
-महेन्द्र नेह-
राजस्थान साहित्य अकादमी (उदयपुर) द्वारा कबीर पारख संस्थान, कोटा की सहभागिता में 5 फरवरी को ‘रैदास -जयंती ‘ और कबीर के अवसान -दिवस के अवसर पर आयोजित साहित्यिक -संगोष्ठी में स्थानीय रचनाकारों और कबीर के अनुयाइयों की सघन उपस्थिति के बीच ” कबीर साहित्य की प्रासंगिकता एवं सामाजिक चुनौतियां ” विषय पर बेहद तर्क-संगत एवं गंभीर विचार -विमर्श किया गया।
संगोष्ठी का प्रारंभ संत गुरुबोध दास एवं सुबोध दास के कबीर के पद की संगीतमय प्रस्तुति से हुआ . व्यंग्य कवि-लेखक गोरस प्रचंड ने अपने पात्र-वाचन में कबीर को सभी प्रचलित अवतारवादी -पैगम्बर वादी परम्पराओं का निषेध करते हुए सरे -बाज़ार -चौराहे पर निर्द्वंद खड़े होकर सामजिक यथार्थ को व्यक्त करने वाले युग प्रवर्तनकारी संत -कवि के रूप में प्रस्तुत किया . विशिष्ट वक्ता डॉ .अनिता वर्मा ने कहा कि कबीर सामाजिक -चेतना जगाने वाले ऐसे जन-कवि थे जो तत्कालीन जन-विरोधी व्यवस्था के विरुद्ध तन कर खड़े हो गए। वर्तमान परिद्रश्य में जब समाज पर रूढ़ियों और साम्प्रदायिक विचारों का घटाटोप निर्मित किया जा रहा है , कबीर जन -मुक्ति की परम्परा के सबसे बड़े प्रेरणा -पुंज के रूप में सामने आते हैं।
लेखक अतुल कनक ने कबीर को बुद्ध और महावीर स्वामी की लोकायत परम्परा से जोड़ते हुए प्रतिगामी मूल्यों के भंजक और वैकल्पिक संस्कृति के सर्जक के रूप में प्रस्तुत किया। राजस्थानी भाषा के कवि गीतकार मुकुटमणि राज ने कबीर को वर्ण व्यवस्था के अभिशापों से ग्रस्त समाज को साहित्यिक -सांस्कृतिक चुनौती देने वाले ऐसे संत-कवि बताया जो कविता को शोषक वर्ग के शिकंजे से मुक्त करा कर वंचितों और पीड़ितों के बीच ले गए और सामाजिक -समानता का ऐतिहासिक उद्घोष किया।
संगोष्ठी के प्रमुख वक्ता साहित्यकार अम्बिका दत्त चतुर्वेदी ने अपने वक्तव्य में कहा कि कबीर क्रांतिकारी समग्र चेतना के कवि थे। उनके साहित्य में संवेदनाओं और परिवर्तनकारी सामाजिक चेतना के जितने स्तर हैं , वे विश्व -साहित्य में किसी एक कवि के रचना -संसार में दिखाई नहीं देते। उन्होंने कहा कि जहां तुलसी की लोक चेतना एक स्थान पर आकर ठहर जाती है और वे अभिजात वर्ग की रुचियों में सिमट जाते हैं , कबीर लोक चेतना की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए प्रेम और ज्ञान की वैकल्पिक चेतना जाग्रत करने वाले सांस्कृतिक उद्बोधन के कवि के रूप में सामने आते हैं।
संगोष्ठी का सञ्चालन करते हुए महेन्द्र नेह ने कबीर की क्रांतिकारी चेतना से भरपूर कविताओं के जरिये बताया कि कबीर तत्कालीन दुर्बल बना दिए गए मेहनतकशों को अपना घर जलाकर हाथों में मशाल लेकर सामाजिक -अत्याचारों के दुर्गों को भस्म करदेने की आकांक्षाएं जगाने वाले वैकल्पिक जन -संस्कृति के प्रकाश -गृह हैं . वर्तमान कॉर्पोरेट मनुवादी व्यवस्था और संस्कृति के विरुद्ध कबीर का साहित्य सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उभर रहा है।
कबीर पारख संस्थान ,कोटा के संस्थापक संत प्रभाकर साहेब ने अपने उद्बोधन में कहा कि वर्तमान समाज में कुरीतियाँ , रूढ़ियाँ और सांस्कृतिक पिछड़ापन पुनः बड़ा आकार ग्रहण कर रहा है . यह चिंता और आश्चर्य की बात है कि शिक्षित -जन भी बिल्ली को रास्ता काटते देख कर अपनी कार रोक लेते हैं , घर से बाहर निकलने या कोई आयोजन करने से पहले शुभ मुहूर्त दिखलाते हैं , जबकि आज से 600 वर्ष पूर्व ही समाज में व्याप्त रूढ़ियों से मुक्त होने का आह्वान किया था। संगोष्ठी के अध्यक्ष गांधीवादी विचारक नरेश विजयवर्गीय ने अपने लिखित परचे में पढ़ कर बताया कि कबीर ने धर्म के नाम पर पनपी साम्प्रदायिकता के विरुद्ध जो सांस्कृतिक पहल की थी ,आज उसे गली -गली ,गाँव -गाँव ले जाने की महती आवश्यकता है। साम्प्रदायिकता ने आज देश -समाज में केवल सांस्कृतिक संकट ही नहीं आर्थिक और सामाजिक संकट भी पैदा कर दिया है। महात्मा गाँधी की ह्त्या करने वाले साम्प्रदायिक तत्व आज विचार के रूप में आम -जन के पांवों की बेड़ियां बन गए हैं। इन बेड़ियों को तोड़ना ही कबीर को सच्ची श्रद्धांजलि होगी . सगोष्ठी में विधायक संदीप शर्मा और हिंदी साहित्य के विद्वान टी सी गुप्ता ने भी अपने विचार व्यक्त किये। कबीर के व्यक्तित्व और साहित्य पर केन्द्रित इस संगोष्ठी में शामिल सभी सहभागियों ने स्वयं को कबीर के रंग में रंगा हुआ महसूस किया और इसे एक उपलब्धि के रूप में सराहा।
कबीर पर के केंद्रित कार्यक्रम पर शानदार रिपोर्ट के लिए मुबारकबाद
आपका आभार
शकूर अनवर