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आर.के. सिन्हा

किसी भी स्कूल,कॉलेज या यूनिवर्सिटी की पहचान होती है उसमें शिक्षित हुए विद्यार्थियों तथा शिक्षकों से। इस मोर्चे पर अपने 100 साल का सफर पूरा कर रही दिल्ली यूनिवर्सिटी (डीयू) जितना भी चाहे गर्व कर सकती है। डीयू की स्थापना 1922 में हुई थी और इसका पहला दीक्षांत समारोह 26 मार्च, 1923 को हुआ था। उस समय तक डीयू में सिर्फ सेंट स्टीफंस कॉलेज, हिन्दू कॉलेज, रामजस कॉलेज और दिल्ली कॉलेज (अब जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज) ही थे। ये उन दिनों की बातें हैं जब डीयू में सिर्फ साइंस और आट्र्स की ही फैक्ल्टी हुआ करती थीं। अब जब डीयू में 70 से अधिक कॉलेज हैं। यहां पर सभी का पढऩे और पढ़ाने पर फोकस रहता है। अगर डीयू के इतिहास के पन्नों को खंगाले तो इसका रजत जयंती दीक्षांत समारोह 1947 में ही होना चाहिए था। उसी साल देश आजाद भी हुआ था। इसीलिये इसका आयोजन 1948 में डीयू की मेन बिल्डिंग में हुआ था। इस समारोह में देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु, भारत के वायसराय लार्ड माउंटबेटन,उनकी पत्नी, शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद और महान वैज्ञानिक डॉ. शांति स्वरूप भटनागर भी मौजूद थे। अब तक इंद्रप्रस्थ क़ॉलेज और मिरांडा हाउस भी डीयू का हिस्सा बन चुके थे। अब डीयू में अपने दिल्ली से बाहर से आने वाले विद्यार्थियों के लिए ग्वायर हाल नाम से छात्रवास का निर्माण भी कर लिया गया था। यह सर मौरिस ग्वायर के नाम पर बना था। ग्वायर साहब डीयू के उप कुलपति भी रहे। उन्होंने इसके विस्तार में अहम रोल निभाया था। डीयू का स्वर्ण जयंती दीक्षांत समारोह 1973 में हुआ था। उसमें देश की तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, लेखिका अमृता प्रीतम और गायिका एम एस सुब्बालक्ष्मी भी शामिल हुये थे। जब डीयू का जिक्र आता है तो सबसे पहले दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स (डी स्कूल) की छवि जेहन में आती हैं। इसकी स्थापना 1949 में हुई। यहाँ टाटा उद्योग समूह के सहयोग से रतन टाटा लाइब्रेयरी स्थापित की गई। डी स्कूल को अर्थशास्त्र और संबंधित विषयों में अध्ययन और अनुसंधान के लिए एशिया का सबसे बेहतर संस्थान माना जाता है। डी स्कूल की स्थापना में प्रफेसर वी.के. आर.वी.राव की निर्णायक भूमिका रही थी। वे डी स्कूल के पहले निदेशक थे। इसी डी स्कूल में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. अर्मत्य सेन, प्रो. सुखमय चक्रवर्ती, डॉ. मृणाल दत्ता चौधरी डॉ. ए. एल नागर जैसे अर्थशास्त्रियों ने पढ़ाया।

डीयू के इतिहास पुरुष

डीयू के इतिहास विभाग में लंबे समय से इस तरह के विद्वान गुरु रहे जिनसे पढऩे के लिए बिहार, उत्तर प्रदेश और उड़ीसा तक के नौजवान यहां दाखिला लेते रहे। उनमें डॉ. डी.एन.झा भी थे। वे इतिहासकार ही नहीं बल्कि इतिहास रचयिता भी थे। या यूं कहें कि ख़ुद भी इतिहास के एक निर्माताओं का सा ही जीवन जिये। उनके विद्यार्थियों में उनके लेक्चर कभी कोई मिस नहीं करता था। वे वैदिक काल के विद्वान थे। डीयू में ही आर.एस.शर्मा, सुमित सरकार, मुशीर उल हसन, के.एम. श्रीमाली जैसे नामवर इतिहासकार भी शिक्षक रहे हैं। इनके अलावा यहां पिता-पुत्र मोहम्मद अमीन और शाहिद अमीन की जोड़ी भी पढ़ाती रही है। इतिहास का कोई भी संजीदा विद्यार्थी उनके योगदान का ऋणि रहेगा।

