बसंत के साथ ही वासंती मन खिल उठता है। बसंत अपनी घोषणा आने से पहले ही शुरु कर देता है, चारों तरफ एक उत्सव और उत्साह का रंग ही चल पड़ता है यहां कोई एक नहीं पूरी प्रकृति ही खिल जाती है। इस खिलने में सब साथ होते हैं क्या मानुष क्या जीव जगत सृष्टि के प्रत्येक क्षेत्र में बसंत का ही राज दिखता है। यह समय उल्लास का होता है, उर्जा का होता है, उत्साह का होता है । इस समय प्रकृति की देवी मां सरस्वती से सब एक ही प्रार्थना करते हैं कि हे मां मेरे भीतर सृजन का भाव, कुछ नया करने का उत्साह और जीवन संसार को उत्साह के साथ देखने की शक्ति और दृष्टि दें। बसंत बाहर से नहीं आता, बसंत भीतर की प्रकृति है जब तक हम अपनी भीतरी शक्तियों से खुश नहीं होते हैं तब तक हमारे भीतर बसंत नहीं आता न ही आंतरिक खुशी है। बसंत का सीधा संदर्भ जगत में खुशी बिखेरना है इस समय खुशी के फूल ऐसे खिले हैं कि देखते देखते मन आह्लादित हो जाता है। मन का झूम जाना ही तो बसंत है । जो बसंत में भी नहीं झूम सकता जिसे बसंत भी खुशी और खुशी का रंग नहीं दे सकता उसका क्या कीजियेगा । वह तो बस पड़ा और पड़ा ही रहना चाहता है।
बसंत बराबर से यहीं कहता आ रहा है कि प्रकृति के स्पंदन के साथ चलों, प्रकृति के रंग में रंग जाओ और मुक्त मन से आह्लादित होकर रचनात्मक बनों, अपने रचनात्मक भाव से सृष्टि के विस्तार में सहभागी बनते चलों… नित्य कुछ खिलते कुछ रचते गतिज मुद्रा में आगे बढ़ते रहो। प्रकृति के वैभव को बसंत पंचमी के पर्व के साथ महसूस करते हुए आगे बढ़ों, रचना की देवी मां सरस्वती हम सबके भीतर सृजन शक्ति को भरें हमारे भीतर खुशहाली का भाव हो और आंतरिक आह्लाद से उत्साहित होकर हम सब कार्य करते चलें। खिली हुई प्रकृति, खिली हुई धूप और खिली हुई यह जो वासंती चादर धरती पर दूर दूर तक विछी हुई है वह यही तो कहती आ रही है कि कहां पड़े हो, अरे बंद कमरों में या कंक्रीट के जंगल में खो जाने का यह समय नहीं है, यह समय तो प्रकृति के विस्तृत आंगन में खिले हुए फूलों के साथ आह्लादित होते हुए मगन होने का है । यह समय मगन भाव का है और यह मगनता भी आंतरिक संसार की है । रचनात्मकता की देवी मां सरस्वती हमारे आंतरिक वैभव को संरक्षित करती हैं यह कृपा भाव मां सरस्वती का , प्रकृति की देवी का , उत्साह और उल्लास की देवी सरस्वती का सभी पर बन रहे और सृष्टि मात्र में यह बासंती रंग समाया रहे बस यहीं तो बसंत कह रहा है । न जाने कब से बसंत इसी तरह कह रहा है कि खिलों , उल्लास और उत्सव के रंग में रचो बसों… काश ! बसंत के रंग और उत्सव को समझते हुए हम सब जीवन पथ पर आगे बढ़ते हैं तो सही मायने में हम सब बसंत को ही जी रहे होते हैं। बसंत जीने के उल्लास का पर्व है, मन की आनंद दशा का पर्व है और यह सब वाह्य संसार से होते हुए आंतरिक संसार की खुशी का पर्व है। इसीलिए बसंत कहता है कि पूर्णता में मगन हो जाओ और बसंत के फूलों के साथ ही तुम भी पूरा का पूरा खिल जाओ।