खेलों की तरफ भी गहरा झुकाव

दिल्ली यूनिवर्सिटी में इस तरह के अनेकों प्रोफेसर रहे है, जो पढ़ाते तो इंग्लिश, गणित या जंतु विज्ञान रहे हैं, पर उनका खेलों की तरफ भी गहरा झुकाव रहा। प्रोफेसर रवि चतुर्वेदी ने करीब सौ क्रिकेट टेस्ट मैचों की कमेंट्री की। उन्होंने दो दर्जन किताबें भी क्रिकेट पर लिखीं। गणित के प्रोफेसर रंजीत भाटिया ने 1960 के रोम ओलंपिक खेलों की मैराथन दौड़ में भाग लिया था। सेंट स्टीफंस कॉलेज और हिन्दू कॉलेज को बांटने वाली सड़क का नाम सुधीर बोस मार्ग है। वे सेंट स्टीफंस कॉलेज में 1937-63 तक फिलोस्फी पढ़ाते रहे। वे दिल्ली जिला क्रिकेट संघ यानी डीडीसीए के संस्थापक सदस्यों में से थे। फुटबॉल कमेंटेटर और लेखक नोवी कपाडिय़ा तो अपने आप में फुटबॉल के चलते-फिरते विश्वकोष हैं।

एसआरसीसी पढऩा किसी सपने की तरह

इस बीच,कॉमर्स में करियर बनाने वाले या रुचि रखने वाले नौजवानों के लिए डीयू के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स (एसआरसीसी) में पढऩा किसी सपने की तरह रहा। इधर डॉ. केपीएम सुंदरम ने लगभग चालीस सालों तक पढ़ाया। वे पूर्व केन्द्रीय मंत्री अरुण जेटली तथा सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज एके सीकरी के भी शिक्षक थे। शायद ही इस देश में कोई इक्नोमिक्स का छात्र हो जिसने केपीएम सुंदरम की किताब प्रिंसिपल आफ इक्नोमिक्स को न पढ़ा हो। सुंदरम साहब अपने जीवनकाल में ही लीजैंड बन गए थे। अफ्रीकी देश मलावी के 2004-2012 तक राष्ट्रपति रहे बिंगु वा मुथारिका 1961 से 1964 तक श्रीराम कालेज ऑफ कॉमर्स में पढ़े। वे भी सुंदरम साहब के छात्र थे।

विदेशी अध्यापकों का भी रहा योगदान

दिल्ली यूनिवर्सिटी को समृद्ध करने में विदेशी अध्यापक भी सक्रिय रहे। इस लिहाज से सबसे पहले दीनबंधु सी.एफ.एंड्रयूज का नाम लेना होगा। वे गांधी जी के मित्र थे। वे इंग्लिश पढ़ाते थे। उन्हीं के प्रयासों से ही गांधी जी पहली बार 12 अप्रैल-15 अप्रैल, 1915 को दिल्ली आए और दिल्ली यूनिवर्सिटी कैंपस में रूके। एन्ड्रयूज ने ब्रिटिश नागरिक होते हुए भी जलियांवाला बाग कांड के लिए ब्रिटिश सरकार को जिम्मेदार माना था। वे गुरुदेव टैगोर के भी करीबी रहे। शांति निकेतन में हिंदी भवन की स्थापना उनके आश्रम में हुई थी। उन्होंने 16 जनवरी 1938 को शांति निकेतन में हिंदी भवन की नींव रखी। गुरुदेव की कूची से बना एन्ड्रयूज का एक चित्र सेंट स्टीफंस कॉलेज के प्रिंसिपल के कक्ष में लगा हुआ है। उनकी परम्परा को डीय़ू में आगे लेकर गए इतिहासकार पर्सिवल स्पियर। वे इधर 1924-1940 तक पढ़ाते रहे। स्पियर साहब ने भारत के इतिहास पर अनेक महत्वपूर्ण किताबें लिखीं। वे विशुद्ध अध्यापक और रिसर्चर थे। वे भारत के स्वाधीनता आंदोलन को करीब से देख रहे थे। पर वे उसके साथ या विरोध में खड़े नहीं थे। उन्होंने भारत को छोडऩे के बाद इंडिया, पाकिस्तान एंड दि वेस्ट (1949), ट्वाइलाइट आफ दि मुगल्स (1951), दि हिस्ट्री आफ इंडिया (1966) समेत कई महत्वपूर्ण किताबें लिखीं। इन सबका अब भी महत्व बना हुआ है और आगे भी रहेगा । पिछली लगभग आधी सदी से डीयू में सारे देश के नौजवान आते हैं पढऩे के लिए। यानी देश के नौजवानों का इस पर भरोसा बना हुआ है। उन्हें लगता है कि यहां पर आकर वे एक योग्य नागरिक बन पाएंगे।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)

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Neelam
Neelam
2 years ago

अतिविशिष्ट जानकारी।